Class 12th History ( कक्षा-12 इतिहास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 6
Q.51. स्थायी बंदोबस्त से आप क्या समझते हैं ? इसके लाभ एवं हानियों का वर्णन करें।
Ans ⇒ बंगाल का स्थायी बन्दोबस्त (Permanent Settlement of Bengal) – बंगाल की राजस्व व्यवस्था में सुधार करके लॉर्ड कॉर्नवालिस ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उसके द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था ही बाद में “स्थायी बन्दोबस्त” के नाम से प्रसिद्ध हुई।
स्थायी बन्दोबस्त के लिये उत्तरदायी परिस्थितियाँ :- वारेन हेस्टिंग्स ने कम्पनी की आय में वृद्धि करने के विचार से भूमि को पाँच वर्ष के लिये और बाद में केवल एक वर्ष के लिये ठेके पर देना आरम्भ किया था। ठेके पर भूमि देने की यह प्रणाली अत्यन्त असन्तोषजनक और दोषपूर्ण सिद्ध हुई। उसमें अनेक दोष थे ।
(i) उत्साह तथा जिद्द में आकर जमींदार अधिक से अधिक बोली लगाते थे, परन्तु वे भूमि की आय से इतनी राशि नहीं प्राप्त कर पाते थे, इस कारण सरकार का बहुत-सा धन बिना वसूल किये ही रह जाता था।
(ii) जमादारा का यह भी विश्वास नहीं होता था कि अगले वर्ष भमि उनको मिलेगी अथवा नहीं, इस कारण वह भूमि की दशा को सुधारने का कोई प्रयास नहीं करते थे. परिणामस्वरूप भमि ऊसर होने लगी।
(iii) एक वर्ष के ठेके में अपनी धनराशि को पूरा करने के लिये जमींदार कृषकों पर बहुत अत्याचार करते थे।
बंगाल का स्थायी भूमि प्रबन्ध : इंगलैंड की सरकार को लॉर्ड कॉर्नवालिस के भारत आने के पूर्व ही भूमि ठेके पर देने के दोषों का पता चल चुका था। इसी कारण सन् 1784 के पिट्स इण्डिया ऐक्ट (Pit’s India Act) में कम्पनी के संचालकों को स्पष्ट आदेश दिया गया था कि वे भारत में वहाँ की न्याय व्यवस्था तथा संविधान के अनुसार उचित भूमि व्यवस्था लागू करें। अप्रैल 1784 ई. में जब कॉर्नवालिस भारत आ रहा था तो कम्पनी के संचालकों ने उसे स्पष्ट निर्देश दिए थे कि वह पिट्स इण्डिया ऐक्ट की धाराओं के अनुसार भारत में भूमि कर निश्चित कर दें। लॉर्ड कॉर्नवालिस शीघ्रता से कोई कार्य नहीं करना चाहता था। उसने भूमि कर की जाँच-पड़ताल का कार्य बंगाल प्रशासन के एक अनुभवी सदस्य सर जान शोर को दिया। उसने सम्पूर्ण लगान व्यवस्था का लगभग तीन वर्ष तक अध्ययन किया। उसकी रिपोर्ट के आधार पर कॉर्नवालिस ने दस वर्ष के लिए भूमि जमींदारों को सौंप दी। जब यह परीक्षण सफल रहा तो कॉर्नवालिस ने उसे एक स्थायी रूप दे दिया और भूमि सदा के लिए जमींदारों को सौंप दी गई। इस व्यव इस प्रकार थीं –
(i) अभी तक जमींदारों की कानूनी स्थिति यह थी कि वे भूमिकर एकत्रित करने के अधिकारी तो थे, परन्तु भूमि के स्वामी नहीं थे, परन्तु अब उनको भूमि का स्थायी रूप से स्वामी मान लिया गया।
(ii) अब उन्हें नित्यप्रति दिये जाने वाले उत्तराधिकार के शुल्क से भी मुक्ति मिल गई।
(iii) इसके अतिरिक्त जमींदारों से लिया जाने वाला कर भी निश्चित कर दिया गया, परन्तु उसकी रकम में वृद्धि की जा सकती थी। यह निश्चित किया गया कि सन् 1793 ई० में किसी जमींदार को लगान से जो कुछ भी प्राप्त होता था, सरकार भविष्य में उसका 10/11 भाग लिया करेगी, शेष धन का अधिकारी जमींदार रहेगा।
स्थायी बन्दोबस्त से लाभ : मार्शमैन तथा आर० सी० दत्त जैसे विद्वानों ने स्थायी बन्दोबस्त की अत्यन्त प्रशंसा की है। मार्शमैन ने इसे एक अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य बताया है। इसी प्रकार इतिहासकार आर० सी० दत्त का कथन है, लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा प्रतिपादित स्थायी भूमि व्यवस्था, अंग्रेजों द्वारा किए गए कार्यों से सर्वाधिक बुद्धिमत्तापूर्ण तथा सफल कार्य था।
स्थायी भूमि व्यवस्था के अनेक लाभ इस प्रकार हैं –
(i) जमींदारों के लिए लाभदायक – भूमि के इस स्थायी बन्दोवस्त का लाभ जमींदार वर्ग को ही रहा। उन्हें भूमि का स्वामित्व प्राप्त हो गया। समय के साथ-साथ भूमि से अधिक उत्पादन होने लगा जिससे जमींदार समृद्धशाली हो गये।
(ii) बार-बार भूमि कर निश्चित करने के झंझट से मुक्ति – इस व्यवस्था से सरकार और जमींदार दोनों को ही प्रतिवर्ष भूमि कर निश्चत करने वाली कठिनाइयों से मुक्ति मिल गई।
(iii) सरकार की आय का निश्चित होना – स्थायी प्रबन्ध से भूमि-कर की रकम निश्चित कर दी गई, परिणामस्वरूप सरकार की आय भी निश्चित हो गई तथा अब सरकार सरलता से बजट बना सकती थी।
