Class 12th Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 1
Q. 1. संप्रेषण को परिभाषित कीजिए। संप्रेषण प्रक्रिया का कौन-सा घटक सबसे त्वपूर्ण है ? अपने उत्तर को प्रासंगिक उदाहरणों से पुष्ट कीजिए।
Ans ⇒ संप्रेषण एक सचेतन या अचेतन, साभिप्राय या अनभिप्रेत प्रक्रिया है जिसमें भावनाओं तथा विचारों को, वाचित या अवाचित संदेश के रूप में भेजा, ग्रहण किया और समझा जाता है। श्रवण संप्रेषण प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण घटक है। श्रवण एक महत्वपूर्ण कौशल है जिसका उपयोग हम प्रतिदिन करते हैं। शैक्षणिक सफलता, नौकरी की उपलब्धि एवं व्यक्तिगत प्रसन्नता काफी हद तक हमारे प्रभावी ढंग से सुनने की योग्यता पर निर्भर करती है। प्रथमतया, श्रवण हमें एक निष्क्रिय व्यवहार लग सकता है। क्योंकि इसमें चुप्पी होती है लेकिन निष्क्रियता की यह छवि सच्चाई से दूर है। श्रवण में एक प्रकार की ध्यान सक्रियता होती है। सुननेवाले का धैर्यवान तथा अनिर्णयात्मक होने के साथ विश्लेषण करते रहना पड़ता है ताकि सही अनुक्रिया दी जा सके।
Q.2. उन सक्षमताओं के समुच्चय का वर्णन कीजिए जिनको एक मनोवैज्ञानिक परीक्षण का संचालन करते समय अवश्य ध्यान में रखना चाहिए।
Ans ⇒ मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का संचालन परीक्षण पुस्तिका में दी गई सूचना/अनुदेशों के अनसार ही किया जाता है। इसके लिए आवश्यक तथ्य निम्नलिखित हैं –
(i) परीक्षण का उद्देश्य अर्थात् इसका उपयोग किसके लिए किया जाना है ?
(ii) जनसंख्या की विशेषताएँ जिसके लिए इसका उपयोग किया जा सकता है।
(iii) परीक्षण का वैधताओं के प्रकार अर्थात् किस आधार पर यह कहा जा सकता है किसी का मापन करता है जिसके मापन का दावा करता है ?
(iv) वैधता के बाह्य मानदंड अर्थात् उन क्षेत्रों पर जिस पर इसकी कार्यशीलता देखी गई है।
(v) विश्वसनीयता सूचकांक, प्राप्तांकों में त्रुटि की क्या संभावनाएँ हैं ?
(vi) प्रतिदर्श-मानकीकरण/अर्थात् जब परीक्षण का निर्माण हुआ था तब किसका परीक्षण गया था (भारतीयों का, अमेरीकियों का, ग्रामीणों का, साक्षरों का, निरक्षरों का आदि)?
(vii) परीक्षण संचालन के लिए निर्धारित समय।
(viii) अंक देने की पद्धति, अर्थात् किसको अंक दिया जाएगा और इसकी विधि क्या होगी?
(ix) मानक कौन-से उपलब्ध हैं ? किस समूह के संदर्भ में प्राप्तांकों की व्याख्या की जाएगी पुरुष/महिला, आयु समूह आदि)?
(x) अन्य विशिष्ट कारकों के प्रभाव, जैसे-दबाव स्थितियों या दूसरों की उपस्थिति का प्रभाव आदि।
(xi) परीक्षण की सीमाएँ अर्थात् कौन क्या मूल्यांकन नहीं कर सकता ? वे दशाएँ जो अच्छा मूल्यांकन नहीं दे सकती हैं।
Q.3. एक व्यक्ति की अनन्यता कैसे बनती है ? अथवा, सामाजिक अनन्यता की व्याख्या कीजिए।
Ans ⇒ सामाजिक अनन्यता हमारे अपने संप्रत्यय का वह पक्ष है जो हमारी समूह सदस्यता पर आधारित है। सामाजिक अनन्यता हमें स्थापित करती है, अर्थात् एक बड़े सामाजिक सन्दर्भ में हमें यह . बताती है कि हम क्या हैं और हमारी क्या स्थिति है तथा इस प्रकार समाज में हम कहाँ हैं इसको जानने में सहायता करती है। अपने विद्यालय के एक विद्यार्थी के रूप में छात्र की एक सामाजिक अनन्यता है। एक बार जब एक छात्र अपने विद्यालय के एक विद्यार्थी के रूप में एक अनन्यता स्थापित कर लेता है तो वह उन मूल्यों को आत्मसात् कर लेते हैं जिन पर उसके विद्यालय में बल दिया जाता है और उन मूल्यों को वह स्वयं बना लेते हैं। वह अपने विद्यालय में वाक्यों का पालन करने का पूरा प्रयास करता है। सामाजिक अनन्यता सदस्यों को स्वयं के तथा उनके सामाजिक जगत के विषय में एक जैसे मूल्यों, विश्वासों तथा लक्ष्यों का एक संकलन (सेट) प्रदान करती है। एक बार जब कोई छात्र अपने विद्यालय के मूल्यों को आत्मसात् कर लेता है तो यह उनकी अभिवृत्तियों एवं व्यवहार के समन्वयन एवं नियमन