Political Science

Class 12th Political Science ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 5


Q.41. अपने राज्य के उच्च न्यायालय के संगठन तथा अधिकार क्षेत्र का वर्णन करें। इस न्यायालय की स्वतंत्रता किस प्रकार संरक्षित की गई है ?

Ans ⇒  उच्च न्यायालय हमारे राज्य का मुख्य न्यायालय है। यह राज्य के न्यायिक संगठन की चोटी पर अवस्थित है। संविधान में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक राज्य में एक उच्च न्यायालय होगा। संसद अपने कानून द्वारा दो या दो से अधिक राज्यों या केन्द्र शासित क्षेत्र के लिए संयुक्त उच्च न्यायालय की स्थापना कर सकती है तथा उच्च न्यायालयों की स्थापना या इससे सम्बन्धित व्यवस्था में परिवर्तन का अधिकार संसद को प्राप्त है।

नियुक्ति – उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा सम्बद्ध राज्य के राज्यपाल के परामर्श से करता है तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में उस राज्य के मुख्य न्यायाधीशों से परामर्श लेना होता है। स्थायी न्यायाधीशों के अलावा राष्ट्रपति उच्च न्यायालय में अस्थायी तथा अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करसकता है लेकिन अतिरिक्त न्यायाधीश पद पर केवल 62 वर्ष की उम्र तक ही बने रह सकते है। मुख्य न्यायाधीश को 2,50,000 हजार और अन्य न्यायाधीश को 2,25,000 मासिक वेतन एवं अन्यान्य भत्ते मिलते है।

उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार- उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकारों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत विभाजित कर अध्ययन किया जा सकता है –

1. प्रारंभिक क्षेत्राधिकार – भारत के सभी उचच न्यायालयों को अब प्रारंभिक अधिकार प्राप्त हो गये हैं। संविधान लागू होने के पहले यह अधिकार केवल कलकत्ता, बम्बई और मद्रास – के उच्च न्यायालयों को ही प्राप्त था। अन्य उच्च न्यायालयों को केवल अपीलीय अधिकार था, प्रारंभिक अधिकार था। परन्तु अब एक निश्चित राशि अर्थात् 2000 रुपये की रकम की मुकदमें सीधे उच्च न्यायालय में भी पेश किये जा सकते हैं। इसके अलावे नौकाधिकारण, वसीयत, विवाह विच्छेद, विवाह विधि, कम्पनी कानून तथा न्यायालय के अपमान आदि से सम्बद्ध मामले भी अब सीधे उच्च न्यायालय में पेश किये जाते हैं। राजस्व तथा उससे सम्बद्ध विषय भी अब उच्च न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार में आ गये हैं। इसके साथ ही यदि उच्च न्यायालय को यह समझ में आय कि कोई विधि संविधान के विपरीत है तो उसे अवैध घोषित कर सकता है।

2. अपीलीय अधिकार- भारत के सभी उच्च न्यायालय को दिवानी और फौजदारी दोनों मामलों में अपीलीय अधिकार प्राप्त है। जहाँ तक दिवानी मामलों का प्रश्न है कोई भी दिवानी मुकदमा जो रुपये मूल्य का हो उच्च न्यायालय में अपील हेतु लाया जा सकता है इसके अलावा कोई न्यायालय निम्न न्यायालय में विरुद्ध किसी अपील पर निर्णय देता है तो उस न्यायालय के विरुद्ध भी उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। भारत में अभी 25 उच्च न्यायालय कार्यरत है, जबकि राज्यों की संख्या 28 और केन्द्रशासित राज्यों की संख्या 8 है।


Q.42. 1975 के आपातकालीन घोषणा और क्रियान्वयन के देश के राजनैतिक, माहौल, प्रेस, नागरिक अधिकारों, न्यायपालिका के निर्णयों और संविधान पर क्या प्रभाव पड़े अथवा उनके इन क्षेत्रों में क्या परिणाम हए?

