Class 12th Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 3
Q.30. विभिन्न प्रकार के मनोचिकित्सा का वर्णन करें।
Ans ⇒ चिकित्सा या मनोचिकित्सा का अर्थ मनोवैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा मानसिक विकृतियों, द्वन्द्वों तथा व्याधियों का उपचार करना है। सरासन (Sarason, 2005) ने भी इसी अर्थ में मनोचिकित्सा को परिभाषित किया है।
मनोचिकित्सा के कई प्रकार होते हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं –
(i) मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा (Psychoanalytic therapy) – इस विधि को फ्रॉयड ने विकसित किया। इसकी कई अवस्थाएँ होती हैं। इन्हीं अवस्थाओं को साक्षात्कार की अवस्था, स्वतंत्र साहचर्य की अवस्था, दैनिक जीवन की भूलों की अवस्था, स्वप्न, विश्लेषण की अवस्था, अंतरण की अवस्था, पुर्नशिक्षण की अवस्था तथा समापन की अवस्था कहते हैं। यह मनोचिकित्सा विधि मानसिक रोगियों के उपचार में केवल आंशिक रूप से सफल है।
(ii) व्यवहार चिकित्सा (Behaviour therapy) – इस चिकित्सा विधि को स्किनर ने विकसित किया तथा उल्पे ने इसमें योगदान किया। इस विधि के कई परिमार्जित प्रकार या रूप हैं। इनमें विमुखता चिकित्सा (aversive therapy), संकेत व्यवस्था (token economy), मुकाबला (flooding), व्यवहार प्रतिरूपण (behaviour modeling) आदि प्रमुख हैं। आवश्यकता के अनुकूल इन चिकित्सा प्रविधियों का उपयोग करके रोगी का उपचार किया जाता है। यह चिकित्सा विधि भी आंशिक रूप में ही सक्षम है।
(iii) संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (Cognitive behaviour therapy) – संज्ञानात्मक चिकित्सा को बेक नामक मनोवैज्ञानिक ने विकसित किया। वास्तव में यह चिकित्सा विधि व्यवहार चिकित्सा का ही विकसित एवं परिमार्जित रूप है। इसमें व्यवहार परिमार्जन के साथ-साथ रोगी के संज्ञान परिवर्तन पर भी बल दिया गया है। इसलिए यह चिकित्सा विधि वास्तव में अधिक प्रभावी एवं उपयोगी है। इसके अलावे भी चिकित्सा या मनोचिकित्सा के कई प्रकार हैं, जैसे-समूह चिकित्सा, खेल चिकित्सा, अनादेश चिकित्सा आदि।
(iv) योगा चिकित्सा (Yoga therapy) – योगा चिकित्सा वास्तव में भारतीय चिंतकों में योगदानों का परिणाम है। इस चिकित्सा में योगा के माध्यम से रोगी को रोगमुक्त किया जाता है। योगा के कुछ निश्चित नियम हैं, जिनके अनुसार रोगी को व्यवहार करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप वह क्रमशः रोगमुक्त बन जाता है। इसका गुण यह है कि इसका कोई हानिप्रद प्रभाव नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि रोगी सदा के लिए रोगमुक्त हो जाता है।
Q.31. मनोचिकित्सा को वर्गीकृत करने के विभिन्न प्राचल का वर्णन करें।
Ans ⇒ मनोचिकित्सा विविध प्रकार के मानवीय रोगों एवं विक्षोभों, विशेषतया जो मनोजात कारणों से होते हैं, का निराकरण करने के लिए मनोवैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धांतों का योजनाबद्ध – एवं व्यवस्थित ढंग से उपयोगी है।
चिकित्सात्मक संबंधों की प्रकृति को निम्नवत् रूप से स्पष्ट किया जा सकता है –
(i) प्रतिरोध (Resistance) – सामान्यतः रोगी की समस्याएँ उसके अचेतन मन से संबंध रखती है जो असामाजिक और लैंगिक होती है। रोगी उनको बताने के बाद एकदम से रुक जाता है। जब ऐसी स्थिति आए तो चिकित्सक का कर्तव्य बनता है कि वह रोगी की प्रतिरोधात्मक बातों का कोई निवारण करें। ऐसी स्थिति सामान्यतः तब उत्पन्न होती है जब रोगी तथा चिकित्सक के बीच आत्मीय संबंध स्थापित हों, ऐसी स्थिति में रोगी अपनी समस्या को प्रकट करने में प्रतिरोध करता है।
संक्रमण (Transference) – मनोचिकित्सा में रोगी और चिकित्सक के बीच एक संबंध स्थापित हो जाता है जिसके कारण चिकित्सक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। क्योंकि कहीं न कहीं रोगी अपनी घृणा या प्रेम का वास्तविक पात्र उस चिकित्सक को मान लेता है जिसके परिणामस्वरूप अगर चिकित्सक सावधानियाँ न अपनाए तो उसे परेशानियाँ अर्थात् रोग घेर लेते हैं जिसके फलस्वरूप संक्रमण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(iii) आत्मीयता संबंध की स्थापना (Establishment of report formation) – आत्मीयता संबंध की स्थापना का मुख्य उद्देश्य यह है कि किसी भी तरह से रोगी के मस्तिष्क के उन रोगों करना जिसकी वजह से व्यक्ति असामान्य हो जाता है या असामान्य व्यवहार करने लगता है। आत्मीयता संबंध की स्थापना करने से ही मनोचिकित्सा का आरंभ होता है। इसमें चिकि काल में व्यक्ति में आत्मविश्वास उत्पन्न किया जाता है और उसके व्यक्तित्व को संगठित किया जाता है जिससे वह अपने आसपास के लोगों तथा पर्यावरण के मध्य एक उचित संबंध स्थापित कर सके। एक चिकित्सक हमेशा यही चाहता है कि वह जिस भी रोगी का इलाज कर रहा है वह उसे पूर्ण रूप से ठीक कर सके। परंतु यह तभी संभव है जब रोगी और चिकित्सक के मध्य आत्मीयता के विचार जागृत हों या सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित हों।