में सहायता करता है। वह अपने विद्यालय को शहर/राज्य के सर्वोत्तम विद्यालय बनाने के लिए कठिन परिश्रम करते हैं। जब हम अपने समूह के साथ एक दृढ़ अनन्यता विकसित कर लेते हैं तो अंतः समूह एवं बाह्य समूह का वर्गीकरण महत्वूपर्ण हो जाता है। जिस समूह से हम अपना तादात्म्य रखते हैं वह अंतः समूह बन जाता है और दूसरे समूह बाह्य समूह बन जाते हैं। इस अंत: समूह तथा बाह्य समूह वर्गीकरण का एक नकारात्मक पक्ष यह है कि हम बाह्य समूह की तुलना में अंत: समूह का अधिक अनुकूल निर्धारण करते हुए अंत: समूह के प्रति पक्षपात का प्रदर्शन प्रारंभ कर देते हैं और बाह्य समूह का अवमूल्यन करने लगते हैं। अनेक अंतर समूह द्वंद्वों का आधार बाह्य समूह का यह अवमूल्यन होता है।
Q.4. दुर्भीति क्या है ? यदि किसी को साँप से अधिक भय हो तो क्या वह सामान दुर्भीति दोषपूर्ण या गलत अधिगम के कारण हो सकता है ? यह दुर्भीति किस प्रकार विकरिब हुई होगी ? विश्लेषण कीजिए।
Ans ⇒ दुर्भीति में लोगों को किसी विशिष्ट वस्तु, लोक या स्थितियों के प्रति अविवेकी या अतर्क भय होता है। दुर्भीति बहुधा धीरे-धीरे या सामान्यीकृत दुश्चिता विकास के उत्पन्न होती है। यदि किसी को साँप से अधिक भय हो तो वह सामान्य दुर्भीति दोषपूर्ण के कारण हो सकता है। यह एक प्रकार की विशिष्ट दुर्भीति होती है। इसमें अविवेकी या अतर्क भय जैसे किसी विशिष्ट प्रकार के जानवर के प्रति तीव्र भय का होना या किसी बंद जगह में होने के भय को होना सम्मिलित होते हैं। यह दुर्भीति दुश्चिता विकार से उत्पन्न हुई होगी।
Q.5. दुश्चिता को ‘पेट में तितलियों का होना’ जैसी अनुभूति कहा जाता है। कि अवस्था में दुश्चिता विकार का रूप ले लेती है ? इसके प्रकारों का वर्णन कीजिए।
Ans ⇒ हमें दुश्चिता का अनुभव तब होता है जब हम किसी परीक्षा की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं या किसी दंत चिकित्सक के पास जाना होता है या कोई एकल प्रदर्शन प्रस्तुत करना होता है यह सामान्य है, जिसकी हमसे प्रत्याशा की जाती है। यहाँ तक कि इसमें मैं अपना कार्य अच्छी तरह करने की अभिप्रेरणा भी मिलती है। इसके विपरीत, जब उच्च स्तरीय दुश्चिता जो कष्टप्रद होती है तथा हमारे सामान्य क्रियाकलापों में बाधा पहुँचती है तब यह मनोवैज्ञानिक विकारों की सबसे सामान्य श्रेणी, दश्चिता विकार की उपस्थिति की संकेत है।
प्रत्येक व्यक्ति को आकुलता और भय होते हैं। सामान्यतः दुश्चिता (Anxiety) शब्द को भय और आशंका की विसृत, अस्पष्ट और अप्रीतिकर भावना के रूप में परिभाषित किया जाता है। दुश्चितित व्यक्ति में निम्न लक्षणों का सम्मिलित रूप रहता है, यथा, हृदय गति से तेज होना, साँस की कमी होना, दस्त होना, भूख न लगना, बेहोशी, घुमनी या चक्कर आना, पसीना आना, निद्रा की कमी, बार-बार मूत्र त्याग करना तथा कँपकँपी आना। दुश्चिता विकार कई प्रकार के होते हैं –
(i) सामान्यीकत दखिंचता विकार (Generalised anxiety disorder) होता है जिसमें लंबे समय तक चलनेवाले, अस्पष्ट, अवर्णनीय तथा तीव्र भय होते हैं जो किसी भी विशिष्ट वस्तु के प्रति गुड़ हुए नहीं होते हैं। इनके लक्षणों में भविष्य के प्रति आकुलता एवं आशंका तथा अत्यधिक सतर्कता. १९ तक कि पर्यावरण में किसी भी प्रकार के खतरे की छानबीन शामिल होती है। इसमें पेशीय तनाव भी होता है जिसके कारण व्यक्ति विश्राम नहीं कर पाता, बेचैन रहता है तथा स्पष्ट रूप से कमजोर और तनावग्रस्त दिखाई देता है।
(ii) आतंक विकार (Panic disorder) में दुश्चिता के दौरे लगातार पड़ते हैं और व्यक्ति तीव्र त्रास या दहशत का अनुभव करता है। आतंक आक्रमण का तात्पर्य हुआ कि जब भी कभी विशेष उद्दीपक से संबंधित विचार उत्पन्न हों तो अचानक तीव्र दश्चिता अपनी उच्चतम सीमा पर पहँच जाए। इस तरह के विचार अकल्पित तरह से उत्पन्न होते हैं इसके नैदानिक लक्षणों में साँस की कमी, घुमनी या चक्कर आना, कँपकँपी, दिल धड़कना, दम घुटना, जी मिचलाना, छाती में दर्द या बेचैनी-सनकी होने का भय, नियंत्रण खोना या मरने का एहसास सम्मिलित होते हैं।