Ans ⇒  (i) राजनैतिक फिजा (माहौल/वातावरण) पर प्रभाव – इंदिरा सरकार के इस फैसले से विरोध आंदोलन एक बारगी रुक गया। हड़तालों पर रोक लगा दी गई। अनेक विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। राजनीतिक माहौल में तनाव भरा एक गहरा सन्नाटा छा गया।

(ii) प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रभाव – आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेनी जरूरी है। इसे प्रेस सैंसरशिप के नाम से जाना जाता है।

(iii) आर एम. एस. एवं जमात-ए-इस्लामी पर प्रभाव – सामाजिक और साम्प्रदायिक गड़बड़ी की आशंका के मद्देनजर सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया। धरना, प्रदर्शन और हड़ताल की भी अनुमति नहीं थी। दोनों संगठनों के हजारों निष्ठावान सक्रिय कार्यकर्ताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया गया।

(iv) मौलिक अधिकारों पर प्रभाव – सबसे बड़ी बात यह हुई कि आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत नागरिकों के विभिन्न मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। उनके पास अब यह अधिकार भी नहीं रहा कि भौतिक अधिकारों की बहाली के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाए। सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराध कर सकते हैं।

(v) संवैधानिक उपचारों का अधिकार एवं न्यायालय द्वारा सरकार विरोधी घोषणाएं – सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नजरबंदी अधिनियमों का प्रयोग करके बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ की। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। वे बंदी प्रत्यक्षीकरण’ याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे। गिरफ्तार लोगों अथवा उनके पक्ष से किन्हीं और ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दायर किए, लेकिन सरकार का कहना था कि गिरफ्तार लोगों को गिरफ्तारी का कारण बताना कतई जरूरी नहीं है। अनेक उच्च न्यायालयों ने फैसला दिया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो। 1976 के अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिक से जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बंद हो गए। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों में एक माना गया।

(vi) राजनीतिक कार्यकर्ताओं, कुछ समाचार-पत्र पत्रिकाओं तथा अत्यधिक सम्मानित लेखकों पर प्रभाव एवं उनके निर्णय  – (क) आपातकाल की मुखलाफत और प्रतिरोध की कई घटनाएँ घटीं। पहली लहर में जो राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ्तारी से बच गए थे वे ‘भूमिगत’ हो गए और सरकार के खिलाफ मुहिम चलायी।
(ख) ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘स्टेट्समैन’ जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध किया। जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था उनकी जगह वे अखबार खाली छोड़ देते थे। ‘सेमिनार’ और ‘मेनस्ट्रीम’ जैसी पत्रिकाओं में सेंसरशिप के आगे घुटने टेकने की जगह बंद होना मुनासिब समझा। सेंसरशिप को धत्ता बताते हुए गुपचुप तरीके से अनेक न्यूजलेटर और लीफलेट्स निकले।

(ग) पद्मभूषण से सम्मानित कन्नड़ लेखक शिवराम कारंट और पदमश्री से सम्मानित हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने लोकतंत्र के दमन के विरोध में अपनी-अपनी पदवी लौटा दी। बहरहाल मुख्यालय और प्रतिरोध के इतने प्रकट कदम कुछ ही लोगों ने उठाए।

(vii) संसद के समक्ष चुनौतियाँ संविधान में 42वां संशोधन एवं उसके प्रभावशाली प्रभाव – (क) संसद ने संविधान के सामने कई नई चुनौतियाँ खड़ी की। इंदिरा गाँधी के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में संविधान में संशोधन हुआ। इस संशोधन के द्वारा प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। आपातकाल के दौरान ही संविधान के 42वाँ संशोधन पारित हुआ।

(ख) 42वें संशोधन के जरिए संविधान के अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए। 42 वें संशोधन के जरिए हुए अनेक बदलावों में एक था – देश की विधायिका के कार्यकाल को 5 से बढ़ाकर 6 साल कर दिया गया था।


Q.43. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए : (क) भारत की परमाणु नीति । (ख) विदेश नीति के मामलों में सर्व-सहमति 

Ans ⇒  (क) भारत की परमाणु नीति – भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू भारत की विदेश नीति के निर्माता थे। वे विश्व शांति में सबसे बड़े समर्थक थे अतः उन्होंने परमाणु ऊर्जा के लड़ाई व युद्ध में प्रयोग करने के किसी भी स्तर पर प्रयास करने का विरोध किया। भारत की विदेश नीति में भी उन्होंने यह निश्चित किया कि भारत परमाणु ऊर्जा का प्रयोग केवल विकास कार्यों व शांति के लिए ही करेगा। भारत की परमाणु ऊर्जा के संस्थापक डॉ. भाभा थे जिन्होंने पंडित नेहरू के निर्देश पर परमाणु ऊर्जा का शांति के प्रयोग करने के लिए अनेक अनुसन्धान किए। भारत ने 1974 में प्रथम परमाणु परीक्षण किया जिसके फलस्वरूप दुनिया के अनेक देशों ने भारत के खिलाफ प्रतिकूल प्रतिक्रिया की।
भारत सदैव परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण क्षेत्र में प्रयोग का ही समर्थक रहा व विश्व के देशों पर परमाणु विस्फोट रोकने के लिए एक व्यापक संधि के लिए जोर डाला। भारत ने परमाणु प्रसार के ‘लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए की गई सन्धियों का विरोध किया क्योंकि ये संधियाँ पक्षपातपूर्ण थी। इसी कारण से भारत ने 1995 में बनी (सी० टी० बी० टी०) व्यापक परमाणु निरीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किये। 1998 में भारत में फिर परमाणु विस्फोट किये। अब परमाणु ऊर्जा के सम्बन्ध में भारत की नीति यह है कि भारत परमाणु ऊर्जा का प्रयोग शान्ति के लिए करेगा लेकिन आत्म रक्षा के लिए परमाणु क्षमता बनाने का अपना विकल्प खुला रहेगा।