(iv) अन्तदृष्टि (Insight) – अगर किसी रोगी की चिकित्सा उचित ढंग से हो रहा हो तो वह अपनी दमित भावनाओं, परेशानियों आदि के विषय में चिकित्सक को बताने लगता है। इसका सीधा संबंध अहम् और असामाजिकता को छोड़ने से होता है। इसलिए यह जरूरी है कि ये इच्छाएँ जिस रूप में दमित हुई थीं ठीक उसी प्रकार से बाहर आयें या रोगी उसी प्रकार से उन्हें व्यक्त कर सके। जिस प्रकार से इच्छाएँ दमित हुई ठीक उसी प्रकार से व्यक्त न कर पाने के कारण व्यक्ति अपनी समस्याओं और परेशानियों में उलझ जाता है और निषेधात्मक रूप से अपनी बातों को प्रकट करता है। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि चिकित्सक अपने आपको इस बात के लिए तैयार करें कि वह रोगी की उन निषेधात्मक बातों को भी समझ सके। इससे रोगी में अन्तर्दृष्टि आ जाती है।
(v) संवेगात्मक पुनशिक्षा तथा सामान्य समायोजन (Techniques of psychotherapy) – जब रोगी को इस बात का आभास होता है कि उसकी अन्तर्दृष्टि ठीक प्रकार से काम कर रही है तो वह सामान्य व्यक्तियों की तरह कार्य करने लगता है और वह स्वयं भी अपनी परेशानियों को दूर करने की कोशिश करता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि रोगी को यदि उचित प्रकार की मनोचिकित्सा मिलती है तो इस रोगी को आराम अवश्य मिलता है।
Q.32: समूह को परिभाषित करें। समूह का निर्माण किस तरह होता है ? अथवा, समूह संरचना के मुख्य घटकों की व्याख्या कीजिए।
Ans ⇒ जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित होते हैं तो उसे समूह कहते हैं। परन्तु, सामाजिक समूह के लिए दो आवश्यक शर्ते हैं। दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक स्थान पर एकत्रित होना तथा उनके बीच कार्यात्मक संबंध का होना। यदि दो व्यक्ति बाजार में साथ-साथ टहल रहे हो तो उसे समूह नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि, दोनों के बीच कार्यात्मक सम्बन्ध नहीं है। परन्तु, दोनों के बीच कार्यात्मक संगठन हो जाए तो उसे समूह की संज्ञा देंगे। लिण्डग्रेन (Lindgren) ने इसी अर्थ में समूह को परिभाषित करते हुए कहा है, “दो या दो से अधिक व्यक्तियों के किसी कार्यात्मक सम्बन्ध में व्यस्त होने पर समूह का निर्माण होता है।”
समूह का निर्माण (Formation of Group)-समूह संरचना के मुख्य घटक निम्नलिखित है –
(i) भूमिकाएँ (Roles) – सामाजिक रूप से परिभाषित अपेक्षाएँ होती हैं जिन्हें दी हुई स्थितियों में पूर्ण करने की अपेक्षा व्यक्तियों से की जाती है। भूमिकाएँ वैसे विशिष्ट व्यवहार को इंगित करती हैं जो व्यक्ति को एक दिये गये सामाजिक संदर्भ में चित्रित करती हैं। किसी विशिष्ट भूमिका में किसी व्यक्ति से अपेक्षित व्यवहार इन भूमिका प्रत्याशाओं में निहित होता है। एक पुत्री या पुत्री के रूप में आप से अपेक्षा या आशा की जाती है कि आप बड़ों का आदर करें, उनकी बातों को सुनें और अपने अध्ययन के प्रति जिम्मेदार रहें।
(ii) प्रतिमान या मानक (Norms) – समूह के सदस्यों द्वारा स्थापित, समर्थित एवं प्रवर्तित व्यवहार एवं विश्वास के अपेक्षित मानदंड होते हैं। इन्हें समूह के ‘अकथनीय नियम के रूप में माना जा सकता है। परिवार के भी मानक होते हैं जो परिवार के सदस्यों के व्यवहार का मार्गदर्शन करते हैं। इस मानकों का सांसारिक दृष्टिकोण के रूप में समझने या सहप्रतिनिधित्व के रूप में देखा जा सकता है।
(iii) हैसियत या प्रतिष्ठा (Status) – समूह के सदस्यों को अन्य सदस्यों द्वारा दी जाने वाली सापेक्ष स्थिति को बताती है। यह सापेक्ष स्थिति या प्रतिष्ठा या तो प्रदत्त या आरोपित (संभव है कि यह एक व्यक्ति की वरिष्ठता के कारण दिया जा सकता है) या फिर साधित या उपार्जित (व्यक्ति ने विशेषज्ञता या कठिन परिश्रम के कारण हैसियत या प्रतिष्ठा को अर्जित किया है) होती है। समूह के सदस्यता होने से हम इस समूह से जुड़ी हुई प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त करते हैं। इसलिए हम सभी ऐसे समूहों के सदस्य बनना चाहते हैं जो प्रतिष्ठा में उच्च स्थान रखते हों अथवा दूसरों द्वारा अनुकूल दृष्टि से देखे जाते हों। यहाँ तक कि किसी समूह के अंदर भी विभिन्न सदस्य भिन्न-भिन्न सम्मान एवं प्रतिष्ठा रखते हैं। उदाहरण के लिए, एक क्रिकेट टीम का कप्तान अन्य सदस्यों की अपेक्षा उच्च हैसियत या प्रतिष्ठा रखता है, जबकि सभी सदस्य टीम की सफलता के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं।
(iv) संसक्तता (cohesiveness) – समूह सदस्यों के बीच एकता, बद्धता एवं परस्पर आकर्षण को इंगित करती है। जैसे-जैसे समूह अधिक संसक्त होता है, समूह के सदस्य एक सामाजिक इकाई के रूप में विचार, अनुभव एवं कार्य करना प्रारंभ करते हैं और पृथक्कृत व्यक्तियों के समान कम। उच्च संसक्त समूह के सदस्यों में निम्न संसक्त सदस्यों की तुलना में समूह में बने रहने की तीव्र इच्छा होती है। संसक्तता दल-निष्ठा अथवा ‘वयं भावना’ अथवा समूह के प्रति आत्मीयता की भावना को प्रदर्शित करती है। एक संसक्त समूह को छोड़ना अथवा एक उच्च संसक्त समूह की सदस्यता प्राप्त करना कठिन होता है।
Q.33. समूह संघर्ष क्या है ? समूह संघर्ष के प्रमुख प्रकारों का वर्णन करें।