(iv) प्रशासन की कार्यकुशलता में वृद्धि – स्थायी को अपना अधिकांश समय भूराजस्व एकत्रित करने तथा उससे संबंधित समस्याओं की ओर लगाना पड़ता था। परन्तु स्थायी व्यवस्था के परिणामस्वरूप सरकार को राजस्व संबंधी समस्याओं से मुक्ति मिल गई। अब सरकार अन्य प्रशासनिक कार्यों की ओर ध्यान दे सकती थी।
(v) उत्पादन तथा समृद्धि में वृद्धि – स्थायी व्यवस्था के फलस्वरूप भूमि की दशा में सुधार होने लगा और अधिक से अधिक अन्न का उत्पादन होने लगा।
(vi) ब्रिटिश सरकार को स्थिरता प्राप्त होना – स्थायी बन्दोवस्त के कारण बंगाल में अंग्रेजी सरकार का आधार सुदृढ हो गया। अंग्रेजों ने जमींदारों को भूमि का स्वामी बना दिया था। इसी कारण वे सरकार के प्रबल समर्थक बन गये और सन् 1857 की क्रांति के समय अंग्रेजों के भक्त बने रहे। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार “राजनैतिक दृष्टि से भी यह कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। जमींदार ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा तथा उसके बने रहने में रूचि लेने लगे। विद्रोह के समय भी उनकी वफादारी दृढ़ रही। इस दृष्टिकोण से यह व्यवस्था अत्यन्त सफल रही।”
स्थायी बन्दोबस्त से हानि : मिल थार्नटन और होम्ज आदि कुछ इतिहासकारों ने स्थायी व्यवस्था की कडी आलोचना की है। उनके अनसार इस व्यवस्था में अनेक दोष थे।
(i) आरम्भ में जमींदारों पर उल्टा प्रभाव – प्रारम्भ में अनेक जमींदार परिवार नष्ट हो गये, क्योंकि उन्होंने अपना समस्त धन भूमि को सुधारने पर व्यय कर दिया, परन्तु उत्पादन में उस अनुपात में वृद्धि नहीं हुई, इस कारण वह अपनी रकम को जो उस समय के अनुसार बहुत अधिक थी समय पर जमा न कर सके, फलतः बिक्री के नियम जो कि विनाशकारी नियम के नाम से भी प्रसिद्ध था, के अनुसार उनकी बिक्री कर दी गई।
(ii) कृषकों के हितों की उपेक्षा – स्थायी बन्दोबस्त में कृषकों के अधिकारों तथा हितों का तनिक भी ध्यान नहीं रखा गया तथा उन्हें पूर्ण रूप से जमींदारों की दया पर ही छोड़ दिया गया। जमींदार उन पर अनेक प्रकार के अमानवीय अत्याचार करते थे। उन्होंने किसानों से अधिकाधिक धन बटोरना प्रारम्भ कर दिया।
(iii) राज्य के भावी हितों की अवहेलना – स्थायी व्यवस्था के द्वारा राज्य के भांवी हितों की भी उपेक्षा की गई। समय के साथ-साथ भूमि से प्राप्त होने वाली आय में वृद्धि होने लगी, परन्तु राजकीय भाग निश्चित था, इस कारण बढ़ी हुई आय से सरकार को एक पैसा भी नहीं मिल सका।
(iv) खेती करने वालों पर करों का भारी बोझ – समय के साथ-साथ सरकार के व्यय में वृद्धि हो रही थी, परन्तु वह जमींदारों से एक पाई भी अधिक लेने में असमर्थ थी। इस कारण जमींदारी से होने वाले घाटे को सरकार अन्य व्यक्तियों पर भारी कर लगाकर पूरा करती थी। इस प्रकार जमींदारों के लाभ के लिए अन्य लोग करों के भार से दब गए जो पूर्णतया अन्याय था।
(v) अन्य प्रान्तों पर भार – समय व्यतीत होने पर सरकार के लिए बंगाल एक घाटे का प्रान्त बन गया। बंगाल के अकृषक वर्ग पर भी कर लगाने से जब यह घाटा पूरा न हुआ तब सरकार ने बाध्य होकर अन्य प्रान्तों पर भारी कर लगाये।
Q.52. सविनय अवज्ञा आंदोलन पर टिप्पणी लिखें।
Ans ⇒ 1929 ई. में काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में गाँधीजी के नेतृत्व में पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ करने का निर्णय लिया गया।
कार्यक्रम – सविनय अवज्ञा आंदोलन के निम्नलिखित कार्यक्रम थे –
(i) प्रत्येक गाँव में नमक कानून तोड़कर नमक बनाया जाए।
(ii) शराब और विदेशी कपड़ों की दूकानों पर धरना (विशेषकर महिलाओं द्वारा) दिया जाए।
(iii) विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाएँ।
(iv) हिन्दु छुआछूत को पूर्णतया छोड़ दें।
(v) विद्यार्थियों को सरकारी स्कूल व कॉलेजों में पढ़ना बंद कर देना चाहिए।
(vi) सरकारी कर्मचारियों को सरकारी नौकरियाँ छोड़ देनी चाहिए।
(क) आंदोलन का प्रथम चरण –
(i) डांडी यात्रा – 12 मार्च, 1930 को गाँधीजी ने डांडी यात्रा आरम्भ की तथा डांडी के तट पर पहुँचकर समुद्र के जल से नमक बनाकर नमक कानून को भंग किया।
(ii) आंदोलन में तीव्रता – सारे देश में सरकारी कानूनों का उल्लंघन शुरू हो गया। लोगों ने कर देना बंद कर दिया। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया।