(ख) विदेश नीति के मामले पर सर्वसहमति – भारत की विदेश नीति की यह विशेषता रही है कि भारतीय विदेश नीति के निश्चित मूल तत्व रहे हैं सरकार व विरोधी दलों व अन्य जनमत निर्माण करने वाले वर्गों के बीच इन तत्वों पर आमतौर से सहमति रही है अगर इन तत्वों में किसी प्रकार का परिवर्तन करने की जरूरत पड़ी तो उस पर भी आम राय अर्थात् आम सहमति बनी। जैसे परमाणु शक्ति के प्रयोग के सम्बन्ध में व परमाणु परीक्षण करने के सम्बन्ध में आम सहमति रही। पंचशील गुट निरपेक्षता, पड़ोसियों के साथ सम्बन्ध व बड़ी शक्तियों के साथ सम्बन्धों पर आमतौर से सर्व सहमति रही है।


Q.44. भारत की विदेश नीति का निर्माण और शांति और सहयोग के सिद्धांतों को आधार मानकर हुआ। लेकिन, 1962-1972 की अवधि यानी महज दस सालों में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा, क्या आपको लगता है कि यह भारत की विदेश नीति की असफलता है अथवा आप इसे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम मानेंगे ? अपने मंतव्य के पक्ष में तर्क दीजिए।

Ans ⇒  1. भारत की विदेश नीति देश के निर्माण, शांति और सहयोग आधार पर टिकी हुई है। लेकिन यह भी सत्य है कि 1962 में चीन ने ‘चीनी-हिन्दुस्तानी भाई-भाई’ का नारा दिया और पंचशील पर हस्ताक्षर किए लेकिन भारत पर 1962 में आक्रमण करके पहला युद्ध थोप दिया।
नि:संदेह यह भारत की विदेश नीति की असफलता थी। इसका कारण यह था कि हमारे देश के कुछ नेता अपनी छवि के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति के दूत कहलवाना चाहते थे। यदि उन्होंने कूटनीति से काम लेकर दूरदर्शिता दिखाई होती तो कम-से-कम चीनी के विरुद्ध किसी ऐसी बड़ी शक्ति से गुप्त समझौता किया होता जिसके पास परमाणु हथियार होते या संकट की घड़ी में वह चीन द्वारा उस समय दिखाई जा रही दादागिरी का उचित जवाब देने में हमारी सहायता करती।

2. 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया लेकिन उस समय लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में भारतीय सरकार की नीति असफल नहीं हुई और उस महान नेता का ‘जय जवान, जय किसान’ की आंतरिक नीति के साथ-साथ भारत की विदेश नीति की धाक भी जमी।

3. 1971 में बांग्लादेश के मामले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने एक सफल कूटनीतिज्ञ के रूप में बांग्लादेश का समर्थन किया और एक शत्रु देश की कमर स्थायी रूप से तोड़कर यह सिद्ध किया कि युद्ध में सब जायज है, हम बड़े भाई हैं पाकिस्तान के, ऐसे आदर्शवादी नारों का व्यावहारिकता में कोई स्थान नहीं है। ।

4. हम तीन अवसरों के तीन नियम मूल्यांकन आपके समक्ष प्रस्तुत कर चुके हैं। राजनीति में कोई स्थायी दोस्त नहीं होता। विदेशी संबंध राष्ट्रहितों पर टिके होते हैं। हर समय आदर्शों का ढिंढोरा पीटने से काम नहीं चलता। हम परमाणु शक्ति सम्पन्न हैं, यू० एन० ए० स्थायी स्थान प्राप्त करेंगे और राष्ट्र की एकता, अखंडता, भू-भाग, आत्मसम्मान, यहाँ के लोगों के जानमाल की प्रतिरक्षा करेंगे, केवल मात्र हमारा यही मंतव्य है और हम सदा ही इसके पक्ष में निर्णय लेंगे, काम करेंगे। आज की परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि हमें बराबरी से हर मंच, हर स्थान पर बात करनी चाहिए लेकिन यथासम्भव अंतर्राष्ट्रीय शांति, सुरक्षा सहयोग, प्रेम, भाईचारे को बनाए रखने का प्रयास भी करना चाहिए।