Q.6. बुद्धि के द्वितत्वक सिद्धान्त का वर्णन करें। अथवा, बुद्धि के द्वि-कारक सिद्धान्त का वर्णन करें।
Ans ⇒ बुद्धि के द्वि-कारक सिद्धान्त का प्रतिपादन ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक चार्ल्स स्पीयरमैन ने किया। इन्होंने बुद्धि संरचना में दो प्रकार के कारकों का उल्लेख किया है, जिन्हें सामान्य बुद्धि (जी. कारक) तथा विशिष्ट बुद्धि (एस० कारक) कहते हैं। इनके अनुसार बुद्धि में सामान्य बुद्धि का बड़ा अंश है जो व्यक्ति के संज्ञानात्मक कार्यों के लिए उत्तरदायी है। इस कारक पर किसी तरह के शिक्षण, प्रशिक्षण, पूर्व अनु आदि का प्रभाव नहीं पड़ता है। इस कारण यह कारक जन्मजात कारक माना जाता है। दूसरी स्पीयरमैन में विशिष्ट बुद्धि का अति लघुरूप (5%) माना है। विशिष्ट बुद्धि की प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक ही व्यक्ति में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न मात्रा में पाया जाता है। शिक्षण-प्रशिक्षण से प्रभावित होता है। ऐसे कारकों की आवश्यकता विशेष योग्यता वाले कार्यों में पड़ती है। जैसे एक व्यक्ति प्रसिद्ध लेखक है परन्तु आवश्यक नहीं है कि वह उतना ही निपुण पेण्टर भी साबित हो। अर्थात् लेखन में विशिष्ट बुद्धि अधिक हो सकती है तथा पेंटिंग व गायन विशिष्ट बुद्धि की मात्रा कम हो सकती है। इस प्रकार यह बुद्धि का प्रथम व्यवस्थित सिद्धान्त है। आगे चलकर इस सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की गयी कि बुद्धि में केवल दो ही तत्त्व वल्कि अनेक तत्त्व होते हैं।
Q.7. फ्रायड के मनोलैंगिक विकास की पाँच अवस्थाओं का वर्णन करें।
Ans ⇒ फ्रायड ने मनोलैंगिक विकास को पाँच अवस्थाओं में बाँटा है –
(i) मौखिक अवस्था – एक नवजात शिशु की मूल प्रवृत्तियाँ मुख पर केंद्रित होती हैं। यह शिशु का प्राथमिक सुख प्राप्ति का केंद्र होता है। यह मुख ही होता है जिसके माध्यम से शिशु भोजन ग्रहण करता है और अपनी भूख को शांत करता है। शिशु मौखिक संतुष्टि भोजन ग्रहण, अँगूठा चूसने, काटने और बलबलाने के माध्यम से प्राप्त करता है। जन्म के बाद आरंभिक कुछ महीनों की अवधि में शिशुओं में अपने चतुर्दिक जगत के बारे में आधारभूत अनुभव और भावनाएँ विकसित हो जाती है। फ्रायड के अनुसार एक वयस्क जिसके लिए यह संसार कटु अनुभवों से परिपूर्ण हैं, संभवतः मौखिक अवस्था का उसका विकास कठिनाई से हुआ करता है।
(ii) गुदीय अवस्था – ऐसा पाया गया है कि दो-तीन वर्ष की आयु में बच्चा समाज की कुछ मांगों के प्रति अनुक्रिया करना सीखता है। इनमें से एक प्रमुख माँग माता-पिता की यह होती है कि बालक मूत्रत्याग एवं मलत्याग जैसे शारीरिक प्रकार्यों को सीखे। अधिकांश बच्चे एक आयु में इन क्रियाओं को करने में आनंद का अनुभव करते हैं। शरीर का गुदीय क्षेत्र कुछ सुखदायक भावनाओं का केंद्र हो जाता है। इस अवस्था में इड और अहं के बीच द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है। साथ ही शैशवावस्था की सुख की इच्छा एवं वयस्क रूप में नियंत्रित व्यवहार की मांग के बीच भी द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है।
(iii) लैंगिक अवस्था – यह अवस्था जननांगों पर बल देती है। चार-पाँच वर्ष की आयु में बच्चे पुरुषों एवं महिलाओं के बीच का भेद अनुभव करने लगते हैं। बच्चे कामुकता के प्रति एवं अपने माता-पिता के बीच काम संबंधों के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इसी अवस्था में बालक इडिपस मनोग्रंथि का अनुभव करता है जिसमें अपनी माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति आक्रामकता सन्निहित होती है तथा इसके परिणामस्वरूप पिता द्वारा दंडित या शिश्नलोप किए जाने का भय भी बालक में कार्य करता है। इस अवस्था की एक प्रमुख विकासात्मक उपलब्धि यह है कि बालक अपनी इस मनोग्रंथि का समाधान कर लेता है। वह ऐसा अपनी माता के प्रति पिता के संबंधों को स्वीकार करके उसी तरह का व्यवहार करता है।