(iii) सरकार की दमन – नीति- सरकार की दमन नीति शरू हई। गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। 1931 ई. के आरंभ में लगभग 90,000 व्यक्ति जेलों में थे।
(IV) प्रथम गोलमेज सम्मेलन – पेशावर में भारतीय सिपाहियों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। स्थिति खराब होते देखकर लंदन में 1930 ई० में गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया किन्तु, काँग्रेस ने इसका बहिष्कार किया।
(v) गाँधी-इरावन समझौता – जनवरी 1931 में गाँधीजी एवं दूसरे अन्य नेता रिहा कर दिए गए। मार्च 1931 में गाँधी-इरविन समझौता हो गया। सभी राजनैतिक बंदियों के मुकदमें वापस ले लिए गए और गाँधीजी द्वारा आंदोलन स्थगित कर दिया गया।
(ख) आन्दोलन का दूसरा चरण –
(i). भारत के लिए नया संविधान बनाने हेत द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में गाँधीजी ने भाग लिया। लेकिन कोई खास नतीजा न निकला। गाँधीजी निराश होकर भारत लौटे।
(ii) पुनः आदोलन प्रारंभ – गाँधीजी ने पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया। यह आंदोलन दो वर्षों तक चला।
(iii) दमनचक्र – इस बार सरकार का दमनचक्र पहले से भी भयानक था। गाँधीजी सहित लगभग एक लाख बीस हजार व्यक्तियों को जेलों में बंद कर दिया गया।
Q.53. गोलमेज सम्मेलन क्यों आयोजित किये गये? इनके कार्यों की विवेचना कीजिए।
Ans ⇒ प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन 12 नवम्बर, 1930 को हुआ। सम्मेलन की अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने की थी। इस सम्मेलन में 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें ब्रिटेन के तीनों दलों का प्रतिनिधिमंडल करने वाले 16 ब्रिटिश संसद सदस्य, ब्रिटिश भारत के 57 प्रतिनिधि जिन्हें वायसराय ने मनोनीत किया था तथा देशी रियासतों के 16 सदस्य सम्मिलित थे। काँग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया था। काँग्रेस की अनुपस्थिति पर बेल्सफोर्ड ने कहा, “सेन्ट जेम्स महल में भारतीय नरेश, हरिजन, सिक्ख, मुसलमान, हिन्दू, ईसाई और जमींदारों, मजदूर संघों और वाणिज्य संघों सभी के प्रतिनिधि इसमें सम्मिलित हये पर भारत माता वहाँ उपस्थित नहीं थी।
गाँधी-इरविन समझौता – प्रथम गोलमेज सम्मेलन असफल रहा। 19 जनवरी, 1931 को बिना किसी निर्णय के यह समाप्त कर दिया गया। यह स्पष्ट हो गया कि काँग्रेस के बिना कोई संवैधानिक निर्णय नहीं लिया जा सकता है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड तथा इरविन दोनों को ज्ञात हो गया कि काँग्रेस के बिना किसी संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। देश में उचित वातावरण बनाने के लिए इरविन ने काँग्रेस से प्रतिबंध हटा दिया तथा गाँधीजी तथा अन्य नेताओं को छोड़ दिया। अंतत: 5 मार्च, 1931 को गाँधी तथा इरविन में समझौता हो गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस हो गया व द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में काँग्रेस ने भाग लेना स्वीकार कर लिया।
दूसरा गोलमेज सम्मेलन – गाँधी-इरविन समझौता के तहत दूसरे गोलमेज सम्मेलन में काँग्रेस को भाग लेना था। काँग्रेस की ओर से एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में महात्मा गाँधी ने भाग लिया। मुस्लिम लीग ने मुहम्मद अली जिन्ना ने भाग लिया। 7 सितम्बर, 1931 ई० को दूसरा गोलमेज सम्मेलन आरंभ हुआ। गाँधीजी 12 सितम्बर को लंदन पहुँचे। विभिन्न दल व वर्ग अपना-अपना हित देख रहे थे। गाँधीजी ने कहा, “अन्य सभी दल साम्प्रदायिक हैं। काँग्रेस ही केवल सारे भारत और सब हितों के प्रतिनिधित्व का दावा कर सकती है।”
तीसरा गोलमेज सम्मेलन – भारत मंत्री ने तीसरा गोलमेज सम्मेलन बुलाया। यह सम्मेलन 17 नवम्बर, 1932 ई. से 24 दिसम्बर, 1932 ई. तक चला। काँग्रेस ने इसमें भाग नहीं लिया क्योंकि सभी नेता जेल में बंद थे।
Q.54. माउंटबेटन योजना क्या थी ? इसके प्रमुख प्रावधान क्या थे ? अथवा, माउंटबेटन योजना क्या थी ? इसके प्रमुख परिणामों पर प्रकाश डालिए।
Ans ⇒1.3 जून, 1947 को लार्ड माउंटबेटन ने भारत विभाजन योजना रखी। इसमें संविधान सभा का कार्य जारी रखने को कहा गया। यह भी कहा गया कि यह संविधान उन पर लागू नहीं होगा।
