Class 12th History ( कक्षा-12 इतिहास लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 4
Q.76. फतेहपुर सीकरी के विषय में आप क्या जानते हैं ?
Ans ⇒ 1556 ई. में जब अकबर बादशाह बना उस समय मुगल साम्राज्य की राजधानी आगरा में थी। 1570 ई. में उसने फतहपुर सीकरी में एक नयी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। कहा जाता है कि अकबर की अजमेर के शेख मोइनुद्दीन चिश्ती के दरगाह पर असीम आस्था थी और फतेहपुर सीकरी अजमेर की ओर जानेवाली सीधी सड़क पर अवस्थित था, इसलिए उसने नयी राजधानी के लिए इस जगह का चुनाव किया। यहाँ उसने सुन्दर महल बनवाये। गुजरात विजय की स्मृति में बुलन्द दरवाजा बनवाया। उसने यहाँ शेख सलीम चिश्ती का मकबरा भी बनवाया। किन्तु अधिक दिनों तक फतेहपुर सीकरी मुगल साम्राज्य की राजधानी नहीं रह सकी। पश्चिमोत्तर प्रान्त पर ध्यान देने के लिए 1585 में अकबर राजधानी लाहौर ले गया।
Q.77. खान-ए-खाना के बारे में आप क्या जानते हैं ?
Ans ⇒ खान-ए-खाना (Khan-a-khana) – खान-ए-खाना का शाब्दिक अर्थ है-खानों (उपाधि खान, मलिक आदि) में सबसे महान। यह एक उपाधि थी जो अकबर ने बैरम को दी थी। बैरम खाँ अकबर का संरक्षक एवं गुरु था। सन् 1556 से 1560 ई. तक बैरम खाँ ने अकबर को अपने दिशा-निर्देश द्वारा राजकार्य चलवाया। सिंहासनारोहण के समय अकबर की आयु केवल 13 वर्ष एवं 4 माह थी। अतः मुगल साम्राज्य स्थिरीकरण में बैरमखाँ का बड़ा हाथ था।
Q.78. अबुल फजल कौन था ? उस पर टिप्पणी लिखिए।
Ans ⇒ अबुल फजल – वह अकबरकालीन महान कवि, निबन्धकार, इतिहासकार, राजनीतिज्ञ सेनापति तथा आलोचक था। उसका जन्म 1557 ई. में आगरा के प्रसिद्ध सफी शेख मबारक के यहाँ हुआ था। उसने 1574 ई० में अकबर के दरबारियों के रूप में अपना जीवन शुरू किया। उसने कोषाध्यक्ष से लेकर प्रधानमंत्री तक के पद पर कार्य किया। यह भारतीय इतिहास में एक महान इतिहासकार के रूप में प्रसिद्ध है। उसने दो प्रसिद्ध ऐतिहासिक पस्तकों की रचनाएँ कीं। वे थीं ‘अकबरनामा’ तथा ‘आइने अकबरी’। ये दोनों ग्रंथ फारसी भाषा में लिखे गये और अकबर कालीन इतिहास जानने के मूल स्रोत हैं। अकबरनामा अकबर की जीवनी, विजयों, शासन प्रबन्ध के साथ-साथ तत्कालीन भारतीय राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थितियों को समझने में भी सहायक है। उसन पचतत्र’ का अनुवाद फारसी में किया और उसका नाम ‘अनघरे साहिली’ रखा। उसे अकबर क ना रत्नों में स्थान प्राप्त था। उसने अनेक सैनिक अभियानों का नेतत्व भी किया। वह पर्याप्त समय तक अकबर का प्रधानमंत्री और परामर्शदाता रहा। उसके विचार सूफी सन्तों से मिलते थे। धार्मिक दृष्टि से उसका दृष्टिकोण बहुत उदार था। कहा जाता है कि उसी ने अकबर को दीन-ए-इलाही नामक धर्म चलाने की प्रेरणा दी थी। इबादतखाने में वह सूफी मत के लोगों का प्रतिनिधित्व किया करता था। अकबर के नौ रत्नों में दीन-ए-इलाही को अपनाने वाला वह पहला व्यक्ति था। उसे सलीम ने ओरछा नरेश वीरसिंह बुन्देला के साथ सांठ-गांठ करके मरवा डाला था। कहते हैं अबुल फजल की मृत्यु के शोक में अकबर ने तीन दिनों तक दूरबार नहीं गया। अकबर ने भावुक होकर कहा था कि “अगर सलीम राज्य चाहता था तो वह मेरी हत्या करवा देता लेकिन अबुल फजल को छोड़ देता।” जब तक भारतीय इतिहास में अकबर का नाम रहेगा तब तक अबुल फज़ल को अवश्य याद किया जायेगा।
Q.79. अकबरकालीन युग के नवरत्न पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Ans ⇒ अकबर के नवरत्न –अकबर के पास विद्वानों का समूह था, जो नवरत्नों के नाम से ‘ प्रसिद्ध था। जिनमें से प्रसिद्ध विद्वान थे-अबुल फजल, फैजी, रहीम खान-ए-खाना, टोडरमल, तानसेन और बीरबल। बीरबल अपनी बुद्धिमत्ता, तत्परता और हँसी-मजाक के लिए प्रसिद्ध था। वह एक महान् सेनापति. भी था। एक अन्य रत्न था, राजा मानसिंह। वह एक महान् सेनापति होने के अलावा अकबर का अति विश्वसनीय सलाहकार भी था। कई अन्य विद्वान भी अकबर के संरक्षण में थे।