Ans ⇒ समूह संघर्ष के अन्तर्गत एक व्यक्ति या समूह या प्रत्यक्षण करते हैं कि अन्य व्यक्ति उनके विरोधी हितों को रखते हैं तथा दोनों पक्ष एक दूसरे का खण्डन करने का प्रयत्न करते रहते हैं। समूह संघर्ष लोग समूह मानकों का अनुसरण करते हैं जबकि ऐसा न करने पर वे एकमात्र दण्ड का सामना कर सकते हैं वह है समूह की अप्रसन्नता या समूह संघर्ष से भिन्न देखा जाना। लोग अनुरूपता को क्यों दर्शाते हैं जबतक वे यह भी जानते हैं कि मानक स्वयं में वांछनीय नहीं है।
अनरूपता के घटक (Component of Confirmity) –
(i) समह का आकार (Size of group) – जब समूह बड़े से तुलनात्मक छोटा होता है। अनुरूपता तब अधिक पाई जाती है। ऐसा क्यों होता है ? छोटे समूह में विसामान्य सदस्य (वह जो अनुरूपता को दर्शाता नहीं है) को पहचानना सरल होता है। किन्तु एक बड़े समूह में यदि ज्यादातर सदस्यों के मध्य प्रबल सहमति होती है तो यह बहुसंख्यक समूह को सशक्त बनाता है तथा इसलिए मानक भी मजबूत होते हैं। ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक सदस्यों के अनुरूप प्रदर्शन की संभावना अधिक होती है क्योंकि समूह का दबाव प्रबल होगा।
(ii) अल्पसंख्यक समह का आकार (Size of minor group) – मान लीजिए कि रेखाओं के विषय में निर्णय के कुछ प्रयत्नों के पश्चात् प्रयोज्य यह देखता है कि एक दूसरा सहभागी प्रयोज्य की अनुक्रिया से सहमति का प्रदर्शन करना आरम्भ कर देता है। क्या अब प्रयोज्य के अनुरूपता प्रदर्शन की संभावना अधिक है या ऐसा करने की संभावना कम है ? जब अल्पसंख्यकों में वृद्धि होती है तो अनुरूपता की संभावना कम होती है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि वास्तव में यह समूह में भिन्न मतधारियों या अनुपंथियों की संख्या में वृद्धि कर सकता है। इसे ऐश के प्रयोग द्वारा समझाया गया है।
(iii) कार्य की प्रकति (Nature of work) – ऐश के प्रयोग में प्रयुक्त कार्य में इस प्रकार के उत्तर की अपेक्षा की जाती है जिसका सत्यापन किया जा सकता है वह गलत भी हो सकता है तथा सही भी हो सकता है। माना कि प्रायोगिक कार्य में किसी विषय के बारे में विचार पर करना है। इस स्थिति में कोई उत्तर सही या गलत नहीं होता है। किस स्थिति में अनुरूपता के पार जाने की संभावना प्रबल है, प्रथम स्थिति जिसमें गलत अथवा सही उत्तर की तरह कोई चीज हो या दूसरी स्थिति जिसमें बिना किसी सही या गलत उत्तर के व्यापक रूप से उत्तर में परिवर्तन किया जा सके ? हो सकता है कि आपका अनुमान सही हो, दूसरी स्थिति में अनुरूपता के पाए जाने की संभावना कम है।
Q.34. प्राकृतिक महाविपदा के प्रभावों का वर्णन करें। उनके विध्वंसकारी प्रभावों को कम करने के तरीकों का वर्णन करें।
Ans ⇒ मानव भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी पर्यावरण पर अपना प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए, जिस घर में हम रहते हैं उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जाता है जिससे कि उस घर में मानव शरण ले सकें। मनुष्या द्वारा कुछ कार्य पर्यावरण को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। उदाहरण के लिए, मनुष्यों ने अपनी सुविधा के लिए कुछ उपकरणों का आविष्कार किया है जैसे-रेफ्रिजरेटर तथा वातानुकूलन यंत्र। किन्तु ये उपकरण एक प्रकार की रासायनिक गैस छोड़ते हैं जो वायु को प्रदूषित करती है जिस कारण मानव अन्य रोगों से ग्रसित हो सकते हैं। धूम्रपान के द्वारा एक विशेष व्यक्ति तो रोग से ग्रसित होता ही है साथ-साथ धूम्रपान के द्वारा आस-पास की वायु भी प्रदूषित होती है। प्लास्टिक एवं धातु से बनी वस्तुओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है। वृक्षों के काटने से जल चक्र में व्यावधान उत्पन्न हो सकता है।
अनेक उदाहरणों का यह संदेश है कि मनुष्य ने उन्हें प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर दर्शाने के लिए ही जनित किया है। मानव जीवन अपनी सुविधाओं के लिए टेक्नोलॉजी का उपयोग कर प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित कर रहा है जबकि वास्तविकता तो यह है कि वे संभवतः जीवन
की गुणवत्ता को और खराब बना रहे हैं।
शोर (Noise), प्रदूषण (Pollution), भीड़ (Crowding) तथा प्राकृतिक विपदाएँ (Natural disasters) ये सब पर्यावरणीय दबाव-कारकों के उदाहरण हैं। अपितु, इन विभिन्न दबाव-कारकों के प्रति मानव की प्रतिक्रियाएँ भिन्न हो सकती हैं।
Q.35. मनोदशा मनोविकृति से आप क्या समझते हैं ? मनोदशा मनोविकृति के प्रकारों के मुख्य लक्षणों का वर्णन करें।
Ans ⇒ मनोदशा मनोविकृति- इस विकार में व्यक्ति का संवेगात्मक अवस्था में रुकावट उत्पन्न हो हो जाती है। व्यक्ति में सबसे ज्यादा भावदशा विकार होता है। इसमें व्यक्ति के अंदर नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कभी-कभी व्यक्ति पर अवसाद (Depression) इस कदर हावी हो जाता है कि वह मृत्यु तक करने की सोच लेता है। यह एक प्रकार का विकार है जिसका सीधा प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ता है।
सामान्य तौर पर व्यक्ति इस अवसाद से तब ही ग्रस्त होता है जब उसके दिल पर कोई गहरी चोट लगी हो।