2. पंजाब व बंगाल का विधानमंडल मुस्लिम और गैर-मुस्लिम जिलों के अनुसार बाँटा जायेगा।
3. ब्लूचिस्तान के लोगों को आत्म-निर्णय लेने का अधिकार होगा।
4. पंजाब, बंगाल सिलहट में संविधान सभा के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव होगा और भारतीय राजाओं को संप्रभुसत्ता लौटा दी जायेगी।
प्रावधान (Provisions) –
1. इसमें कहा गया कि ब्रिटिश सरकार 15 अगस्त, 1947 को भारत की सत्ता ऐसी सरकार को सौंपेगी जिसका निर्माण जनता की इच्छा के अनुसार हुआ हो।
2. वर्तमान संविधान सभा में सरकार किसी प्रकार की बाधा नहीं डालेगी।
3. संविधान को उन भागों में लागू किया जायेगा जो उसे लागू करना चाहेंगे।
4. इस योजना के अनुसार भारत को दो अधिराज्यों में बाँट दिया जायेगा; भारत और पाकिस्तान दोनों को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता दे दी जायेगी।
5. यह तय किया गया कि बंगाल और पंजाब में विधान सभाओं के अधिवेशन दो भागों में किए जाएंगे। एक भाग में मुस्लिम बहुमत जिलों के प्रतिनिधि होंगे और दूसरे भाग में हिंदू बहुमत जिले के। प्रत्येक भाग बहुमत के आधार पर फैसला करेगा कि वह उस भाग का विधान चाहते हैं या नहीं। ।
6. सिंध का विधान-सभा तय करे कि वह. भारत की संविधान सभा में मिलना चाहती है या नहीं।
7. असम के मुस्लिम बहुल प्रांत सिलहट जिले में इस बात का निर्णय जनमत संग्रह द्वारा लिया जायेगा कि वहाँ की जनता समय में या पूर्वी बंगाल (बंगला देश) में रहना चाहती है।
8. बलूचिस्तान भी तय करे कि वह भारत में रहेगा या अलग। 9. उत्तर-पश्चिम प्रांत में जनमत द्वारा निर्णय होगा।
10. यदि बंगाल, पंजाब और असम के द्वारा भारत का विभजन मान लिया जाए तो भारत और पाकिस्तान की सीमाएँ तय करने के लिए गवर्नर जनरल एक कमीशन बनाएगा।
11. भारत और पाकिस्तान. राज्यों के बीच लेन-देन विभाजन के लिए भी समझौता होगा।
12. देशी रियासतों को भी भारत या पाकिस्तान में अपनी इच्छानुसार मिलने की छूट होगा।
13. भारत और पाकिस्तान को राष्ट्रमंडल की सदस्यता रखने या छोड़ने का अधिकार होगा।
Q.55. 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की मुख्य विशेषताओं पर विचार प्रकट
कीजिए।
Ans ⇒ भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 (India IndependenceAct, 1947) – माउंटबेटन योजना को 18 जुलाई को ब्रिटिश सम्राट ने विधिवत् स्वीकृति दे दी। इस अधिनियम में कुल 20 धारायें थीं। इनमें से कुछ प्रमुख धाराओं को नीचे बतलाया गया है
1. 15 अगस्त, 1947 को भारत और पाकिस्तान नामक दो हिस्से बना दिये जायेंगे और ब्रिटिश सरकार उन्हें सत्ता सौंप देगी।
2. दोनों अधिराज्यों का वर्णन किया गया और यह भी बतलाया गया कि बंगाल और पंजाब की विभाजन रेखा निश्चित करने के लिए एक सीमा आयोग होगा।
3. दोनों अधिराज्यों की संविधान सभाओं को शासन की सत्ता सौंपी जायेगी। इन्हें अपना संविधान बनाने का पूर्ण अधिकार होगा।
4. इन दोनों अधिराज्यों को अधिकार होगा कि वे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के सदस्य रहें या उसे त्याग दें।
5. दोनों के लिए अलग-अलग एक गवर्नर जनरल होगा जिसकी नियुक्ति उनके मंत्रिमंडल की सलाह से होगी।
6. इन हिस्सों के विधानमंडल को कानून बनाने का अधिकार होगा। 15 अगस्त, 1947 १ बाद ब्रिटिश सरकार का इन पर कोई अधिकार न होगा, न ही उसका कोई कानून लागू होगा।
7. भारत मंत्री का पद समाप्त कर दिया जायेगा।
8. जब तक दोनों संविधानों का निर्माण हो तब तक दोनों हिस्सों और प्रांतों का शासन 1935 के भारत शासन अधिनियम के अनुसार चलेगा, परंतु इन पर गर्वनर जनरल, प्रांतीय गवर्नर का कोई विशेषाधिकार न रहेगा।
9. जब तक नए विधान के अनुसार चुनाव होंगे, वर्तमान प्रांतीय विधानमंडल कार्य करेंगे।
10. 15 अगस्त, 1947 से ब्रिटिश सरकार की देशी रियासतों पर सर्वोच्चता को समाप्त कर दिया जायेगा। इसके पश्चात् देशी रियासतें नवीन अधिराज्यों से अपने राजनीतिक संबंध स्थापित करने में स्वतंत्र होंगी। अब वे इच्छानुसार भारत और पाकिस्तान में चाहे मिल सकती हैं अथवा स्वतंत्र रह सकती हैं।
11. भारतीय नागरिक सेवाओं के सदस्य अधिकारों को बनाए रखा जाए।
Q.56. भारत का विभाजन क्यों हुआ ? अथवा, 1947 में भारत के विभाजन के कारणों का उल्लेख कीजिए।
Ans ⇒ कई नेताओं के न चाहने पर भी भारत विभाजन को रोका नहीं जा सका। इसके लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी थे –