Q.45. क्या भारत की विदेश नीति से यह झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है ? 1971 के बांग्लादेश युद्ध के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें।

Ans ⇒  भारत की विदेश नीति से यह बिल्कुल नहीं झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है। 1971 का बांग्लादेश इस बात को बिल्कुल साबित नहीं करता। बांग्लादेश के निर्माण के लिए स्वयं पाकिस्तान की पूर्वी पाकिस्तान के प्रति उपेक्षापूर्ण नीतियाँ, बंगालियों की अपनी भाषा, संस्कृति के प्रति अटूट प्यार और उसे यह पूर्ण यकीन था कि भारत एक शांतिप्रिय देश है। वह शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीतियों में विश्वास करता आया है, कर रहा है और भविष्य में भी करेगा।
भारत ने आज तक बांग्लादेश पर न आक्रमण किया और न वह सोच रहा है। बांग्लादेश के साथ मामूली मामलों को छोड़कर भारत के साथ अच्छे संबंध हैं।
चीन भी यह मानता है कि भारत अब 1962 का भारत नहीं है। पाकिस्तान मानता है कि भारत एक बड़ी शक्ति बनता जा रहा है। उसका कारण है यहाँ के प्राकृतिक संसाधन, शांतिपूर्ण पंचशील, निशस्त्रीकरण, गुटनिरपेक्षता आदि सिद्धांतों पर टिकी उसकी विदेश नीति। भारत तो महावीर स्वामी ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत पर यकीन करता है लेकिन वह कायरों का नहीं बल्कि वह वीरों और वीरांगनाओं का देश है जिसकी गवाही न केवल स्वामी राजस्थानियों का, मराठों का बल्कि स्वतंत्र भारत का 1857 से लेकर आज 2020 तक इतिहास गवाही दे रहा है।


Q.46. किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह राष्ट्र की विदेश नीति पर असर डालता है ? भारत की विदेश नीति के उदाहरण देते हुए इस प्रश्न पर विचार कीजिए।

Ans ⇒  हर देश का राजनैतिक नेतृत्व उस राष्ट्र की विदेश नीति पर प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए नेहरूजी के सरकार के काल में गट निरपेक्षता की नीति बड़ी जोर-शोर में चली
लेकीन शास्त्राजी ने पाकिस्तान को ईंट का जवाब पत्थर से देकर यह साबित कर दिया कि भारत की तीनों तरह की सेनाएँ हर दश्मन को जवाब देने की ताकत रखती है। उन्होंने स्वाभिमान स जाना सिखाया। ताशकंद समझौता किया लेकिन गुटनिरपेक्षता की नीति को नेहरू जी के समान जारी रखा।
कहने को श्रीमती इंदिरा गाँधी नेहरूजी की पुत्री थीं लेकिन भावनात्मक रूप से वह रूस से अधिक प्रभावित थीं। उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। भूतपूर्व देशी नरेशों के प्रिवीपर्स पर्स समाप्त किए, ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया और रूस से दीर्घ अनाक्रमांक संधि की।
राजीव गाँधी के काल में चीन पाकिस्तान सहित अनेक देशों से संबंध सुधारे गए तो श्रीलंका के उन देशद्रोहियों को दबाने में वहाँ की सरकार को सहायता देकर यह बता दिया कि भारत छोटे-बड़े देशों की अखंडता का सम्मान करता है।
कहने को एन० डी० ए० या बी० जे० पी० की सरकार कुछ ऐसे तत्वों से प्रभावित थी जो साम्प्रदायिक अक्षेप से बदनाम किए जाते हैं लेकिन उन्होंने भारत को चीन, रूस, अमेरिका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस आदि सभी देशों से विभिन्न क्षेत्रों से समझौते करके बस, रेल, वायुयान, उदारीकरण उन्मुक्त व्यापार, वैश्वीकरण और आतंकवादी विरोधी नीति को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पड़ोसी देशों में उठाकर यह साबित कर दिया कि भारत की विदेश नीति केवल देश हित में होगी, उस पर धार्मिक या किसी राजनैतिक विचारधारा का वर्चस्व नहीं होगा।
अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति, नेहरूजी की विदेश नीति से जुदा न होकर लोगों को अधिक प्यारी लगी क्योंकि देश में परमाणु शक्ति का विस्तार हुआ, जय जवान के साथ आपने दिया नारा ‘जय जवान जय किसान और जय विज्ञान’।