मुख्य भावदशा विकार में तीन प्रकार के विकार होते हैं।
(i) अवसादी विकार (Depressive disorder) – इस प्रकार के रोगियों में उदास होने, चिन्ता में डूबे रहने, शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं की कमी, अकर्मण्यता, अपराधी प्रवृत्ति आदि के लक्षण पाये जाते हैं।
(ii) उन्मादी विकार (Mania disorder) – उन्मादी विकार में रोगी हर समय खुश दिखाई देता है। वह हर समय संतुष्ट तथा चुस्त दिखाई पड़ता है। वह प्रायः नाचना, गाना, दौड़ना, बातचीत करना, बड़बड़ाना, चिल्लाना आदि हरकतें करना ज्यादा पसंद करता है।
(iii) द्विध्रुवीय भावात्मक विकार (Bipolor Affective Disorder) – मनोदशा विकारों को मनोव्याधिकीय श्रेणी में रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें उत्साह और अवसाद दोनों आक्षेप हों। एक बार उत्साह के आक्षेप के साथ-साथ अवसादी आक्षेप होता है। कुछ रोगियों में उत्साही (उन्मादी) आक्षेप एकदम से प्रकट हो जाते हैं तथा दो सप्ताह से छः माह तक रहते है। इसके मध्य भी व्यक्ति पूर्ण रूप से ठीक रहता है। अवसाद आक्षेप या तो इसके तुरंत बाद ही हो जाते हैं या कभी-कभी हो सकते हैं। अवसादी आक्षेपों में रोग के लक्षणों की गंभीरता कम या ज्यादा होती रहती है।
Q.36. सांवेगिक बुद्धि को परिभाषित करें। इसके प्रमुख तत्वों का वर्णन करें।
अथवा, संवेगात्मक बुद्धि से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न तत्त्वों का उल्लेख करें।
Ans ⇒ बुद्धि के क्षेत्र में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपना महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया और सिद्धान्तों की स्थापना की है। इस कड़ी में गोलमैन द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त संवेगात्मक बुद्धि भी है। यह एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है जिसकी रचना गोलमैन ने 1995 में की है। संवेगात्मक बुद्धि (Emotional Quotient) बुद्धि-लब्धि (Intelligence Quotient) दोनों में काफी भिन्नता है। संवेगात्मक बुद्धि को संवेगात्मक क्षेत्र में समायोजन कहा जा सकता है, जो जीवन में सफलता पाने में बहुत अधिक सहायक होता है। संवेगात्मक बुद्धि का संबंध वास्तव में व्यक्ति के कुछ ऐसे शीलगुणों से होता है जो संवेग की अवस्था में अभियोजन में सहायक होते हैं। इसके माध्यम से उसे अपने संवेगों की पहचान होती है तथा दूसरों के संवेगों को सही ढंग से समझते हुए सही ढंग से अभियोजन का प्रयास करता है। इसके माध्यम से वह लोगों के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ करता है।
संवेगात्मक बुद्धि (E. Q.) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सैलोवी तथा मायर (Salovey and Mayer) ने 1990 में किया था। उन्होंने इसके पाँच प्रमुख तत्त्वों की चर्चा की है, जिसका विवरण निम्नलिखित है –
1. अपने संवेगों को पहचानना
2. अपने संवेगों को प्रबंधन करना
3. अपने आप को अभिप्रेरित करना।
4. दूसरों के संवेगों की पहचान करना
5. अन्तर्वैयक्तिक संबंधों को संतुलित करना।
व्यक्ति को सामाजिक अभियोजन हेतु अपने संवेगों पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है। संवेगों का प्रबंध जितना अधिक संतुलित होगा सामाजिक अभियोजन भी उतना ही सफल होगा। वास्तव में जीवन में सफलता पाने हेतु संवेगों का प्रबंधन आवश्यक होता है। व्यक्ति के अंतर्गत कई प्रकार के शीलगुण निहित होते हैं। इन्हीं शीलगुणों का उपयोग करके संवेगात्मक परिस्थितियों में अभियोजन करता है। सैलोवी तथा मायर ने संवेगात्मक बुद्धि के जिन पाँच तत्त्वों की चर्चा की है उसी के आधार पर किसी की संवेगात्मक बुद्धि की पहचान होती है। हालांकि बाद में आशावादिता को भी संवेगात्मक बुद्धि का एक तत्त्व माना गया है।
संवेगात्मक बुद्धि के मापन की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण शोध हुए हैं और उसके आधार पर कई प्रकार के जाँच को प्रकाश में लाया है। इस दिशा में बार-आन के कनाडा के ट्रेन्ट विश्वविद्यालय में एक आविष्कारिका का निर्माण किया जिसे बार-आन संवेगात्मक लब्धि आविष्कारिका (Bar-on emotional quotient inventory) के नाम से जाना जाता है। यह आविष्कारिका बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुकी है। संवेगात्मक बुद्धि मापन की दिशा में भारत में भी शोध कार्य जारी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. ए. के. चड्ढा ने भी एक टेस्ट काम किया है, जिसे सांवेगिक बुद्धि परीक्षण के नाम से जानते हैं। भारतीय संदर्भ में उनका यही काफी लोकप्रिय है।
चूँकि यह एक नया सिद्धान्त है, इस दिशा में शोध कार्य जारी है फिर भी इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि व्यक्ति को सिर्फ बुद्धि-लब्धि (I.Q.) के आधार पर ही सफलता नहीं मिलती बल्कि इसके लिए संवेगात्मक बुद्धि भी आवश्यक है।
Q.37. सिगमंड फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना किस तरह से की है ? अथवा. फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना की व्याख्या कैसे की है ?