तानसेन अकबर के दरबार का एक प्रसिद्ध संगीतकार था। वह अकबर के नवरत्नों में से एक था। उसने अनेक रागों की गायन-शैली में नवीनता का समावेश करके भारतीय संगीत को समृद्ध किया। राग दरबारी इन रागों में सबसे अधिक लोकप्रिय था जिसकी रचना तानसेन ने विशेष रूप से अकबर के लिए की थी। अकबर के शासन काल में भारत की संगीत कला में फारस की संगीत कला की बहुत-सी विशेषताएँ ली गई थीं। अबुल फजल तानसेन के बारे में लिखता है-उस.जैसे संगीतकार भारत में आने वाले हजारों वर्षों तक नहीं होगा।”
Q.80. चाँद बीबी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
Ans ⇒ 1. 1519 ई० में अकबर ने कूटनीतिक स्तर पर कार्यवाही आरम्भ की नका मयेर दक्कनी राज्य में दूत भेजें और उसने मुगल सत्ता स्वीकार करने को कहा। 1595 ई. में मृत्यु के बाद छिड़े निजामशाही सरदारों के आपसी संघर्ष ने अकबर को अवसर दे दिया। उनका का संघर्ष छिड़ गया।
2. बुरहान की बहन चाँद बीबी इब्राहीम के चाचा और बीजापुर के भूतपूर्व सल्लाद जो बिना थी। वह बहत योग्य स्त्री थी और उसने आदिलशाह के वयस्क होने के दस साल तक शासन संभाला था।
3. अहमदनगर के अमीरों में आपस में फूट होने के कारण राजधानी तक मुगलों को बहुत कम विरोध का सामना करना पड़ा। चाँद बीबी ने तरुण सुल्तान बहादुर के साथ स्वयं को किले के अंदर बंद कर लिया। चार महीनों के घेरे के बाद दोनों पक्षों में समझौता हुआ। शर्तों के अनुसार बरार मगलों को सौंप दिया गया और शेष क्षेत्र पर फिर सुल्तान बहादुर का अधिकार मान लिया गया। 1596 ई० में यह समझौता हुआ।
4. बीजापुर, गोलकुण्डा और अहमदनगर की संयुक्त सेना को 1597 ई. में मुगलों ने बरार से खदेड दिया। बीजापुर और गोलकुण्डा की सेनाएँ पीछे हट गईं परन्तु चाँद बीबी ने फिर समझौते की बात चला दी परन्तु उसके विरोधियों ने उसे विश्वासघाती कहा और उसे मार डाला। अहमदनगर पर आक्रमण करके उसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया।
Q.81. बुकानन कौन था ? उसका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
Ans ⇒ फ्रांसीसी बकानन एक चिकित्सक था जो भारत में 1794 में आया। उन्होंने 1794 से 1815 तक बंगाल चिकित्सा सेवा में कार्य किया। कुछ वर्षों तक वे भारत के गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली के शल्य-चिकित्सक रहे। उन्होंने अपने प्रवास के दौरान कलकत्ता (अब कोलका एक चिड़ियाघर की स्थापना की जो अलीपुर चिड़ियाघर कहलाया। वे कुछ समय के लिए बान उद्यान के प्रभारी रहे। उन्होंने बंगाल सरकार के अनुरोध पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के
क्षेत्र में आने वाली भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण किया। वे 1815 में बीमार हो गए और गए। बुकानन अपनी माताजी की मृत्यु के पश्चात् उनकी जायदाद के वारिस बने. और उन्होंने वंश का नाम ‘हैमिल्टन’ को अपना लिया। इसलिए उन्हें अक्सर बुकानन-हैमिल्टन भी कहा जाता है
Q.82. मगलकाल में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालें।
Ans ⇒ मुगलकाल में आम महिलाओं में पर्दा-प्रथा का रिवाज था। शिक्षा और सम्पत्ति उनी अधिकार भी सीमित थे। बहु पत्नी प्रथा सती प्रथा भी समाज में प्रचलित थी। मुगल राजपरिवा की महिलाएँ प्रभावी भी थीं। जहाँआरा व्यापार, निर्माण कार्य में रूचि लेती थी तो हुमायँ की बरस गुलबदन बेगम ने हुमायूँनामा की रचना की। नूरजहाँ का मुगल दरबार में प्रभाव तो जगजाहिर ही था।
Q.83. जमींदार कौन थे? मगल व्यवस्था में उनकी क्या भूमिका थीं ?