Q.47. यूरोपीय संघ की सैनिक ताकत का मूल्यांकन कीजिए।

Ans ⇒  यूरोपीय संघ की सैनिक ताकत का मूल्यांकन-
(i) सैनिक ताकत के हिसाब से यूरोप संघ विश्व की सबसे बड़ी सेना है।
(ii) इसका कुल रक्षा बजट अमेरिका के बाद सबसे अधिक है।
(iii) यूरोपीय संघ के दो देशों-ब्रिटेन और फ्रांस के पास परमाणु हथियार हैं और अनुमान है कि इनके जखीरे में लगभग 550 परमाणु हथियार हैं।
(iv) अंतरिक्ष विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के मामले में भी यूरोपीय संघ का विश्व में दूसरा स्थान है।


Q.48. यूरोपीय संघ के सदस्य राष्ट्रों में किन बातों को लेकर मतभेद है ?

Ans ⇒  यूरोपीय संघ के सदस्य राष्ट्रों में मतभेद-
(i) अधिराष्ट्रीय संगठन के तौर पर यूरोपीय संघ आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक मामलों में दखल देने में सक्षम है। परंतु अनेक मामलों में इसके सदस्य देशों की अपनी विदेश और रक्षा नीति है जो कई बार एक-दूसरे के खिलाफ होती है।

(ii) इराक पर अमेरिकी हमले में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर तो उसके साथ थे लेकिन जर्मनी और फ्रांस इसके खिलाफ थे।

(iii) यूरोपीय संघ के कई नए सदस्य देश भी अमेरिकी गठबंधन में थे।

(iv) यूरोप के कुछ भागों में यूरो को लागू करने के कार्यक्रम को लेकर काफी नाराजगी है। यही कारण है कि ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने ब्रिटेन को यूरोपीय बाजार से अलग रखा।

(v) डेनमार्क और स्वीडन ने मास्ट्रिस्ट संधि और साझी यूरोपीय मुद्रा यूरो को मानने का प्रतिरोध किया। इससे विदेशी और रक्षा मामलों में काम करने की यूरोपीय संघ की क्षमता सीमित होती है।


Q. 49. आसियान की स्थापना कैसे हुई ? इसके क्या उद्देश्य थे ?

Ans ⇒  आसियान की स्थापना और इसके उद्देश्य-

(i) 1967 ई० में दक्षिण पूर्व एशिया के पाँच देशों-इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपींस, सिंगापुर और थाइलैंड ने बैंकॉक घोषणा पर हस्ताक्षर करके आसियान की स्थापना की।

(ii) इसका मुख्य उद्देश्य आर्थिक विकास को तेज करना और उसके माध्यम से सामाजिक और सांस्कृतिक विकास करना था।

(iii) कानून के शासन और संयुक्त राष्ट्र के नियमों पर आधारित क्षेत्रीय शांति और स्थायित्व को बढ़ावा देना भी इसका अन्य उद्देश्य था।

(iv) यूरोपीय संघ के समान खुद को अधिराष्ट्रीय संगठन बनाने या उसके समान अन्य व्यवस्थाओं को हाथ में लेने का उसका लक्ष्य नहीं था।

(v) यह राष्ट्रों के बीच अनौपचारिक, टकरावरहित और सहयोगात्मक मेल-मिलाप रखना सबसे बड़ा उद्देश्य था।

(vi) राष्ट्रीय सार्वभौमिकता का सम्मान करना भी इसका महत्वपूर्ण उद्देश्य था।

Q.50. 1970 में चीन ने क्या-क्या आर्थिक सुधार किये ?