1. सन् 1909 के कानून में मुसलमानों के लिए निर्वाचन का अधिकार देकर अंग्रेजों ने उन्हें हिन्दुओं से अलग करने का प्रयास किया। ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति से मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग भी और तेजी से बढ़ती गई।
2. काँग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ सदा समझौता करने की नीति अपनाई। इससे मुस्लिम लीग को यह आशा हो गई कि यदि वह अपनी माँग पर डटी रही, तो एक न एक दिन पाकिस्तान की माँग मान ली जाएगी।
3. मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना की हठधर्मिता के कारण हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे, अत: विवश होकर भारत का विभाजन स्वीकार कर लिया गया।
4. साम्प्रदायिक दंगों ने स्थान-स्थान पर नेताओं और जनता को अत्याचार बंद करने को लाचार कर दिया था, अन्यथा पूरा देश रक्त के सागर में डूब जाता।
5. सन् 1946 में अंतरिम सरकार में शामिल होने पर मुस्लिम लीग ने काँग्रेस की योजनाओं में रुकावट डालनी प्रारम्भ कर दी। काँग्रेस के नेताओं को भी लगने लगा कि वे मुस्लिम लीग पार्टी के साथ मिलकर सरकार नहीं चला पाएँगे।
6. लार्ड माउंटबेटन भारत में राजनैतिक समस्याओं को सुलझाने के लिए यहाँ का वायसराय बनकर आया था। उसने अपने प्रभाव से काँग्रेस पार्टी को विभाजन के लिए तैयार कर लिया था।
Q.57. Discuss the role of Mahatma Gandhi in the Indian National Movement. (भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के योगदान का वर्णन करें।) –
Ans ⇒ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महात्मा गाँधी की भमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में इनका स्थान सर्वोच्च है। भारत की स्वाधीनता उन्हीं की भूमिका का फल है। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में एक नये युग का निर्माण किया और जीवन के अंतिम क्षण तक देश सेवा तथा राष्ट्रीय आंदोलन का पथ-प्रदर्शन करते रहे। इसी कारण उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाता था। वे शांति के दूत थे। सत्य और अहिंसा उनके हथियार थे। उनका आंदोलन इसी पर आधारित था।
वैसे तो 1914 ई० में उन्होंने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया था लेकिन 1919 ई. में अत्यंत प्रभावशाली ढंग से राष्ट्रीय आंदोलन को प्रभावित करना शुरू किया और अन्त तक राष्ट्रीय आंदोलन के प्राण बने रहे। 1920 ई. से 1947 ई. तक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर उन्हीं के हाथों में रही। इस अवधि में राष्ट्रीय संग्राम के सर्वोच्च नेता के रूप में भारतीय राजनीति का उन्होंने मार्ग दर्शन किया, उसने साधन दिये, उसको नया दर्शन दिया और उसे सक्रिय बनाया। इसी कारण इस अवधि को ‘गाँधी युग’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने असहयोग आन्दोलन करते हुए भारत को स्वतंत्रता दिलाई। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को जन-आंदोलन का रूप दिया।
1919 ई. में उन्होंने ‘रॉलेट ऐक्ट’ के विरोध स्वरूप देश व्यापी आंदोलन छेड़ा। जालियाँवाला बाग कांड के बाद आंदोलन को और तीव्र रूप दिया। उन्होंने खिलाफत आंदोलन में भाग लेकर मुसलमानों का दिल जीत लिया। वे हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य और अस्पृश्यता के पक्के विरोधी हो
वे क्रांतिकारी तथा आतंकवादी आंदोलन के भी विरोधी थे।
1 अगस्त, 1920 ई. को अंग्रेजी राज्य का अंत करने के लिए ‘असहयोग आंदोलन’ केटा जिसके तहत विद्यार्थियों ने स्कूल, कॉलेज छोड़ा, वकीलों ने वकालत छोड़ी तथा कई लोग नौक छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े। वे अहिंसा के इतने बड़े पोषक थे कि जब 1922 ई. में चौरा-चौरी काँड में थाने में आग लगाकर 22 सिपाहियों की हत्या कर दी गई तो दुखित होकर उन्होंने आंदोलन को स्थगित कर दिया । गाँधीजी को कैद कर जेल भेज दिया गया। बाद में अस्वस्थता के आधार पर 1924 ई. में उन्हें जेल से रिहा किया गया।