Ans ⇒ फ्रायड के सिद्धांत के अनसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं-इदम या इड, अहं और पराहम्। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है। इड, अहं और परामहम् संप्रत्यय है न कि वास्तविक भौतिक संरचनाएँ।
इड – यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सा सिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।
अहं – इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्रायः इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता कि दुकानदार से पूछे बिना यदि आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दंड का भागी हो सकता है वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग आवस्तविक और सुखेप्सा-सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।
पराहम् – पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम्, इड और अहं बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है। उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।
इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जाओं से निर्मित हुआ है। कुछ लोगों में इड पराहम् से अधिक प्रबल होता है तो कुछ अन्य लोगों में पराहम् इड से अधिक प्रबल होता है। इड, अहं और पराहम् की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को स्थिरता का निर्धारण करती है। फ्रायड के अनुसार इड की दो प्रकार की मूलप्रवृत्तिक शक्तियों से ऊर्जा प्राप्त होती है जिन्हें जीवन-प्रवृत्ति एवं मुमूर्षा या मृत्यु-प्रवृत्ति के नाम से जाना जाता है। उन्होंने मृत्यु-प्रवृत्ति (अथवा काम) को केंद्र में रखते हुए अधिक महत्त्व दिया है। मूलप्रवृत्तिक जीवन-शक्ति जो इड को ऊर्जा प्रदान करती है कामशक्ति लिबिडो कहलाती है। लिबिडो सुखेप्सा-सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है और तात्कालिक संतुष्टि चाहता है।
Q. 38. बुद्धि में आनुवंशिकता बनाम पर्यावरण विवाद का वर्णन करें।
Ans ⇒ आनुवंशिक एवं पर्यावरणीय दोनों ही प्रकार के प्रभाव होते हैं। अतः इस अध्ययन के अंतर्गत बुद्धि एवं संस्कृति के संदर्भ में चर्चा करेंगे। बुद्धि का अर्थ एवं, अवधारणा समझ लेने के पश्चात् यह समझना उचित होगा कि बुद्धि का संस्कृति से क्या तारतम्य है एवं बुद्धि व सांस्कृतिक पर्यावरण में दोनों की क्या भूमिकाएँ हैं ?
विकास की ओर अग्रसर होता है एवं आस-पास के पर्यावरण से संयोजन करता है। बुद्धि की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि वह पर्यावरण के अनुकूलन में सहायक होती है अर्थात् व्यक्ति जिस पर्यावरण में निवास करता है अथवा उससे भिन्न जिस पर्यावरण की ओर उन्मुख होता है तब बुद्धि ही उसको भिन्न पर्यावरण के अनुकूल बनाती है या यूँ कह सकते है कि व्यक्ति का सांस्कृतिक पर्यावरण बुद्धि के विकसित होने में एक संदर्भ प्रदान करता है।
उदाहरण के लिए वे समाज जिनमें तकनीकी विकास को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है, उनमें तर्कना एवं निर्णयन के आधार पर निजी उपलब्धियों का परिमार्जन होता है अर्थात् उसे बुद्धि समझा जाता है जबकि वे समाज जिनमें सामाजिक अन्तर्वैयक्तिक संबंधों का निर्माण करने वाले तत्वों का संयोजन होता है उनमें सामाजिक एवं सांवेगिक (Social and emotional) कौशलों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कृति के अनुरूप ही बुद्धि का अनुकूलन हो जाता है।
Q.39. स्वास्थ्य को परिभाषित करें। व्यक्ति की शारीरिक तंदुरुस्ती को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन करें।
Ans ⇒ “स्वास्थ्य एक ऐसी तंदुरूस्ती या कुशल क्षेत्र की अवस्था होती है जिसमें दैहिक,
तक, मनोसामाजिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक गुण होते हैं न कि सिर्फ रोग की अनुपस्थिति सांस्कृतिक, मनोसामाजिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक गुण होते हैं न कि सिर्फ रोग की अनुपस्थिति जाती है।” स्वास्थ्य में कई तरह के कारकों का एक समन्वय पाया जाता है तथा इसमें रोग की अनुपस्थिति होती है। जब व्यक्ति इस सभी कारकों से प्रभावित होते हुए अपने आपको एक संतलित अवस्था में बनाए रखने में सक्षम होता है, तो उसका स्वास्थ्य उत्तम कहलाता है। व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं –
(i) संज्ञान संबंधित कारक (Factors related to cognition) – व्यक्ति किस तरह से अपने विभिन्न शारीरिक लक्षणों जैसे सर्दी लगना, डायरिया होना, उल्टी होना, चेचक आदि के प्रति सोचता है या किस तरह का विश्वास रखता है, से उसकी शारीरिक तंदुरुस्ती काफी प्रभावित होता है। यदि व्यक्ति यह सोचता है कि वह ज्यादा दही खा लिया है, इसलिए उसे इन्फ्लुएंजा हो गया है, तो वह डॉक्टर के पास नहीं जायेगा। परंतु यदि वह यह सोचता है कि उस इन्फ्लुएंजा का कारण उसका फेफड़ा में संक्रमण का होना है, तो वह डॉक्टर की मदद लेने के लिये तैयार हो जायेगा। इस तरह से रोग के बारे में उसे क्या जानकारी है तथा यह विश्वास कि यह किस तरह से उत्पन्न होता है, से बहुत हद तक व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है।