Ans ⇒  1970 में चीन के आर्थिक सुधार-

(i) इस समय चीन की आर्थिक स्थिति खराब थी। इस स्थिति से निपटने के लिए चीन ने अपनी नीतियों में विशेष परिवर्तन किये।
(ii) उसने 1972 में अमेरिका से संबंध स्थापित किया और अपने एकांतवास को तोड़ा।
(iii) 1973 में चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई ने कृषि उद्योग, सेना और विज्ञान प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आधुनिकीकरण के चार प्रस्ताव रखे।
(iv) 1978 में तत्कालीन चीनी नेता देंग श्याओपेंग ने चीन में आर्थिक सुधारों और खुले द्वार की नीति’ की घोषणा की।
(v) अब चीन का उद्देश्य यह हो गया कि विदेशी पूँजी और प्रौद्योगिकी के निवेश से उच्चतर उत्पादकता को प्राप्त किया जाए।
(vi) चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को चरणबद्ध तरीके से आरंभ किया। सर्वप्रथम 1982 में खेती का निजीकरण किया गया और उसके बाद 1998 में उद्योगों को भी इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। अनेक व्यापारिक अवरोधों को हटाया गया।


Q. 51. चीन की नई आर्थिक नीतियों का क्या प्रभाव पड़ा ?

Ans ⇒ चीन की नई आर्थिक नीतियों का प्रभाव – चीन ने 1970 के बाद नई आर्थिक नीतियों को अपनाया जिसका अच्छा प्रभाव पड़ा जो निम्नलिखित हैं –

(i) उसकी अर्थव्यवस्था जड़ता से ऊपर उठी। कृषि के निजीकरण के कारण कृषि उत्पादों तथा ग्रामीण आय में आशा के अनुरूप सफलता मिली।
(ii) ग्रामीण अर्थव्यवस्था में निजी बचत बढ़ गई और इसके ग्रामीण उद्योगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। उद्योग और कृषि दोनों ही क्षेत्रों में चीन की अर्थव्यवस्था की वृद्धि-दर तेज रही।
(iii) व्यापार के नये कानून तथा विशेष आर्थिक क्षेत्र के निर्माण से विदेशी व्यापार में अद्भुत वृद्धि हुई।
(iv) चीन संपूर्ण विश्व में विदेशी निवेश के लिए सर्वाधिक आकर्षक देश बनकर उभरा। … (v) चीन के पास विदेशी मुद्रा का भरपूर भंडार है और इसके बूते चीन दूसरे देशों में निवेश कर रहा है।
(vi) 2001 में चीन ने विश्व व्यापार संगठन में प्रवेश किया और दूसरे देशों को अपने देश में निवेश का द्वार खोल दिया।


Q.52. ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत और चीन के संबंधों पर प्रकाश डालिए।

Ans ⇒  ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत और चीन के संबंध-

(i) ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत और चीन में घनिष्ठ संबंध नहीं था और वे एक-दूसरे को समानान्तर विकास करते रहे और महाशक्ति के रूप में कार्य करते रहे तथा दोनों का प्रभाव क्षेत्र लगभग बराबर था।

(ii) चीन का कई पड़ोसी देशों पर अधिकार था। वे उसका प्रभुत्व स्वीकार करते थे और उसे भेंट देते थे तथा शांति से रहते थे।

(iii) चीनी राजवंशों ने लंबे समय तक शासन किया और मंगोलिया, कोरिया, हिंदचीन और तिब्बत उसके अधीन थे। भारत में अनेक राजवंशों ने शासन किया और उनके अपने साम्राज्य विस्तृत थे। कई अन्य देश भी भारतीय साम्राज्य में शामिल थे।

(iv) भारत और चीन दोनों का अपने साम्राज्य में राजनीतिक प्रभाव के साथ-साथ आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी था।

(v) दोनों शक्तिशाली देश थे परंतु प्रभाव-क्षेत्र को लेकर सभी आपस में टकराये। फलस्वरूप दोनों को एक-दूसरे के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी।