बलिकाओं में यह इडिपस ग्रंथि थोडे भिन्न रूप में घटित होती है। बालिकाओं में इसे इलेक्ट्रा मनोग्रंथि कहते हैं। इसे मनोग्रंथि में बालिका अपने पिता को प्रेम करती है और प्रतीकात्मक रूप से उससे विवाह करना चाहती है। जब उसको यह अनुभव होता है कि संभव नहीं है तो वह अपनी माता का अनुकरण कर उसके व्यवहारों को अपनाती है। ऐसा वह अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिए करती है। उपर्युक्त दोनों मनोग्रंथियों के समाधान में क्रांतिक घटक समान लिंग के माता-पिता के साथ तदात्मीकरण स्थापित करना है। दूसरे शब्दों में, बालक अपनी माता के प्रतिद्वंद्वी की बजाय भूमिका-प्रतिरूप मानने लगते हैं। बालिकाएँ अपने पिता के प्रति लैंगिक इच्छाओं का त्याग कर देती हैं और अपनी माता से तादात्मय स्थापित करती है।
(iv) कामप्रसुप्ति अवस्था – यह अवस्था सात वर्ष की आयु से आरंभ होकर यौवनारंभ तक बनी रहती है। इस अवधि में बालक का विकास शारीरिक दृष्टि से होता रहता है। किन्तु उसकी कामेच्छाएँ सापेक्ष रूप से निष्क्रिय होती हैं। बालक की अधिकांश ऊर्जा सामाजिक अथवा उपलब्धि संबंधी क्रियाओं में व्यय होती है।
(v) जननांगीय अवस्था – इस अवस्था में व्यक्ति मनोलैंगिक विकास में परिपक्वता प्राप्त करता है। पूर्व की अवस्थाओं की कामेच्छाएँ, भय और दमित भावनाएँ पुनः अभिव्यक्त होने लगती हैं। लोग इस अवस्था में विपरीत लिंग के सदस्यों से परिपक्व तरीके से सामाजिक और काम संबंधी आचरण करना सीख लेते हैं। यदि इस अवस्था की विकास यात्रा में व्यक्ति को अत्यधिक दबाव अथवा अत्यासक्ति का अनुभव होता है तो इसके कारण विकास की किसी आरंभिक अवस्था पर उसका स्थिरण हो सकता है।
Q.8. निर्धनता के मुख्य कारणों की व्याख्या कीजिए।
Ans ⇒ निर्धनता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं –
(i) निर्धन स्वयं अपनी निर्धनता के लिए उत्तरदायी होते हैं। इस मत के अनुसार, निर्धन व्यक्तियों में योग्यता तथा अभिप्रेरणा दोनों की कमी होती है जिसके कारण वे प्रयास करके उपलब्ध अवसरों का लाभ नहीं उठा पाते। सामान्यतः निर्धन व्यक्तियों के विषय में यह मत निषेधात्मक है तथा उनकी स्थिति को उत्तम बनाने में तनिक भी सहायता नहीं करता है।
(ii) निर्धनता का कारण कोई व्यक्ति नहीं अपितु एक विश्वास व्यवस्था, जीवन-शैली तथा वे मूल्य हैं जिनके साथ वह पलकर बड़ा हुआ है। यह विश्वास व्यवस्था, जिसे ‘निर्धनता की संस्कृति’ (culture ofpoverty) कहा जाता है, व्यक्ति को यह मनवा या स्वीकार करवा देती है कि वह तो निर्धन ही रहेगा/रहेगी तथा यह विश्वास एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता रहता है।
(iii) आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक कारक मिलकर निर्धनता का कारण बनते हैं। भेदभाव के कारण समाज के कुछ वर्गों को जीविका की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने के अवसर भी दिए जाते। आर्थिक व्यवस्था को सामाजिक तथा राजनीतिक शोषण के द्वारा वैषम्यपूर्ण (असंगत) तरह से विकसित किया जाता है जिससे कि निर्धन इस दौड से बाहर हो जाते हैं। ये सारे कारक सामाजिक
असुविधा के संप्रत्यय में समाहित किए जा सकते हैं जिसके कारण निर्धन सामाजिक अन्याय, बचन भेदभाव तथा अपवर्जन का अनुभव करते हैं।