Ans ⇒ मुगलकालीन ग्रामीण समुँदाय में जमींदारी का प्रभावशाली वर्ग था। जमींदार वे थे जिनका भूमि और कृषि से सम्बन्ध तो था परन्तु वे प्रत्यक्ष रूप से कृषि में भाग नहीं लेते थे। जमीन पर उनका पुश्तैनी और मालिकाना हक था।
जमींदारों की मुख्य तीन श्रेणियाँ थीं-
(i) स्वायत्त सरदार
(ii) मध्यवर्ती जमींदार
(iii) प्राथमिक जमींदार
इनका मुख्य कार्य राजस्व की वसूली करना तथा कृषि के विस्तार को प्रोत्साहित करना था। आवयकतानुसार ये शांति स्थापना तथा राज्य को सैनिक सेवा भी प्रदान करते थे।
Q.84. साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।
Ans ⇒ साँची के स्तुप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका. (The Role of the Begums of Bhopal in Preserving the Stupa of Sanchi)
(i) भोपाल की नवाब (शासन काल 1868-1901), शाहजहाँ बेगम की आत्मकथा ताज-उल इकवाल तारीख भोपाल (भोपाल का इतिहास) से। 1876 ई० में एच. डी. ब्रास्तो ने इसका अनुवाद किया। बेगम साँची के स्तूप की प्रसिद्धि एवं जानकारी का प्रचार-प्रसार करना चाहती थी।
(ii) उन्नीसवीं सदी के यूरोपीयों में साँची के स्तूप को लेकर काफी दिलचस्पी थी। फ्रांसीसियों ने सबसे अच्छी हालत में बचे साँची के पूर्वी तोरण द्वारा को फ्रांस ले जाने की इजाजत माँगी। कुछ समय के लिए अंग्रेजों ने भी ऐसी ही कोशिश की। सौभाग्यवश फ्रांसिसी और अंग्रेज दोनों ही बड़ी सावधानी से बनाई प्लास्टर प्रतिकृतियों से संतुष्टि हो गये। इस प्रकार मूल कृति भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही रही।
(iii) भोपाल के शासकों शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारी सुल्तान जहाँ बेगम ने इस प्राचीन स्थल के रख-रखाव के लिए धन का अनुदान किया। आश्चर्य नहीं कि जॉन मार्शल ने साँची पर लिखे अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथों को सुल्तानजहाँ को समर्पित किया।
(iv) सुल्तानजहाँ बेगम ने वहाँ पर एक संग्रहालय और अतिथिशाला बनाने के लिए अनुदान दिया। वहाँ रहते हुए ही जॉन मार्शल ने उपर्युक्त पुस्तकें लिखीं। इस पुस्तक के विभिन्न खंडों के प्रकाशन में भी सुल्तानजहाँ बेगम ने अनुदान दिया। इसलिए यदि यह स्तूप समूह बना रहा है तो इसके पीछे कुछ विवेकपूर्ण निर्णयों की बड़ी भूमिका है। शायद हम इस मामले में भी भाग्यशाली रहे हैं कि इस स्तूप पर किसी रेल ठेकेदार का निर्माता की नजर नहीं पड़ी। यह उन लोगों से भी बचा रहा जो ऐसी चीजों को यूरोप के संग्रहालयों में ले जाना चाहते थे।
(v) बौद्ध धर्म के इस महत्वपूर्ण केन्द्र की खोज से आरंभिके बौद्ध धर्म के बारे में हमारी समझ में महत्वपूर्ण बदलाव आये। आज यह जगह आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के सफल मरम्मत और संरक्षण का जीता जागता उदाहरण है।
Q.85 अमीर खुसरो कौन था ? उनके नाम के साथ कौल शब्द कैसे जुड़ा है ?