Q.53. राज्य सभा के संगठन, अधिकार और कार्यों का वर्णन करें।

Ans ⇒  भारतीय संघीय व्यवस्थापिका संसद कहलाती है और यह ब्रिटिश संसद की भाँति द्विसदनात्मक है। इसका अर्थ यह है कि जिस प्रकार कॉमन सभा और लार्ड सभा को मिलाकर ब्रिटिश संसद का निर्माण हुआ है, उसी प्रकार भारतीय संसद के भी दो सदन हैं-प्रथम अथवा निम्न सदन, जिसे लोकसभा कहा जाता है और द्वितीय अथवा उच्च सदन जिसे राज्यसभा कहा जाता है।
राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद-80 के द्वारा 250 . निश्चित की गयी है। इनमें से 238 सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा होना ठहराया गया है और 12 सदस्यों को राष्ट्रपति ऐसे लोगों में से मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज-सेवा में विशिष्टता प्राप्त हो। वर्तमान समय में राज्यसभा में 244 संदस्य हैं जिनमें से 232 सदस्य राज्य एवं केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 12 सदस्यों का मनोनयन राष्ट्रपति द्वारा किया गया है।
भारत की राज्यसभा का सभापतित्व भारत का उपराष्ट्रपति करता है। इसके अतिरिक्त राज्यसभा अपने सदस्यों में से बहुमत के आधार पर एक उपसभापति भी चुनती है। राज्यसभा उपराष्ट्रपति को लोकसभा की सहमति प्राप्त कर अपने एक प्रस्ताव से हटा भी सकती है। साधारण काल में उपराष्ट्रपति तथा उपसभापति पाँच वर्ष तक अपने पद पर बने रहते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि चूंकि उपराष्ट्रपति राज्यसभा का सदस्य नहीं होता, अतः वह मतदान नहीं कर सकता।
तथापि राज्यसभा को नियमित रूप से कछ कार्य एवं अधिकार प्राप्त हैं और संविधान के अनुच्छेद 127 में यह स्वीकार किया गया है कि कोई भी विधेयक तभी अधिनियम बन सकता है जब वह संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित हो जाए।
भारत में विधि-निर्माण के क्षेत्र में कोई भी साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है और प्रत्येक विधेयक को अधिनियम बनाने के लिए दोनों सदनों की स्वीकृति आवश्यक है, परन्तु यदि किसी विधेयक के सम्बन्ध में दोनों सदनों में मतभेद उत्पन्न हो जाय तो संविधान द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाने की व्यवस्था की गयी है। गतिरोध की स्थिति में यदि राज्यसभा किसी विधेयक पर छह माह से अधिक का विलम्ब लगा देता है, तो उसके समाधान के लिए दोनों सदस्यों की संयुक्त बैठक बुलाये जाने की व्यवस्था की गयी है। संयुक्त बैठक में दोनों सदन बहुमत द्वारा उक्त विधेयक को पारित कर सकते हैं, संशोधित कर सकते हैं या स्वीकार कर सकते हैं चूंकि संख्या की दृष्टि से लोकसभा अधिक शक्तिशाली होती है अतः संयुक्त बैठक में लोकसभा के इच्छानुसार ही कार्य होने की संभावना अधिक रहती है।
इस प्रकार साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में राज्यसभा को अधिक-से-अधिक 6 महीने का विलम्ब करने का अधिकार है। यदि इसकी तुलना ब्रिटिश लॉर्ड सभा से की जाय तो ज्ञात होगा कि लॉर्ड सभा साधारण विधेयक पर एक वर्ष का विलम्ब कर सकती है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्यसभा या लॉर्ड सभा किसी विधेयक को सदा के लिए समाप्त नहीं कर सकती।
जहाँ तक वित्तीय क्षेत्र का सम्बन्ध है, राज्यसभा की शक्तियाँ और भी कम हैं। वित्त विधेयक ब्रिटेन की कॉमन सभा की भाँति केवल. लोकसभा में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं और इस बात का निर्णय कि उक्त विधेयक वित्तीय है अथवा नहीं, लोकसभा का अध्यक्ष ही करता है। लोकसभ से पारित होने के पश्चात् वित्त विधेयक राज्यसभा के विचारार्थ उसके समक्ष भेजा जाता है। वित्त-विधेयक को स्वीकार करने अथवा संशोधित करने का अधिकार राज्यसभा को प्राप्त नहीं है। उसे मात्र 14 दिनों के भीतर विधेयक को स्वीकार करके अथवा अपने सुझावों के साथ लौटा देना पडता है। राज्यसभा के सुझाव को मानने के लिए लोकसभा बाध्य नहीं है। दूसरी ओर यदि 14 दिनों के भीतर विधेयक को स्वीकार करके अथवा अपने सुझावों के साथ लौटा देना पड़ता है। राज्यसभा को सुझाव को मानने के लिए लोकसभा बाध्य नही है। दूसरी ओर यदि 14 दिनों के भीतर राज्यसभा वित्त विधेयक को नहीं लौटाती है, तो वह विधेयक उसी रूप में दोनों सदनों द्वारा पारित समझा – जाएगा जिस रूप में यह लोकसभा द्वारा पारित किया गया है।
अतः स्पष्ट है कि वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में राज्यसभा को मात्र 14 दिनों का निषेधाधिकार प्राप्त है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्रिटिन की लॉर्ड सभा वित्त विधेयक को मात्र 30 दिनों का विलम्ब कर सकती है।