(ii) व्यवहार से संबंधित कारक (Factors related to behaviour) – मनोवैज्ञानिकों द्वारा यह स्थापित किया जा चुका है कि व्यक्ति जिस तरह का व्यवहार करता है तथा जिस तरह की जीवनशैली को वह अपनाता है, उससे उसका स्वास्थ्य काफी हद तक प्रभावित होता है। जैसे-कुछ लोग दिन भर में 10 कप चाय पीना आवश्यक समझते हैं, कछ लोग 8-10 सिगरेट पीना अति आवश्यक समझते हैं, कुछ लोग स्वच्छंद होकर लैंगिक सहवास करते हैं कुछ लोग विशेष तरह का भोजन एवं प्रतिदिन दैनिक व्यायाम करते हैं, कुछ लोग प्रतिदिन मांसाहारी भोजन करना अधिक पसंद करते हैं, आदि-आदि। ऐसे व्यवहारों का कुछ खास-खास शारीरिक रोगों जैसे चक्रीय हृदय रोग, कैंसर, एच० आई० वी० (HIV) / एड्स (AIDS) आदि से सीधा संबंध होता है। जैसे-नियमित व्यायाम करने वाले व्यक्ति को चक्रीय हृदय रोग होने की संभावना कम होती है। मनोविज्ञान की एक नई शाखा जिसमें व्यवहारों में परिवर्तन लाकर रोगों से होने वाले दबावों को कम करने का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है, का विकास हुआ है। इस पर को व्यवहारपरक औषधि की संज्ञा दी गई है।
(iii) सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक (Social and cultural factors) – कुछ सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक भी होते हैं जिनसे व्यक्ति की दैहिक अनुक्रियाएँ प्रभावित होती हैं और फिर उनसे शारीरिक तंदुरुस्ती प्रभावित होती है। जैसे-भारतीय सांस्कृतिक में चेचक को किसी विशेष देवी माता का प्रकोप समझकर उस देवी माता की पूजा-अर्चना करके इस रोग का उपचार करने की कोशिश की जाती है। ऐसा सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्वास पश्चिमी देशों में नहीं पाया जाता है। फलतः इस रोग के प्रति इस ढंग की प्रतिक्रिया नहीं की जाती है। इन दोनों तरह की अनुक्रियाओं या प्रतिक्रियाओं से व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है। देवी माता का प्रकोप मानकर उपचार करने में व्यक्ति के स्वास्थ्य को कुप्रभावित होने की संभावना अधिक होती है। उसी तरह से भारतीय समाज में महिलाओं को दिया गया मेडिकल राय या अन्य महिलाओं द्वारा दिया गया मेडिकल सुझाव पर कार्य देर से प्रारम्भ किया जाता है जिसके पीछे यह विश्वास होता है कि वे लोग या तो इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं या फिर उनकी प्रकृति दु:ख दर्द सहने की ही होती है।
स्पष्ट हुआ कि कई ऐसे कारक है जिनके व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है।
Q.40. पूर्वाग्रह को नियंत्रित करने के लिए एक योजना का निर्माण करें।
Ans ⇒ पूर्वाग्रह नियंत्रण की युक्तियाँ तब अधिक प्रभावी होगी जब उनका प्रयास होगा –
(a) पूर्वाग्रहों के अधिगम के अवसरों को कम करना।
(b) ऐसी अभिवृत्तियों को परिवर्तित करना।
(c) अंतःसमूह पर आधारित संकुचित सामाजिक अनन्यता के महत्त्व को कम करना।
(d) पूर्वाग्रह के शिकार लोगों में स्वतः अधिक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना।
इन लक्ष्यों को निम्न प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है –
(i) शिक्षा एवं सूचना के प्रसार के द्वारा विशिष्ट लक्ष्य समूह से संबद्ध रूढ़ धारणाओं को संशोधित करना एवं प्रबल अंत:समूह अभिनति की समस्या से निपटना।
(ii) अंत:समूह संपर्क को बढ़ाना प्रत्यक्ष संप्रेषण, समूहों के मध्य अविश्वास को दूर करने तथा बाह्य समूह के सकारात्मक गुणों को खोज करने का अवसर प्रदान करना है। हालांकि ये युक्तियाँ तभी सफल होती हैं, जब दो समूह प्रतियोगी संदर्भ के स्थान पर एक सहयोग संदर्भ में मिलते हैं।
समूहों के मध्य घनिष्ठ अंत:क्रिया एक-दूसरे को समझने या जानने में सहायता करती है। दोनों समूह शक्ति या प्रतिष्ठा में भिन्न नहीं होते हैं।
(iii) समूह अनन्यता की जगह व्यक्तिगत अनन्यता को विशिष्ट प्रदान करना अर्थात् दूसरे व्यक्ति के मूल्यांकन के आधार के रूप में समूह (अंतः एवं बाह्य दोनों ही समूह) के महत्त्व को बलहीन करना।
Q.41. कार्ल रोजर्स की विचारधारा का वर्णन करें।
Ans ⇒ कार्ल रोजर्स की विचारधारा – (i) मानव व्यवहार लक्ष्य निर्देशित (Goal directed) एवं लाभप्रद (Worthwhile) होता है।
(ii) मानव जो जन्मजात ही नेक प्रकृति के होते हैं, हमेशा ही आत्म-सिद्ध (Self actualized) तथा अनुकूली (Adaptive) व्यवहार करते हैं।
कार्ल रोजर्स के अनुसार, व्यक्तित्व का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू आत्म (Self) का होता है जिसमें व्यक्ति को अपनी अनुभूतियों एवं अन्य मानसिक प्रक्रियाओं का ज्ञान होता है। आत्म-सम्मान का विकास शैशवावस्था में होता है जब शिशु की अनुभूतियों का एक अंश अधिक मूर्त (abstract) रूप प्राप्त करने लगता है और ‘मैं’ या ‘मुझको’ के रूप में धीरे-धीरे विशिष्ट होने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि शिशु धीरे-धीरे अपनी अस्मिता या पहचान से अवगत होने लगता है। फलतः उसमें अच्छे-बरे का ज्ञान होने लगता है।
आत्म-संप्रत्यय से तात्पर्य व्यक्ति के उन सभी पहलओं एवं अनभतियों से होता है कि जिनसे व्यक्ति अवगत होता है। आत्म-संप्रत्यय का निर्माण एक बार हो जाने से उसमें परिवर्तन नहीं होता है। आत्म-संप्रत्यय से संगत अनुभूतियों को व्यक्ति स्वीकार करता है और असंगत अनुभूतियों को वह अस्वीकार करता है।
रोजर्स का यह भी मत है कि प्रत्येक व्यक्ति का एक आदर्श आत्म भी होता है। मादर्श आत्म से तात्पर्य अपने बारे में विकसित की गई एक ऐसी छवि से होता है जिसे वह आदर्श मानता है। एक सामान्य व्यक्ति में वास्तविक आत्म तथा आदर्श आत्म में संगति होता है। इससे व्यक्ति में खुशी उत्पन्न होती है। परंतु जब व्यक्ति का वास्तविक आत्म तथा आदर्श आत्म म अंतर हो जाता है तो इससे असंतुष्टि तथा दुःख व्यक्ति में उत्पन्न होता है।
रोजर्स का यह मत है कि व्यक्ति आत्म-सिद्धि के माध्यम से अपने आत्म को अधिक से विकसित करने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति का आत्म विकसित होने के साथ-ही-साथ सामाजिक भी हो जाता है।