Ans ⇒ अमीर खुसरो (1253-1323) महान कवि, संगीतज्ञ तथा खेश निजामुद्दीन औलिया अनयायी थे। उन्होंने कौल (अरबी शब्द जिसका अर्थ है कहावत) का प्रचलन करके चिश्ती को एक विशिष्ट आकार दिया। कौल को कव्वाली के शुरू और आखिर में गाया जाता था। इसके बाद सूफी कविता का पाठ होता था जो फारसी, हिन्दवी अथवा उर्दू में होती थी और कभी-कभी न तीनों ही भाषाओं के शब्द इसमें मौजूद होते थे। शेख निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर गाने वाले कव्वाल अपने गायन की शुरुआत कौल से करते हैं। उपमहाद्वीप की सभी दरगाहों पर कव्वाली गाई जाती है।
Q.86.’भक्ति और सूफी आन्दोलन एक-दूसरे के पूरक थे।’ व्याख्या कीजिए।
Ans ⇒ भारत में मध्यकाल में एक नवीन धार्मिक आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। हिन्दुओं के आन्दोलन को भक्ति आन्दोलन तथा मुसलमानों के आन्दोलन को सूफी आन्दोलन कहते हैं। ये दोनों ही आन्दोलन आम जनता पर अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हुए। हालांकि रीति-रिवाजों में ये एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे किन्तु वृहद् दृष्टि से ये एक-दूसरे के पूरक भी थे। दो समुदायों में एक साथ आन्दोलन शुरू होना ही इस तथ्य की पुष्टि करता है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
भक्ति एवं सूफी आन्दोलन के प्रभाव-
(i) इन आन्दोलनों के सन्तों ने धर्म की जटिलताओं को दूर करके उसे सभी के लिए सरल एवं सुलभ बना दिया।
(ii) भक्ति तथा सूफी दोनों ही आन्दोलनों ने स्थापित धार्मिक व्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया था।
(iii) दोनों ही आन्दोलनों में गरीब, लाचार एवं बेबस लोगों की ओर विशेष ध्यान दिया गया था।
(iv) सन्तों एवं सूफियों की वाणी घर-घर तक पहुँच गई।
(v) सन्तों का जीवन अत्यन्त सादा तथा आदर्शों से भरा हुआ था।
(vi) नृत्य एवं संगीत ईश्वर से प्रेम करने का साधन बना।
(vii) इस आन्दोलन ने जाति प्रथा जैसी सामाजिक व्यवस्था को कमजोर कर दिया।
Q.87. ‘भुक्ति’ शब्द का क्या आशय है ?
Ans ⇒ गुप्त काल में प्रांत को ‘भुक्ति’ कहा जाता था। प्रांत भी कई इकाइयों में बँटा हआ था। भुक्ति का प्रबंध मुख्यतः राजकुमारों अथवा राजवंश के विश्वस्त लोगों को ही सौंपा जाता था।
Q.88. सूफीवाद से आप क्या समझते हैं ?
Ans ⇒ सूफीवाद उन्नीसवीं शताब्दी में मुद्रित एक अंग्रेजी शब्द है। सूफीवाद के लिए इस्लामी ग्रंथों में जिस शब्द का इस्तेमाल होता है वह है, तसत्वुफ। कुछ विद्वानों के अनुसार यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ ऊन है। यह उस खुरदुरे ऊनी कपड़े की ओर इशारा करता है जिसे ङ्केसूफी पहनते थे। अन्य विद्वान इस शब्द की व्युत्पत्ति । सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ है साफ। यह भी संभव है कि यह शब्द ‘सफा’ से निकला हो जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जहाँ निकट अनुयायियों की मंडली धर्म के बारे में जानने के लिए इकट्ठी होती थी।
Q.89. सूफी सन्त के प्रमुख सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए। इनका जन-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा ?