(iv) वह भौगोलिक क्षेत्र, व्यक्ति जिसके निवासी हों, उसे निर्धनता का एक महत्त्वपूर्ण कारण माना जाता है। उदाहरण के लिए, वे व्यक्ति जो ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जिनमें प्राकृतिक संसाधनों का अभाव होता है (जैसे-मरुस्थल) तथा जहाँ की जलवायु भीषण होती है (जैसे-अत्यधिक सर्दी या गर्मी) प्राय. निधनता के शिकार हो जाते हैं। यह कारक मानव द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। फिर भी न इन क्षत्री के निवासियों की सहायता के लिए प्रयास अवश्य किए जा सकते हैं ताकि वे जीविका के वैकल्पिक उपाय खोज सकें तथा उन्हें उनकी शिक्षा एवं रोजगार हेतु विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा सकें।
(v) निर्धनता चक्र (Poverty cycle) भी निर्धनता का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण है जो यह व्याख्या करता है कि निर्धनता उन्हीं वर्गों में ही क्यों निरंतर बनी रहती है। निर्धनता ही निर्धनता की जननी भी है। निम्न आय और संसाधनों के अभाव से प्रारंभ कर निर्धन व्यक्ति निम्न स्तर के पोषण तथा स्वास्थ्य, शिक्षा के अभाव तथा कौशलों के अभाव से पीड़ित होते हैं। इनके कारण उनके रोजगार पाने के अवसर भी कम हो जाते हैं जो पुन: उनकी निम्न आय स्थिति तथा निम्न स्तर के स्वास्थ्य एवं पोषण स्थिति को सतत् रूप से बनाए रखते हैं। इनके परिणामस्वरूप निम्न अभिप्रेरणा स्तर स्थिति को और भी खराब कर देता है, यह चक्र पुन: प्रारंभ होता है और चलता रहता है। इस प्रकार निर्धनता चक्र में उपर्युक्त विभिन्न कारकों की अंत:क्रियाएँ सन्निहित होती हैं तथा इसके परिणास्वरूप वैयक्तिक अभिप्रेरणा, आशा तथा नियंत्रण-भावना में न्यूनता आती है।
Q.9.सामान्य अनुकूलन संलक्षण क्या है ? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
Ans ⇒ मनुष्य अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं। निर्मित पर्यावरण के सारे उदाहरण पर्यावरण के. ऊपर मानव प्रभाव को अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिये, मानव ने जिसे हम ‘घर’ कहते हैं उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जिससे कि उन्हें एक आश्रय मिल सके। मनुष्यों के इस प्रकार के कुछ कार्य पर्यावरण को क्षति भी पहुँचा सकते हैं और अंततः स्वयं उन्हें करते हैं, जैसे-रेफ्रीजरेटर तथा वातानुकूलन यंत्र जो रासायनिक द्रव्य (जैसे-CFC या क्लोरो फ्लोरो कार्बन) उत्पादित करते हैं, जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा अंततः ऐसे शारीरिक रोगों के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं, जैसे-कैंसर के कुछ प्रकार। धूम्रपान के द्वारा हमारे आस-पास की वायु प्रदूषित होती है तथा प्लास्टिक एवं धातु से बनी वस्तुओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है। वृक्षों के कटान या निर्वनीकरण के द्वारा कार्बन चक्र एवं जल चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है। इससे अंततः उस क्षेत्र विशेष में वर्षा के स्वरूप पर प्रभाव पड़ सकता है और भू-क्षरण तथा मरुस्थलीकरण में वृद्धि हो सकती है। वे उद्योग जो निस्सारी का बहिर्वाह करते हैं तथा इस असंसाधि त गंदे पानी को नदियों में प्रवाहित करते हैं, इस प्रदूषण के भयावह भौतिक (शारीरिक) तथा मनोवैज्ञानिक परिणामों से, संबंधित व्यक्ति तनिक भी चिंतित प्रतीत नहीं होते हैं।
मानव व्यवहार पर पर्यावरणीय प्रभाव :
(i). प्रत्यक्षण पर पर्यावरणी प्रभाव – पर्यावरण के कुछ पक्ष मानव प्रत्यक्षण को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, अफ्रीका की एक जनजाति समाज गोल कुटियों (झोपड़ियों) में रहती है अर्थात् ऐसे घरों में जिनमें कोणीय दीवारें नहीं हैं, वे ज्यामितिक भ्रम (मूलर-लायर भ्रम) में कब त्रटि प्रदर्शित करते हैं. उन व्यक्तियों की अपेक्षा जो नगरों में रहते हैं और जिनके मकानों में कोणीय दीवारें होती हैं।