रोजर्स के अनुसार व्यक्तित्व विकास एक सतत् प्रक्रिया होता है। इस प्रक्रिया में पास द्वारा अपना किया गया आत्म-मूल्यांकन तथा आत्म-सिद्धि की प्रक्रिया में प्रवीणता विकसित करना सम्मिलित होता है। इन्होंने आत्म-संप्रत्यय के विकास में सामाजिक प्रभावों की भमिका को भी स्वीकार किया है। उनका मत है कि जब सामाजिक हालात धनात्मक या अनुकल होने हैं, तो व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान उच्च होता है। दूसरे तरफ, जब सामाजिक हालात प्रतिकूल होते हैं, व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान दोनों ही कम हो जाते हैं। जिन. व्यक्तियों का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान उच्च होता है, वे प्रायः खुले विचार के होते हैं जिनसे वे आत्म-सिद्धि की ओर तेजी से बढ़ते हैं।
रोजर्स के अनुसार व्यक्तित्व दो तरह की आवश्यकताओं द्वारा मूलतः प्रभावित होता है-स्वीकारात्मक श्रद्धा तथा आत्म-श्रद्धा। स्वीकारात्मक श्रद्धा से तात्पर्य दूसरों द्वारा स्वीकार किये जाने, दूसरों का स्नेह पाने एवं उनके द्वारा पसंद किये जाने की इच्छा से होती है। स्वीकारात्मक श्रद्धा की आवश्यकता दो तरह की होती है-शर्तपूर्ण स्वीकारात्मक श्रद्धा तथा शर्तरहित स्वीकारात्मक श्रद्धा। शर्तपूर्ण स्वीकारात्मक श्रद्धा में दूसरों का स्नेह, प्यार एवं अनुराग प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा निश्चित किये गए मानदंडों के अनुरूप व्यक्ति को व्यवहार करना पड़ता है। रोजर्स ने इस तरह की श्रद्धा को व्यक्तित्व विकास के लिये उपयुक्त नहीं माना है। शर्तहीन स्वीकारात्मक श्रद्धा में दूसरों का स्नेह, प्यार एवं मान-सम्मान पाने के लिये कोई शर्त नहीं रखा जाता है। माता-पिता द्वारा बच्चों को दिया गया स्नेह एवं मान-सम्मान इसी श्रेणी का श्रद्धा होता है। ऐसे व्यक्ति अपनी क्षमताओं एवं प्रतिभाओं को सर्वोत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त करने का पूरा-पूरा प्रयास करते हैं।
Q.42. आक्रामकता क्या है ? आक्रामकता के कारणों का वर्णन करें।
Ans ⇒ आक्रामकता आधुनिक समाज की प्रमुख समस्या है। मनोवैज्ञानिकों के अनसार आक्रामकता एक ऐसा व्यवहार होता है जो दूसरों को शारीरिक रूप से या शाब्दिक रूप से हानि पहुँचाने के आशय से किया जाता है। ऐसी अभिव्यक्ति व्यक्ति अपने वास्तविक व्यवहार के माध्यम से अथवा फिर कटु वचनों या आलोचनाओं के माध्यम से करता है। इसकी अभिव्यक्ति दूसरों के प्रति शत्रुतापूर्ण भावनाओं द्वारा भी की जाती है। आक्रामकता के निम्नलिखित कारण हैं
(i) सहज प्रवृत्ति – आक्रामकता मानव में (जैसा कि यह पशुओं में होता है) सहज (अंतर्जात) होती है। जैविक रूप से यह सहज प्रवृत्ति आत्मरक्षा हेतु हो सकती है।
(ii) शरीर क्रियात्मक तंत्र – शरीर-क्रियात्मक तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से आक्रामकता जनिक कर सकते हैं, विशेष रूप से मस्तिष्क के कुछ ऐसे भागों को सक्रिय करके जिनकी संवेगात्मक अनुभव में भूमिका होती हैं, शरीर-क्रियात्मक भाव प्रबोधन की एक सामान्य स्थिति या सक्रियण की भावना प्रायः आक्रमण के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। भाव प्रबोधन के कई कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भीड़ के कारण भी आक्रमण हो सकता है, विशेष रूप से गर्म तथा आर्द्र मौसम में।
(iii) बाल-पोषण – किसी बच्चे का पालन किस तरह से किया जाता है वह प्रायः उसी आक्रामकता को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, वे बच्चे जिनके माता-पिता शारीरिक दंड का उपयोग । हैं, उन बच्चों की अपेक्षा जिनके माता-पिता अन्य अनुशासनिक, तकनीकों का उपयोग करते हैं, आप आक्रामक बन जाते हैं। ऐसा संभवतः इसलिए होता है कि माता-पिता ने आक्रामक व्यवहार का एक आदर्श उपस्थित किया है, जिसका बच्चा अनुकरण करता है। यह इसलिए भी हो सकता है कि शारीरिक दंड बच्चे को क्रोधित तथा अप्रसन्न बना दे और फिर बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है वह इस क्रोध को आक्रामक व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त करता है।
(iv) कंठा – आक्रामण कुंठा की अभिव्यक्ति तथा परिणाम हो सकते हैं, अर्थात् वह संवेगात्मक स्थिति जो तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति को किसी लक्ष्य तक पहुँचने में बाधित किया जाता है अथवा किसी ऐसी वस्तु जिसे वह पाना चाहता है, उसको प्राप्त करने से उसे रोका जाता है। व्यक्ति किसी लक्ष्य के बहुत निकट होते हुए भी उसे प्राप्त करने से वंचित रह सकता है। यह पाया गया है कि कुंठित स्थितियों में जो व्यक्ति होते हैं, वे आक्रामक व्यवहार उन लोगों की अपेक्षा अधिक प्रदर्शित करते हैं जो कुंठित नहीं होते। कुंठा के प्रभाव की जाँच करने के लिए किए गए एक प्रयोग में बच्चों को कुछ आकर्षक खिलौनों, जिन्हें वे पारदर्शी पर्दे (स्क्रीन) के पीछे से देख सकते थे, को लेने से रोका गया। इसके परिणामस्वरूप ये बच्चे, उन बच्चों की अपेक्षा, जिन्हें खिलौने उपलब्ध थे, खेल में अधिक विध्वंसक या विनाशकारी पाए गए।
Q.43. प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताओं का वर्णन करें।
Ans ⇒ प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताएँ (Characteristics of Gifted Children) – प्रतिभाशाली बालकों की कुछ ऐसी विशेषताएँ होते हैं, जिससे कि उसे सामान्य बच्चों से अलग किया जा सकता है –