Ans ⇒ 1. एकेश्वरवाद(Mono God) – सूफी लोग इस्लाम धर्म को मानने के साथ एकेश्वरवाद पर जोर देते थे। पीरों और पैगम्बरों के उपदेशों को वे मानते थे।
2. रहस्यवाद (Mistensue) – इनकी विचारधारा रहस्यवादी है। इनके अनुसार कुरान के छिपे रहस्य को महत्त्व दिया जाता है। सूफी सारे विश्व के कण-कण में अल्लाह को देखते हैं।
3. प्रेम साधना पर जोर (Stress on Love and Meditation) – सच्चे प्रेम से मनुष्य अल्लाह के समीप पहुँच सकता है। प्रेम के आगे नमाज, रोजे आदि का कोई महत्त्व नहीं।
4. भक्ति संगीत (Bhakti Music) – वे ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गायन को विशेष महत्त्व देते थे। मूर्ति-पूजा के वे विरोधी थे या पीर को सूफी लोग
5. गरु या पीर का महत्व (Importance of Pir or Teacher) – गुरु या पीर को सा. अधिक महत्त्व देते थे। उनके उपदेशों का वे पालन करते थे।
6. इस्लाम विरोधी कछ सिद्धान्त (Some Principles Against Islam) – वे इस्लाम निक कुछ बातें-संगीत, नृत्य आदि को मानते थे। वे रोजे रखने और नमाज पढ़ने में विश्वास नहीं ।
Q.90. चिश्ती सम्प्रदाय के तीन प्रमुख संतों का संक्षिप्त परिचय दें।
Ans ⇒ भारत वर्ष में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रवर्तक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को माना जाता है। ये 1192 ई. में भारत में आये।
चिश्ती सम्प्रदाय के तीन प्रमुख संतों का परिचय :
(i) शेख कतबदीन बख्तियार काकी – यह मुइनुद्दीन चिश्ती के प्रमुख शिष्य थे। गे इल्तुतमिश के समय भारत आये। इनका जन्म 1235 ई० में फरगना के गौस नामक स्थान पर हआ था। बख्तियार (भाग्य-बन्धु) नाम मुइनुद्दीन का दिया हुआ था।
(ii) फरीदउहीन-गंज-ए-शकर – इनका जन्म मुल्तान जिले के कठवाल शहर में 1175 ई० में हुआ था। ये बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध थे। तीन पत्नियों में से एक, प्रथम पत्नी बलवन की पुत्री थी जिसका नाम हुजैरा था।
(iii) शेख निजामदीन औलिया – इनका वास्तविक नाम मुहम्मद-बिन-दनियल-अल बुखारी था। इनका जन्म बदायूँ में 1236 ई. में हुआ था। इन्होंने अपने जीवनकाल में दिल्ली के सात सुल्तानों का राज्य देखा था। अमीर खुसरो इन्हीं के शिष्य थे। दुर्भाग्यवश इनका सम्बन्ध किसी भी सुल्तान के साथ मधुर नहीं रहा। इनकी मृत्यु 1325 ई० में हुई।
Q.91. गुरु नानक कौन थे ? उनके व्यक्तित्व के बारे में किसी एक इतिहासकार का कथन लिखिए।
Ans ⇒ पंजाब में भक्ति आन्दोलन का ज्वार लाने का श्रेय गुरु नानक जी को है। वे जाति-पाँति, धर्म, वर्ग और मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने निष्काम भक्ति, शुभ कर्म तथा शुद्ध जीवन को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बतलाया। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे। “उनका स्वाभाविक मिठास और सबसे प्रेम करने की भावना के कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों उनका आदर करते थे। इसी कारण से वह दोनों धर्मों को एक-दूसरे के समीप लाने का केन्द्र बन गए।”
Q.92. रामानुज और रामानंद पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Ans ⇒ 1.रामानज (Ramanuja) – शंकराचार्य के बाद प्रसिद्ध भक्त सन्त रामानुज हए। उन्हें प्रथम वैष्णव आचार्य माना जाता है। उनका कार्य-काल बारहवीं शताब्दी था। उन्होंने सगुण ब्रह्म की भक्ति पर जोर दिया तथा कहा कि उसकी सच्ची भक्ति, ज्ञान तथा कर्म ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है।