(ii) संवेगों पर पर्यावरणी प्रभाव – पर्यावरण का प्रभाव हमारी सांवेगिक प्रतिक्रियाआ पर भी पड़ता है। प्रकृति के प्रत्येक रूप का दर्शन चाहे वह शांत नदी का प्रवाह हो, एक मुस्कुराता हुआ फूल हो, या एक शांत पर्वत की चोटी हो, मन को एक ऐसी प्रसन्नता से भर देता है जिसकी तुलना किसी अन्य अनुभव से नहीं की जा सकती। प्राकृतिक विपदाएँ; जैसे-बाढ़, सूखा, भू-स्खलन, भूकंप चाहे पृथ्वी के ऊपर हो या समुद्र के नीचे हो, वह व्यक्ति के संवेगों पर इस सीमा तक प्रभाव डाल सकते हैं कि वे गहन अवसाद और दुःख तथा पूर्ण असहायता की भावना और अपने जीवन पर नियंत्रण के अभाव का अनुभव करते हैं। मानव संवेगों पर ऐसा प्रभाव एक अभिघातंज अनुभव है जो व्यक्तियों के जीवन को सदा के लिये परिवर्तित कर देता है तथा घटना के बीत जाने के बहुत समय बाद तक भी अभिघातज उत्तर दबाव विकार (Post traumatic stress disorder-PTSD) के रूप में बना रहता है।
(iii) व्यवसाय, जीवन शैली तथा अभिवृत्तियों पर पारिस्थितिकी का प्रभाव – किसी क्षेत्र का प्राकृतिक पर्यावरण यह निर्धारित करता है कि उस क्षेत्र के निवासी कृषि पर (जैसे मैदानों में) या अन्य व्यवसायों, जैसे-शिकार तथा संग्रहण पर (जैसे-वनों, पहाड़ों या रेगिस्तानी क्षेत्रों में) या उद्योगों पर (जैसे उन क्षेत्रों में जो कृषि के लिए उपजाऊ नहीं हैं) निर्भर रहते हैं परन्तु किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों के व्यवसाय भी उनकी जीवन शैली और अभिवत्तियों का निर्धारण करते हैं।
Q.10. प्रेक्षण कौशल क्या है ? इसके गुण-दोषों का वर्णन करें।
Ans ⇒ किसी व्यवहार या घटना को देखना किसी घटना को देखकर क्रमबद्ध रूप से उसका वर्णन प्रेक्षण कहलाता है। मनोवैज्ञानिक चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हों वह अधिक-से-अधिक समय ध्यान से सनने तथा प्रेक्षण कार्य में लगा देते हैं। मनोवैज्ञानिक अपने संवेदनाओं का प्रयोग देखने, सुनने, स्वाद लेने या स्पर्श करने में लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनोवैज्ञानिक एक उपकरण है, जो अपने परिवेश के अन्तर्गत आने वाली समस्त सूचनाओं का अवशोषण कर लेता है।
मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश के उन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत शक्ति तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है। मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश में उन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत व्यक्ति तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है, जिसके अंतर्गत व्यक्ति की आय, लिंग, कद, उसका दूसरे से व्यवहार करने का तरीका आदि सम्मिलित होते हैं।
प्रेक्षण के दो प्रमुख उपागम हैं – (i) प्रकृतिवादी प्रेक्षण तथा (ii) सहभागी प्रेक्षण।
गुण – (i) यह विधि वस्तुनिष्ठ तथा अवैयक्तिक होता है।
(ii) इसका प्रयोग बच्चे, बूढ़े, पशु-पक्षी सभी पर किया जा सकता है।
(iii) इस विधि द्वारा संख्यात्मक परिणाम प्राप्त होता है।
(iv) इसमें एक साथ कई व्यक्तियों का अध्ययन संभव है।
(v) इस विधि में पुनरावृत्ति की विशेषता है।
दोष- (i) इस विधि में श्रम एवं समय का व्यय होता है।
(ii) प्रेक्षक के पूर्वाग्रह के कारण गलती का डर रहता है।
(iii) प्रयोगशाला की नियंत्रित परिस्थिति नहीं होने कारण निष्कर्ष प्रभावित होता है।
Q. 11. दुश्चिंता विकार के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।
Ans ⇒ प्रत्येक व्यक्ति को व्याकुलता और भय होते हैं। सामान्यतः भय और आशंका की विस्तृत, अस्पष्ट और अप्रीतिकर भावना को ही दुश्चिंता कहते हैं। दुश्चिंता विकार व्यक्ति में कई लक्षणों के रूप में दिखाई पड़ता है। इन लक्षणों के आधार पर इसे मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है –
(i) सामान्यीकृत दुश्चिंता विकार – इसके लंबे समय तक चलनेवाले अस्पष्ट, अवर्णनीय तथा तीव्र भय होते हैं जो किसी भी विशिष्ट वस्तु के प्रति जुड़े हुए नहीं होते हैं। इसके लक्षणों में भविष्य के प्रति अकिलता एवं आंशिका अत्यधिक सतर्कता, यहाँ तक कि पर्यावरण में किसी भी प्रकार के खतरे की छान-बीन शामिल होती है। इसमें पेशीय तनाव भी होता है। जिसस आराम नहीं कर पाता है बेचैन रहता है तथा स्पष्ट रूप से कमजोर और तनावग्रस्त दिखाई देता है।