1927 ई. में जब साइमन कमीशन (जिसके सभी सदस्य अंग्रेज थे) भारत की राजनीतिक स्थिति का जायजा लेने भारत आया तो गाँधीजी के नेतृत्व में समूचे देश में इसका बहिष्कार किया गया। 1930 ई० में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ शुरू किया गया। मार्च 1930 ई. में ‘दांडी यात्रा’ कर नमक कानून को तोड़ा और उस कानून में संशोधन के लिए सरकार को बाध्य किया। दिसम्बर 1931 ई. में गाँधीजी गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने इंगलैंड गये। इसकी असफलता पर इंगलैंड से लौटकर 1932 ई. में पुनः सविनय अवज्ञा आन्दोलन चालू कर दिया।
8 अगस्त 1932 ई० को ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘साम्प्रदायिक निर्णय’ की घोषणा के विरुद्ध गाँधीजी ने 20 सितम्बर 1932 ई. में आमरण अनशन शुरू कर दिया। गाँधीजी का जीवन बचाने के लिए गणमान्य नेताओं ने बैठकर एक समझौता किया (जिसमें हरिजन नेता डॉ. अम्बेदकर भी थे), जिसे ‘पूना समझौता’ कहा जाता है। 26 सितम्बर 1932 ई. को. इसपर गाँधीजी की मुहर लग गई और तब गाँधीजी ने अपना अनशन तोड़ा।
उसके बाद उन्होंने सारा ध्यान सक्रिय राजनीति से हटाकर हरिजनों की सेवा और उनक उत्थान में लगाया। उन्होंने 1934 ई. के बम्बई अधिवेशन में काँग्रेस से त्याग-पत्र दे दिया लेकिन 1935 ई. से वे पुनः सक्रिय राजनीति में दिलचस्पी लेने लगे। 1940 ई. में गाँधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के समय अंग्रेजों ने सत्ता हस्तांतरण का प्रलोभन देकर भारतीयों का सहयोग प्राप्त किया था लेकिन जब अंग्रेज अपने वादे से मकरने लगे तो 7 अगस्त, 1942 ई. को गाँधीजी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया और आंदोलन शरू कर दिया। 8 अगस्त, 1942 ई. को गाँधीजी सहित कई नेताओं को कैद कर लिया गया। उसी समय उनका पत्ता कस्तूरबा बाई का देहान्त हो गया। मई 1944 ई. में अस्वस्थता के कारण उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया।
1946 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग दुहराई। कई जगह साम्प्रदायिक दंगे हुए। पर्वी बंगाल में यह दंगा भीषण रूप धारण कर लिया। गाँधीजी ने घूम-घूमकर साम्प्रदायिक एकता बनाये रखने की अपील की। नवम्बर 1946 ई. से फरवरी 1947 ई. तक गाँधीजी ने बंगाल के नोखाअली जिले में गाँव-गाँव घूमकर दंगा पीडितों की सेवा की और सहायता कर साम्प्रदायिक अग्नि को शांत करने की कोशिश की। मार्च 1947 ई. से मई 1947 तक बिहार के दंगा पीड़ित क्षेत्रों का दौरा किया। जब वे कलकत्ता में दंगा की आग बुझा रहे थे उसी समय ‘माउन्टबेटन योजना’ के अन्तर्गत 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत को आजाद कर दिया गया। 30 जनवरी 1948 ई० को बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे नामक एक युवक ने प्रार्थना सभा में उन्हें गोलियों का शिकार बना दिया। इस घटना से सम्पूर्ण विश्व मर्माहत हो गया।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में गाँधीजी की भूमिका अत्यंत ही महत्वपूर्ण रही जिसे देश कभी भुला नहीं सकता है। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक बनाया तथा जन-आंदोलन का रूप दिया। उन्होंने शांति, सत्य तथा अहिंसा को आधार बनाकर आंदोलन को एक नया रूप दिया। उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए असहयोग, सविनय अवज्ञा आंदोलन जैसे सकारात्मक कार्यक्रमों को अपनाया। उन्होंने स्वतंत्रता का बिगुल बजाकर जनता में जागृति पैदा कर उसमें नई जान फूंक दी और लोग मुक्ति हेतु उद्यत हो गये। उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग में आये संकटों तथा गतिरोधों को दूर कर आंदोलन की दिशा प्रदान की। इस प्रकार उनकी देन सर्वोपरि एवं अमूल्य है। देश को आजादी दिलाने में उनका सर्वोपरि स्थान है। माउन्टबेटन ने कहा था ‘जिस कार्य को पचास हजार हथियारबन्द सिपाही नहीं कर सके, उसको गाँधीजी ने कर दिखाया, उन्होंने वहाँ शान्ति की स्थापना की। वे अकेला हजारों के समान हैं।”
Q.58. आधुनिक भारत के निर्माण में डॉ बी० आर० अम्बेडकर की देनों का मूल्यांकन कीजिए।