संसदीय प्रणाली में जहाँ तक कार्यपालिका (मंत्रिपरिषद्) पर नियंत्रण रखने का सम्बन्ध है, यह कार्य संसद का ही है, परन्तु व्यवहार में भारत या ब्रिटेन की संसदीय प्रणालियों में ये अधिकार संसद के लोकप्रिय सदन को ही प्राप्त है। अतः जिस प्रकार ब्रिटेन में मंत्रिमंडल केवल कॉमन सभा के प्रति उत्तरदायी है, उसी प्रकार भारत में मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व लोकसभा के प्रति ही है। जहाँ तक राज्यसभा का सम्बन्ध है इसके सदस्य मंत्रियों से प्रश्न अथवा पूरक प्रश्न या मंत्रियों के विरुद्ध काम रोको प्रस्ताव ला सकते हैं तथा उसकी आलोचना भी कर सकते हैं, परन्तु सरकार को अविश्वास प्रस्ताव द्वारा पदच्युत करने की शक्ति केवल लोकसभा को ही है और राज्यसभा इस अधिकार से पूर्णतया वंचित है।
उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्यसभा संसद का एक निर्बल सदन है, परन्तु ऐसे कुछ सांविधानिक मामले हैं, जिनके सम्बन्ध में राज्यसभा को लोकसभा के समान ही शक्तियाँ प्राप्त हैं।
जहाँ तक संविधान में संशोधन करने का सम्बन्ध है, इस कार्य में संसद के दोनों सदन समान रूप से भाग लेते हैं। कोई भी संशोधन विधेयक राज्यसभा में ही पुनः स्थापित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कोई भी संशोधन तभी हो सकता है जब प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित एवं मत देनेवाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित हो जाय। संशोधन सम्बन्धी अपने अधिकार का उपयोग करते हुए राज्यसभा ने अनेक अवसर पर अपने महत्त्व को प्रकाश में लाया है। उदाहरणार्थ, 1970 का प्रतिवर्ष उन्मूलन विधेयक राज्यसभा में एक मत द्वारा पराजित हो जाने के कारण पारित न हो सका। हाल में 45वें संशोधन विधेयक के सम्बन्ध में राज्यसभा ने अपनी शक्ति का प्रयोग कर लोकसभा द्वारा अनुमोदित 5 धाराओं को रद्द घोषित कर दिया।
इसी प्रकार राज्यसभा राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा उसकी पदच्युति के संबंध में लोकसभा के समान ही अधिकारों का प्रयोग करता है। राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए जिस निर्वाचन मंडल का गठन किया जाता है, उसमें राज्य,की विधानसभाओं तथा संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य होते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण राष्ट्रपति के पदच्युत करने से सम्बन्धित अधिकार है। राष्ट्रपति को हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव केवल राज्यसभा में ही प्रस्तावित किया जा सकता है। इसके दो-तिहाई सदस्यों द्वारा स्वीकृत कर लिये जाने के बाद उसे लोकसभा में भेजा जा सकता है, जो न्यायपालिका के रूप में आरोपों की जाँच करता है और यदि अपने 2/3 मतों से आरोपों को सवीकार कर लेता है, तो राष्ट्रपति को पद-त्याग करना पड़ता है।
इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को अपदस्थ करने का अधिकार संसद के दोनों सदनों को समान रूप से प्राप्त है।
राज्यसभा को यह भी अधिकार है कि यदि लोकसभा के भंग होने की स्थिति में आपात् ‘स्थिति की घोषणा की गयी है, तो उसका अनमोदन वह दो महीने के भीतर कर दे।
अतएव सरांश के रूप में यह कहा जा सकता है। वैसे तो राज्यसभा शक्ति प्रयोग के सम्बन्ध में कोई विशेष भूमिका नहीं निभाती तथापि द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के अन्तर्गत इसने भारतीय शासन-व्यवस्था में सफलतापूर्वक कार्य किया है और आज भी इसका महत्त्व है और इसकी प्रभावशीलता अनेक अवसरों पर प्रदर्शित भी होती रही है।


S.N Class 12th Political Science Question 2022
1.Political Science ( लघु उत्तरीय प्रश्न )  PART- 1
2.Political Science ( लघु उत्तरीय प्रश्न )  PART- 2
3.Political Science ( लघु उत्तरीय प्रश्न )  PART- 3
4.Political Science ( लघु उत्तरीय प्रश्न )  PART- 4
5.Political Science ( लघु उत्तरीय प्रश्न )  PART- 5
6.Political Science ( लघु उत्तरीय प्रश्न )  PART- 6
7.Political Science ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )  PART- 1
8.Political Science ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )  PART- 2
9.Political Science ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )  PART- 3
10.Political Science ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )  PART- 4
11.Political Science ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )  PART- 5

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