(ii) आतंक विकार – इसमें दुश्चिंता के दौर लगातार पड़ते हैं और व्यक्ति तीव्र दहशत का अनुभव करता है। आतंक विकार में कभी विशेष उद्दीपन से सम्बन्धित विचार उत्पन्न होती है तो अचानक तीव्र दुश्चिंता अपनी उच्चतम सीमा पर पहुँच जाती है। इस तरह के विचार अचानक से उत्पन्न होते हैं। इसके नैदानिक लक्षणों में साँस की कमी, चक्कर आन, कपकपी, दिल तेजी से धडकना, दम घुटना, जी मिचलना, छाती में दर्द या बेचैनी, सनकी होने का भय, नियंत्रण खोना या मरने का एहसास सम्मिलित होते हैं।
Q. 12. बुद्धि लब्धि तथा संवेगात्मक बुद्धि में अंतर स्पष्ट करें।
Ans ⇒ बुद्धि लब्धि (I.Q.) तथा संवेगात्मक बुद्धि (E. Q.) में अंतर निम्नलिखित है –
S.N | बुद्धि लब्धि | संवेगात्मक बुद्धि |
1. | 1. बुद्धि लब्धि यह बताती है कि शिशु की मानसिक योग्यता का किस गति से विकास हो रहा है। | 1. संवेगात्मक बुद्धि यह बताती है कि अपने तथा दूसरे व्यक्ति के संवेगों का परिवीक्षण करने, उनमें विभेदन करने की योग्यता तथा प्राप्त सूचना के अनुसार अपने चिंतन तथा व्यवहारों को निर्देशित करने की योग्यता ही सांवेगिक बुद्धि है। |
2. | 2. बुद्धि लब्धि घट-बढ़ सकती है तथा परिवर्तन भी होता है। | 2. संवेगात्मक बुद्धि घट-बढ़ नहीं सकती है। |
3. | 3. बुद्धि लब्धि को प्रभावित करने का एक स्रोत वातावरण भी है। | 3. उसे वातावरण द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता है। |
4. | 4. बुद्धि लब्धि सामान्यतया योग्यता की ओर संकेत करती है। | 4. संवेगात्मक बुद्धि सामान्यतया योग्यता की ओर संकेत नहीं करती है। |
5. | 5. बुद्धि लब्धि का उपयोग किसी व्यक्ति की सांवेगिक बुद्धि की मात्रा बताने में नहीं किया जाता है। | 5. सांवेगिक बुद्धि का उपयोग किसी व्यक्ति की सांवेगिक बुद्धि की मात्रा बताने में किया जाता है। |
Q. 13. आत्म किसे कहते हैं ? आत्म-सम्मान की विवेचना करें।
Ans ⇒ आत्म शब्द अंग्रेजी के शब्द Self का हिन्दी रूपान्तर है, जिसका अर्थ है “What one is” अर्थात् जो कुछ कोई होता है। आत्म शब्द का प्रयोग सामान्यतः दो अर्थों में किया जाता है एक अर्थ में आत्म व्यक्ति के स्वयं के मनोभावों या मनोवृत्तियों का दर्पण होता है। अर्थात् व्यक्ति अपने बारे में जो सोचता है वही आत्म है। अतः आत्म एक वस्तु के रूप में है। दूसरे अर्थ में आत्मा का अभिप्राय कार्य पद्धति से है अर्थात् आत्म को एक प्रक्रिया माना जाता है। इसमें मानसिक प्रक्रियाएँ आती हैं जिसके द्वारा व्यक्ति किसी कार्य का प्रबंधन, समायोजन, चिंतन, स्मरण, योजना का निर्माण आदि करता है। इस प्रकार थोड़े शब्दों में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति अपने अस्तित्व की विशेषताओं का अनुभव जिस रूप में करता है तथा जिस रूप में वह व्यक्ति होता है, उसे ही आत्म कहते हैं।
आत्म-सम्मान या आत्म-गौरव या आत्म-आदर, आत्म सम्प्रत्यक्ष से जुड़ा एक महत्वपूर्ण है। व्यक्ति हर क्षण अपने मूल्य तथा अपनी योग्यता के बारे में आकलन करते रहता है। व्यक्ति का अपने बारे में यही मूल्य अथवा महत्त्व की अवधारणा को आत्म सम्मान कहा जाता है। लिण्डग्रेन के अनुसार, “स्वयं को जो हम मूल्य प्रदान करते हैं, वही आत्म-सम्मान है।” इस प्रकार आत्म-सम्मान से तात्पर्य व्यक्ति को अपने प्रति आदर, मूल्य अथवा सम्मान को बताता है जो कि गर्व तथा आत्मप्रेम के रूप में संबंधित होता है।
आत्म-सम्मान का स्तर अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग पाया जाता है। किसी व्यक्ति में इसका स्तर उच्च होता है तो किसी व्यक्ति में इसका स्तर निम्न होता है। जब व्यक्ति का स्वयं के प्रति सम्मान निम्न होता है तो वह आत्म-अनादर ढंग से व्यवहार करता है। अतः व्यक्ति का आत्म-सम्मान उसके व्यवहार से भक्त होता है। व्यक्ति अपने आपको जितना महत्त्व देता है उसी अनुपात में उसका आत्म-सम्मान होता है।