Ans ⇒ डॉ. भीमराव अंबेडकर उस तेजपुंज का नाम है जो प्रकाश ही प्रकाश देता है, लेकिन जलाता नहीं। जीवन को समरसता से ग्रहण करते एवं विसंगतियों से संघर्ष करते हुए अपनी निन्दा एवं स्तुति से आत्मशोध की यात्रा में सदा अग्रसर होने वाले महान सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतक बाबा साहब अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 ई. में महाराष्ट्र के महू नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम रामजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। ये अपने माता-पिता के चौदहवीं संतान थे। ये महार जाति के थे और उस समय महार को अछूत समझा जाता था। अम्बेडकर ने बचपन से ही अछूत होने की पीड़ा को भोगा था और उनका बाल-मन उसी काल से इस दुर्व्यवस्था से आक्रांत हुआ था। मानवमात्र की सेवा में अपने को समर्पित करने वाला व्यक्तित्व दलितों, दुखियों, शोषितों एवं पीड़ितों की दर्दभरी मूक भाषा को अमर स्वर प्रदान करने वाला महामानव समाज में कभी-कभी ही आविर्भूत होता है और वह जन-जन के मन में परमेश्वर की तरह आराध्य बन जाता है। अम्बेडकर उन्हीं प्रतिभाओं में से एक थे।
बचपन से ही ये मेधावी और गहन चिंतक छात्र थे। चौदह वर्ष की उम्र में ही इनका विवाह रामाबाई से हो गया। इसके बाद वे पिता के साथ 1905 ई. में मुम्बई आ गए और 1907 ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की। 1912 ई. में इन्होंने बी. ए. की परीक्षा पास की। ये उच्च शिक्षा के लिए लालायित थे पर आर्थिक कठिनाई रास्ते में रूकावट बनी हुई थी। बडौदा नरेश ने मेधावी छात्र की प्रतिभा को कुंठित होते हुए देखा, तो उन्होंने आर्थिक सहायता देना स्वीकार किया। 1913 ई. में अम्बेडकर बडौदा नरेश की सहायता से अमेरिका चले गये। 1915 में इन्होंने वहाँ एम० ए० की डिग्री प्राप्त की और 1916 ई. में इन्हें पी-एच. डा० का डिग्री से सम्मानित किया गया। इसके बाद वे इंगलैण्ड और जर्मनी भी गए जहा उन्हाने जा एस. और ‘बारर एट लॉ’ की डिग्री प्राप्त की। यहीं पर अम्बेडकर ने संसदात्मक प्रजातत्र उदारवादी प्रजातंत्र पर गहन अध्ययन किया। इसी अध्ययन-क्रम में वे संसारभर के देशों के संविधानों से परिचित हुए।
अपने देश लौटने पर इन्होंने 1920 ई० में कोल्हापुर के महाराजा की सहायता से ‘मूक नन्ह’ नामक पत्रिका का सम्पादन आरंभ किया, जिसमें सामाजिक विकृतियों पर करारा प्रहार किया। सन् 1923 से 1931 तक का समय अम्बेडकर के लिए कठोर संघर्ष और अभ्युदय का था। इसी बीच वे दलितों के नेता एवं प्रवक्ता के रूप में उभरकर सामने आए। इन्होंने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और अंग्रेज शासक से दलितों की गई माँग भारतीय दलितों
को इन्होंने कहा-शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित रहो।
1935 ई० में इनकी धर्मपत्नी का देहांत हो गया। इसी साल इन्होंने धर्म परिवर्तन की घोषणा की। इन्होंने बहिष्कृत हितकारी सभा, सिद्धांत महाविद्यालय एवं स्वतंत्र मजदूर की स्थापना की। 1946 ई. तक अम्बेडकर की ख्याति देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गयी थी। 1947 ई. में नेहरूजी के मंत्रिमंडल में इन्हें कानून मंत्री बनाया गया। 21 अगस्त, 1950 ई० को इन्होंने भारत का संविधान राष्ट्र को समर्पित कर दिया। इसी साल वे कोलम्बो गए और दिल्ली में अम्बेडकर भवन का शिलान्यास किया। 1956 ई. में उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और 6 दिसम्बर, 1956 ई. को ही इस महामानव का महापरिनिर्वाण हुआ।
वे अछूतों और दलितों के मसीहा, उद्धारकर्ता और पथ-प्रदर्शक थे। 1990-91 ई. में इनकी जन्म-शताब्दी धूम-धाम से मनायी गयी और भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई। दलितों को समान अधिकार देना और उनका यथोचित उत्थान करना ही बाबा साहब की सच्ची श्रद्धांजलि होगी। भारत के दलितों एवं पीड़ितों को उन्होंने जो जीवन-संदेश दिया था-‘उठकर आगे बढ़ो’ आज उससे सबों के हृदयतंत्र झंकृत हो रहे हैं और उनमें से मधुर संगीत का स्वर फुट रहा है।
Q.59. संविधान सभा का गठन कैसे हुआ? संविधान सभा में उठाये गये महत्वपूर्ण मुद्दों का उल्लेख करें।
Ans ⇒ भारतीय संविधान (Indian Constitution) – भारतीय संविधान का निर्माण 26 नवम्बर 1949 ई. को हुआ। इसका निर्माण एक संविधान सभा ने किया जिसका निर्वाचन 1946 ई. की कैबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत हुआ था। संविधान सभा के कुल 296 सदस्यों में से 211 काँग्रेस के तथा 73 मुस्लिम लीग के थे। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 ई० को डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा की अध्यक्षता में हुई। 11 दिसम्बर, 1946 ई. को स्थायी अध्यक्ष चुने गये। इसके बाद एक संविधान प्रारूप समिति बनायी गयी जिसके अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे। 26 नवम्बर, 1949 ई. को 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन के बाद संविधान बनकर तैयार हुआ और इसे 26 जनवरी, 1950 ई. को लागू किया गया।