2.रामानन्द (Ramanand) – आचार्य रामानुज की पीढ़ी में स्वामी रामानन्द प्रथम सन्त थे जिन्होंने भक्ति द्वारा जन-साधारण को नया मार्ग दिखाया। उनका समय चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और पंद्रहवीं शताब्दी के प्रथम पच्चीस वर्ष माने जाते हैं। उनका जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) में 1299 ई० म कान्यकब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने एकेश्वरवाद पर जोर देकर हिन्दु मुसलमानों में प्रेम भक्ति सम्बन्ध के साथ सामाजिक समाधान प्रस्तुत किया। उससे भी अधिक उन्होंने हिन्दू समाज के चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) को भक्ति का उपदेश दिया और निम्न वर्ण के लोगों के साथ खान-पान निषेध का घोर विरोध किया। उनके शिष्यों में सभी जातियों के लोग थे। इनमें शूद्र भी थे। इनके शिष्यों में रविदास चर्मकार थे। कबीर जुलाहे थे, सेनापति नाई, पीपा राजपूत थे और सन्तधना कसाई थे। उन्होंने ब्राह्मणों और क्षत्रियों की उच्चता का खण्डन किया और मानववाद तथा मानवीय समानता जैसे प्रगतिशील विचारों एवं सिद्धान्तों का प्रचार किया उन्होंने अपने उपदेशा का प्रचार क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से किया।
Q.93. कबीर पर एक टिप्पणी लिखिए।
Ans ⇒ मध्ययुगीन भारतीय संतों में कबीरदास की साहित्यिक एवं ऐतिहासिक देन स्मरणाय है। वे मात्र भक्त ही नहीं, बड़े समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों का डटकर विरोध किया। अंधविश्वासों, दकियानूसी, अमानवीय मान्यताओं तथा गली-सड़ी रूढ़ियों की कटु आलोचना की। उन्होंने समाज, धर्म तथा दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण विचारधारा को प्रोत्साहित भी किया। कबीर ने जहाँ एक ओर बौद्धों, सिद्धों और नाथों की साधना पद्धति तथा सुधार परम्परा के
साथ वैष्णव सम्प्रदायों की भक्ति-भावना को ग्रहण किया वहाँ दूसरी ओर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक असमानता के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। इस प्रकार मध्यकाल में कबीर ने प्रगतिशील तथा क्रांतिकारी विचारधारा को स्थापित किया। कबीर एकेश्वरवाद के समर्थक थे। वे मानसिक पवित्रता, अच्छे कर्मों तथा चरित्र की शुद्धता पर बल देते थे। उन्होंने जाति, धर्म या वर्ग को प्रधानता नहीं दी। उन्होंने धार्मिक कुरीतियों, आडम्बरों, अंधविश्वासों तथा कर्मकाण्डों को व्यर्थ बतलाया। उन्होंने मूर्ति-पूजा का खंडन करने के उद्देश्य से लिखा था
“पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहार।
ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार॥”
सारांश यह है कि कबीर धार्मिक क्षेत्र में सच्ची भक्ति का संदेश लेकर प्रकट हुए थे। उन्होंने निर्गुण-निराकार भक्ति का मार्ग अपनाकर मानव धर्म के सम्मुख भक्ति का मौलिक रूप रखा। यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि “कबीर के राम दशरथ पुत्र राजा राम नहीं है अपतुि घट-घट में निवास करने वाली अलौकिक शक्ति हैं जिसे राम-रहीम, कृष्ण, खुदा वाहेगुरु साईंनाथ कोई भी नाम दिया जाए। उसका रूप एक है। उसकी प्राप्ति के लिए न मंदिर की आवश्यकता है न मस्जिद की। वह सब में विद्यमान हैं और सभी उसे भक्ति तथा गुरु की कृपा से प्राप्त कर सकते हैं।”
कबीर जनसाधारण की भाषा में अपने उपदेश देते थे। उन्होंने अपने दोहों में धार्मिक कुरीतियों, आडम्बरों, अन्धविश्वासों तथा कर्मकाण्डों को व्यर्थ बतलाया।
“कबीर का नाम भारतीय इतिहास में इस कारण लिया जाता है कि उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के आपसी अंतर को दूर करने और एक मनुष्य के दूसरे से अंतर को दूर करने का प्रयास किया।”
Q.94. सन्त नामदेव पर टिप्पणी लिखिए।