(i) मानसिक गुण – मानसिक गुण प्रतिभाशाली बालकों की सबसे प्रमुख विशेषता है। इनमें सामान्य बालकों की उपेक्षा अधिक मानसिक योग्यता होती है। अनेक अध्ययनों के आधार पर देखा गया है कि प्रतिभाशाली बालकों का 1.Q. 140 या इससे अधिक होता है।
(ii) चिन्तन – प्रतिभाशाली बालक सामान्य बच्चों की अपेक्षा अधिक अमूर्त चिन्तन करते हैं। ये बच्चे सूक्ष्ममातिसूक्ष्म विषयों पर विचार कर सकते हैं तथा कठिन समस्याओं को समझने तथा उनका हल करने में अधिक कुशाग्र होते हैं।
(iii) शारीरिक गुण – सामान्य बालकों की तुलना में प्रतिभाशाली बच्चे अधिक लम्बे तथा भारी बदन के होते हैं। ये जन्म के समय सामान्य बच्चों की अपेक्षा एक पौण्ड भारी तथा डेढ़ इंच लम्बे होते हैं।
(iv) सीखने की योग्यता – प्रतिभाशाली बालकों में सीखने की योग्यता सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक होती है। अन्य बच्चों की अपेक्षा इनका भाषा विकास तीन माह पहले हो जाता है। फलतः इनका शब्दभण्डार बड़ा होता है। स्कूल जाने के पहले ही ये कुछ शब्दों को पढ़ना-लिखना सीख लेते हैं। ये कम समय में ही पाठ्य-पुस्तक विषयों को याद कर लेते हैं।
(v) रूचि – प्रतिभाशाली बालकों की रूचि किसी एक ओर अधिक समय तक नहीं रहती है। वातावरण की सभी वस्तुओं का ज्ञान ये प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए उनका ध्यान बराबर विचलित होते रहते हैं।
(vi) सामाजिक गुण – जो बालक प्रतिभाशाली होते हैं वे सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक सामाजिक होते हैं। ऐसे बालक खेलों में भी ज्यादा अभिरूचि लेते हैं। ऐसे बच्चों में नेतृत्व का गुण अधिक होता है।
(vii) उच्च वंश – परम्परा-प्रायः प्रतिभाशाली बालक उच्च वंश के होते हैं। इनके माता-पिता अधिक बुद्धिमान एवं शिक्षित होते हैं। या तो वे अच्छे पद पर होते हैं या बड़े व्यवसाय से सम्बन्धित होते हैं। परन्तु यह बात पूरी तरह से सही नहीं है, क्योंकि अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो गरीब परिवार के होते हुए भी प्रतिभाशाली हुए हैं।
(viii) समझने की क्षमता – प्रतिभाशाली बालक निर्देशन कम होने पर भी अधिक समय लेते हैं और अपनी समझ-बूझ एवं पूर्व अनुभवों का लाभ उठाते हैं। अध्यापक को विषय समझाने में विशेष कठिनाई नहीं होती है।
(ix) ध्यान – प्रतिभाशाली बालकों का ध्यान विस्तार सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक होता है। ऐसे बच्चे किसी विषय में अपने ध्यान को अधिक समय तक केन्द्रित करने में समर्थ होते हैं। इनका ध्यान कम भंग होता है।
(x) अन्य शीलगुण – प्रतिभाशाली बालक प्रायः ईमानदार, दयालु एवं परोपकारी होते हैं। परन्तु, इसके लिए उन्हें उचित निर्देशन मिलना आवश्यक है।
Q.44. आक्रमण एवं हिंसा के कारण या निर्धारकों का वर्णन करें।
Ans ⇒ असामान्य मनोविज्ञान के अंतर्गत मनुष्य के असामान्य व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। इसमें आक्रमण एवं हिंसा की अवधारणा पर भी विचार किया जाता है। जब किसी लक्ष्य या वस्तु को प्राप्त करने के लिए हिंसा को अपनाया जाता है तो उसे आक्रमण कहा जताा ह। आक्रमण के निम्नलिखित कारण हैं-
(i). सहज प्रवृत्ति – आक्रामकता मानव में (जैसा कि यह पशुओं में होता है) सहज (अंतर्जात) होती है। जैविक रूप से यह सहज प्रवृत्ति आत्मरक्षा हेतु हो सकती है।
(i). शरीर क्रियात्मक तंत्र – शरीर-क्रियात्मक तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से आक्रामकता जनिक कर सकते हैं, विशेष रूप से मस्तिष्क के कुछ ऐसे भागों को सक्रिय करके जिनकी संवेगात्मक अनुभव में भूमिका होती हैं, शरीर-क्रियात्मक भाव प्रबोधन की एक सामान्य स्थिति या सक्रियण की भावना प्रायः आक्रमण के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। भाव प्रबोधन के कई कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भीड के कारण भी आक्रमण हो सकता है, विशेष रूप से गर्म तथा आई मौसम में।
(iii) बाल-पोषण – किसी बच्चे का पालन किस तरह से किया जाता है वह प्रायः उसी आक्रामकता को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, वे बच्चे जिनके माता-पिता शारीरिक दंड का उपयोग करते हैं, उन बच्चों की अपेक्षा जिनके माता-पिता अन्य अनुशासनिक, तकनीकों का उपयोग करते हैं, अधिक आक्रामक बन जाते हैं। ऐसा संभवतः इसलिए होता है कि माता-पिता ने आक्रामक व्यवहार का एक आदर्श उपस्थित किया है, जिसका बच्चा अनुकरण करता है। यह इसलिए भी हो सकता है कि शारीरिक दंड बच्चे को क्रोधित तथा अप्रसन्न बना दे और फिर बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है वह इस क्रोध को आक्रामक व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त करता है।
(iv) कंठा – आक्रामण कुंठा की अभिव्यक्ति तथा परिणाम हो सकते हैं, अर्थात् वह संवेगात्मक स्थिति जो तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति को किसी लक्ष्य तक पहुँचने में बाधित किया जाता है अथवा किसी ऐसी वस्तु जिसे वह पाना चाहता है, उसको प्राप्त करने से उसे रोका जाता है। व्यक्ति किसी लक्ष्य के बहुत निकट होते हुए भी उसे प्राप्त करने से वंचित रह सकता है। यह पाया गया है कि कुंठित स्थितियों में जो व्यक्ति होते हैं, वे आक्रामक व्यवहार उन लोगों की अपेक्षा अधिक प्रदर्शित करते हैं जो कुठित नहीं होते। कुंठा के प्रभाव की जाँच करने के लिए किए गए एक प्रयोग में बच्चों को कछ आकर्षक खिलौनों जिन्हें वे पारदर्शी पर्दे (स्क्रीन) के पीछे से देख सकते थे, को लेने से रोका गया। इसके परिणामस्वरूप ये बच्चे, उन बच्चों की अपेक्षा, जिन्हें खिलौने उपलब्ध थे, खेल में अधिक विध्वंसक या विनाशकारी पाए गए।