Q.14. प्राथमिक समूह तथा द्वितीयक समूह के ब्रीच अन्तरों की विवेचना करें।
Ans ⇒ प्राथमिक तथा द्वितीयक समूह के मध्य एक अंतर यह है कि प्राथमिक समूह पूर्व-विद्यमान होते हैं जो प्रायः व्यक्ति को प्रदत्त किया जाता है जबकि द्वितीयक समूह वे होते हैं जिसमें व्यक्ति अपने पसंद से जुड़ता है। अतः परिवार, जाति एवं धर्म प्राथमिक समूह है जबकि राजनीतिक दल की सदस्यता द्वितीयक समह का उदाहरण है। प्राथमिक समह में मखोन्मख अत:क्रिया होती है, सदस्यों में घनिष्ठ शारीरिक समीप्य होता है और उनमें एक उत्साहपूर्वक सांवेगिक बंधन पाया जाता है। प्राथमिक समूह व्यक्ति के प्रकार्यों के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं और विकास की आरंभिक अवस्थाओं में व्यक्ति के मूल्य एवं आदर्श के विकास में इनकी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके विपरीत, द्वितीयक समूह वे होते हैं जहाँ सदस्यों में संबंध अधिक निर्वयक्तिक, अप्रत्यक्ष एवं कम आवृत्ति वाले होते हैं। प्राथमिकता समूह में सीमाएँ कम पारगम्य होती हैं, अर्थात् सदस्यों के पास इसकी सदस्यता वरण या चरणा करने का विकल्प नहीं रहता है, विशेष रूप से द्वितीयक समूह की तुलना में जहाँ इसकी सदस्यता को छोड़ना और दूसरे समूह से जुड़ना आसाना होता है।
Q.15. मानव व्यवहार पर प्रदूषण के प्रभावों का वर्णन करें।
Ans ⇒ पर्यावरणीय प्रदूषण वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण के रूप में हो सकता है। इन सभी प्रदूषणों का वर्णन क्रमशः निम्नलिखित हैं –
(i) मानव व्यवहार पर वायु प्रदूषण का प्रभाव – वायुमंडल में 78.98% नाइट्रोजन, 20.94% ऑक्सीजन तथा 0.03% कार्बन डाइऑक्साइड होता है। यह शुद्ध वायु कहलाती है। लेकिन उद्योगों का धुआँ, धूल के कण, मोटर आदि वाहनों की विषाक्त गैसें, रेडियोधर्मी पदार्थ आदि वायु प्रदूषण के मुख्य कारण हैं, जिसका प्रभाव मानव के स्वास्थ्य तथा व्यवहार पर पर्याप्त पड़ता है। मानव श्वसन क्रिया में ऑक्सीजन लेता है तथा कार्बनडाइऑक्साइड छोड़ता है जो वायुमंडल में मिलती रहती है। आधुनिक युग में वायु को औद्योगिक प्रदूषण ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। प्रदूषित वायमंडल में अवांछित कार्बनडाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, अधजले हाइड्रोकार्बन के कण आदि मिले रहते हैं। ऐसे वायुमंडल में श्वास लेने से मनुष्य के शरीर में कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। राय एवं कपर के शोध परिणामों से यह ज्ञात होता है कि निम्न प्रदूषित क्षेत्रों के मानवों की अपेक्षा उच्च प्रदूषित क्षेत्रों के मानवों में अत्यधिक उदासीनता अत्यधिक आक्रामकता एवं पारिवारिक अन्तर्द्वन्द्व विशेष देखा गया है।
(ii) मानव व्यवहार पर जल प्रदूषण का प्रभाव – जल प्रदूषण से तात्पर्य जल के भौतिक रासायनिक और जैविक गणों में ऐसा परिवर्तन से है कि उसके रूप, गंध और स्वाद से मानव के स्वास्थ्य और कृषि, उद्योग एवं वाणिज्य को हानि पहुँचे, जल प्रदूषण कहलाता है। जल जीवन के लिए एक बुनियादी जरूरत है। प्रदूषित जल पीने से विभिन्न प्रकार के मानवीय रोग उत्पन हो जातें हैं, जिसमें आँत रोग, पीलिया, हैजा, टायफाइड, अतिसार तथा पेचिस प्रमुख हैं। औद्योगिक द्वारा जल स्रोतों में फेंके गए पारे, ताँबे, जिंक और अन्य धातुएँ तथा उनके ऑक्साइड अनेक शारीरिक विकृतियों को जन्म देते हैं। इस प्रकार प्रदूषित जल का मानव जीवन पर बुरा असर पड़ता है।
इस प्रकार वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण तथा इन दोनों के प्रभाव से भूमि प्रदूषण का प्रभाव मानव व्यवहार पर पड़ता है।