Ans ⇒ नामदेव (Namdev) – (i) मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के विकास एवं लोकप्रियता में महाराष्ट्र के सन्तों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ज्ञानेश्वर, हेमाद्रि और चक्रधर से आरम्भ होकर रामनाथ, तुकाराम, नामदेव ने भक्ति पर बल दिया तथा एक ईश्वर की सम्पूर्ण मानव जाति सन्तान होने के नाते सबकी समानता के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया।
(ii) नामदेव ने भरपूर कोशिश के साथ जाति प्रथा का खण्डन किया। नामदेव जाति से दर्जी थे। वे अपने पैतृक व्यवसाय की ओर कभी भी आकृष्ट नहीं हुए तथा साधु संगत को ही उन्होंने चाहा।
(iii) सन्त विमोवा खेचम उनके गुरु थे तथा वे सन्त ज्ञानेश्वर के प्रति गहरी निष्ठा रखते थे। उन्होंने भक्त सन्त प्रचारक बनने के बाद अपने शिष्यों के चुनाव में विशाल हृदय से काम लिया।
(iv) उनका काव्य जो मराठी भाषा में है, ईश्वर के प्रति गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापी, एकेश्वर तथा सर्वत्र हैं वे समाज सुधारक तथा हिन्दू मुस्लिम एकता के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने भरपूर कोशिश के साथ जाति प्रथा का खण्डन किया।
(v) कहा जाता है कि उन्होंने दूर-दूर तक यात्राएँ की और दिल्ली में सूफी सन्तों के साथ विचार-विमर्श किया। वे प्रार्थना, भ्रमण, तीर्थयात्रा सत्संग तथा गुरु की सेवा के समर्थक थे। उन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में आचरण की शुद्धता, भक्ति की पवित्रता एवं सरसता और चरित्र की निर्मलता पर बल दिया।
Q.95. मीराबाई पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Ans ⇒ गिरिधर गोपाल की भक्त मीराबाई का मध्यकलीन संतों में विशेष स्थान है। उसने भक्ति की जो मंदाकिनी (गंगा) अपने हृदय से निकाली, कविताओं द्वारा प्रवाहित की, उसने केवल राजस्थान की मरुभूमि ही नहीं, अपितु सारे उत्तरी भारत को रसमग्न कर दिया। . मीराबाई का जन्म लगभग 1516 ई० में राजस्थान के मेडता परगने के कुड़की या चौकड़ी व में हुआ था। मीरा जोधपुर के शासक रतनसिंह राठौर की पुत्री थी। मीरा अभी 4-5 वर्ष की ही थी कि उसकी माता का देहांत हो गया। उसका पालन-पोषण उसके दादा ने किया। अपने दादा के धार्मिक विचारों से मीरा बहुत प्रभावित हुई। 18 वर्ष की आयु में मीरा का विवाह मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह के बड़े पुत्र भोजराज से कर दिया गया लेकिन मीरा का वैवाहिक जीवन बहुत संक्षिप्त था। विवाह के लगभग एक वर्ष बाद ही उसके पति की मृत्यु हो गई। इस तरह मीरा छोटी आयु में ही विधवा हो गई। कुछ संमय बाद उसके ससुर राणा साँगा की भी मृत्यु हो गई। अब मीरा बेसहारा हो गई। अत: वह संसार से मोह त्यागकर कृष्ण-भक्ति में लीन हो गई। वह साधुओं का सत्कार करती और पैरों में घुघरू बाँधकर भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचने लगती।
उसके ससुराल के लोगों ने उसके कार्यों को अपने कुल की मर्यादा के विपरीत समझा। अतः उसे कई प्रकार के अत्याचारों द्वारा मारने के प्रयास किए। लेकिन जहर का प्याला, साँप और सूली आदि भी मीरा का बाल-बाँका न कर सके। इस विषय में मीरा ने स्वयं कहा है कि “मीरा मारी न मरूँ, मेरो राखणहार और”। इससे उसकी भक्ति-भावना और बढ़ गई, लेकिन अत्याचार भी बढ़ते जा रहे थे। कहा जाता है कि मीरा ने अपने संसुराल वालों से तंग आकर गोस्वामी तुलसीदासजी को पत्र लिखकर उनकी सलाह माँगी। तुलसीदासजी ने मीरा को इस प्रकार उत्तर दिया।
“जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिये ताहि कोटि वैरी सम, यद्यपि परम सनेही।”
इस उत्तर को पाकर मीरा ने घर-बार छोड़ दिया और वह वृंदावन चली गई। वहाँ कुछ समय रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गई। कहा जाता है कि मीरा को द्वारिका से लाने के लिए उनकी ससुराल तथा मायके-दोनों स्थानों से ब्राह्मणं आये लेकिन वह नहीं गई। द्वारिका में ही 1574 ई० में मीराबाई का देहांत हो गया।
Q.97. मनसबदारी व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
Ans ⇒ अकबर ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनसबदारी व्यवस्था का प्रवर्तन किया। यह दशमलव प्रणाली पर आधारित था। मनसबदार को दो पद जात एवं सवार प्रदान किए जाते थे। ब्लाकमैन के अनुसार, एक मनसबदार को अपने जितने सैनिक रखने पड़ते थे वह जात का सूचक था। वह जितने घुड़सवार रखता था वह सवार का सूचक था।
40 से 500 तक का मनसबदार ‘मनसबदार’ कहलाता था। 500 से 2500 का मनसबदार अमीर कहलाता था। 2500 से अधिक का मनसबदार अमीर एक उम्दा कहलाता था।
मनसबदारों को वेतन में नकद रकम मिलता था। कभी-कभी वेतन में जागीर भी दी जाती थी। इस प्रकार मनसबदारी व्यवस्था मुगल सेना का प्रमुख आधार बन गयी। उसने मुगल साम्राज्य का विस्तार एवं सुव्यवस्था की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
Q.98. स्थायी बंदोबस्त से कम्पनी को हुए लाभों का वर्णन करें।
Ans ⇒ स्थायी व्यवस्था से पूर्व राज्य की होने वाली आय निश्चित न थी। उच्चतम बोली देने वाले ऐसे बहुत कम होते थे जो समय पर अपने धन की अदायगी कर पाते थे। इससे सरकार की आय अनिश्चित बनी रहती थी। अब सरकार को जमींदारी द्वारा प्राप्त धन का एक निश्चित भाग प्राप्त होने लगा। यदि कोई जमींदार धन की अदायगी राज्य को समय पर न कर पाता था तो उसका भमि कर्क कर दी जाती थी। क्योंकि भ-राजस्व राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था, अतः कम्पना के योग्य कर्मचारियों को इस राजस्व को वसूल करने के लिए लगाया जाता था, फलतः दूसरे विभागों का कार्य ठीक प्रकार से न हो पाता था परंत इस व्यवस्था के कारण सरकार इस ओर से निश्चित हो गई और अन्य योग्य व्यक्तियों को अन्य विभागों में लगाया जाने लगा जिससे शासन व्यवस्था की क्षमता का बढ़ना निश्चित था।
Q.99. महालबाडी व्यवस्था क्या थी ?
Ans ⇒ महालबाड़ी नामक भू-व्यवस्था जमींदारी व्यवस्था (स्थायी व्यवस्था) का ही संशोधित रूप था। यह 1801 ई. में अवध क्षेत्र तथा 1803-04 में मराठे अधिकृत प्रदेशों में लागू किया गया था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रति खेत के आधार पर लगान नहीं निश्चित कर प्रत्येक महाल (गाँव
या जागीर) के आधार पर निश्चित किया गया। पूरा गाँव सम्मिलित रूप से लगान चुकाने के लिए .. उत्तरदायी था। इस व्यवस्था में भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं रहता था बल्कि समस्त गाँव का रहता था। इसीलिए इसे महालबाड़ी व्यवस्था कहा गया।
Q.100. रैयतवाडी व्यवस्था क्या थी? इससे क्या सामाजिक और आर्थिक प्रभाव उत्पन्न हए ?
Ans ⇒ दक्षिण और दक्षिण-पश्चिमी भारत में रैयतवाड़ी बंदोबस्त लागू किया गया, जिसके अंतर्गत किसान भूमि का मालिक था यदि वह भू-राजस्व का भुगतान करता रहे। इस व्यवस्था के समर्थकों का कहना था कि यह वही व्यवस्था है, जो भारत में पहले थी। बाद में यह व्यवस्था मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों में भी लागू कर दी गई। इस व्यवस्था में 20-30 वर्ष बाद संशोधन कर दिया जाता था तथा राजस्व की राशि बढ़ा दी जाती थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था में निम्नलिखित त्रुटियाँ थीं-
(i) भू-राजस्व 45 से 55 प्रतिशत था, जो बहुत अधिक था।
(ii) भू-राजस्व बढ़ाने का अधिकार सरकार ने अपने पास रखा था।
(iii) सूखे अथवा बाढ़ की स्थिति में भी पूरा राजस्व देना पड़ता था। इससे भूमि पर किसान का प्रभुत्व कमजोर पड़ गया।
प्रभाव- (i) इससे समाज में असंतोष और आर्थिक विषमता का वातावरण छा गया।
(ii) सरकारी कर्मचारी किसानों पर अत्याचार करते रहे तथा किसानों का शोषण पहले जैसा ही होता रहा।