संविधान का स्वरूप तैयार करने वाली ऐतिहासिक ताकतें –
(i) संविधान का स्वरूप तय करने वाली प्रथम ऐतिहासिक ताकत भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस थी जिसने देश के संविधान को लोकतांत्रिक गणराज्य, धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने में भूमिका अदा की थी।
(ii) मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन को बढ़ावा दिया परंतु उदारवादी मुसलमान और वे मुस्लिम जो भारत विभाजन के विरोधी थे और विभाजन के बाद भी विभिन्न दबाव समूहों या राजनैतिक दलों से जुड़े रहे, उन्होंने भी भारत को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने तथा सभी नागरिकों को अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाये रखने में संविधान के माध्यम से आश्वस्त किया।
(iii) दलित या तथाकथित दलित और हरिजनों के समर्थक नेताओं ने संविधान को कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समानता और न्याय दिलाने वाला आरक्षण की व्यवस्था करने वाला, छुआछूत का उन्मूलन करने वाला स्वरूप प्रदान करने में योगदान दिया।
(iv) समाजवादी विचारधारा या वामपंथी विचारधारा वाले लोगों ने संविधान में समाजवादी ढाँचे की सरकार बनाने, भारत को कल्याणकारी राज्य बनाने और धीरे-धीरे समान काम के लिए समान वेतन, बंधुआ मजदूरी समाप्त करने, जमींदारी उन्मूलन आदि की व्यवस्थायें करने के लिए वातावरण या संवैधानिक व्यवस्थायें तय करने में योगदान दिया।
Q.60. संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला?
Ans ⇒ भाषा के विवाद को हल करने के उपाय (Methods or Measures to solve the Language Problem)-
(i) भारत प्रारंभ से ही एक बहत भाषा-भाषी देश है। देश के विभिन्न प्रांतों और हिस्सों में लोग अलग-अलग भाषाओं का प्रयोग करते हैं, बोलियाँ बोलते हैं। जिस समय संविधान सभा के समक्ष राष्ट्र की भाषा का मामला आया तो इस मुद्दे पर अनेक महीनों तक गरमा-गर्म बहस हुई, कई बार काफी तनाव पैदा हुए।
(ii) आजादी से पूर्व 1930 के दशक तक भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने यह स्वीकार कर लिया था कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का मानना था कि प्रत्येक भारतीय को एक ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिंदी और उर्दू के मेल से बनी हिंदुस्तानी भारतीय जनता की बहुत बड़े हिस्से की भाषा थी और अनेक संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।
(iii) जैसे-जैसे समय बीता, हिंदुस्तानी भाषा ने अनेक प्रकार के स्रोतों से नए-नए शब्द अपने में समा लिए और उसे आजादी के आने तक बहुत सारे लोग समझने लगे। गाँधीजी को ऐसा लगता था कि यही भाषा देश के समुदायों के बीच आचार-विमर्श का माध्यम बन सकती है। हिंदू और मुस्लमानों को एकजूट कर सकती है।
(iv) दुर्भाग्यवश हिंदी और उर्दू पर साम्प्रदायिकता, साम्प्रदायिक दंगों और साम्प्रदायिकता से प्रेरित राजनीति और धार्मिक संकीर्णता का कुप्रभाव पड़ने लगा। हिंदी और उर्दू परस्पर दूर होती जा रही थी। मुसलमान फारसी और उर्दू से ज्यादा से ज्यादा शब्द हिंदी से मिला रहे थे तो अनेक हिंदू भी संस्कृतनिष्ठ शब्दों को ज्यादा से ज्यादा हिंदी में ले रहे थे। परिणाम यह हुआ कि भाषा भी धार्मिक पहचान का राजनतिक हिस्सा बन गई। लेकिन महात्मा गाँधी जैसे महान नेताओं के हिंदुस्तानी (भाषा) के साझे चरित्र में आस्था कम नहीं हुई।
(v) संयुक्त प्रांत के एक काँग्रेसी सदस्य आर० वी० धुलेकर ने आवाज उठाई थी, हिंदी को संविधान बनाने की भाषा के रूप में प्रयोग किया जाए। धुलकर ने उन लोगों का विरोध किया जिन्होंने यह तर्क दिया कि संविधान सभा के सभी सदस्य हिंदुस्तानी भाषा नहीं समझते।
आर० वी० धुलेकर ने कहा था, “इस सदन में जो लोग भारत का संविधान रचने बैठे हैं और हिंदुस्तानी नहीं जानते वे इस सभा की सदस्यता के पात्र नहीं हैं। उन्हें चले जाना चाहिए।
(vi) धुलकर की टिप्पणियों से संविधान सभा में हंगामा खड़ा हो गया। अंत में जवाहरलाल के हस्तक्षेप से संविधान सभा में शांति स्थापित हुई। लगभग तीन वर्षों के बाद 12 सितम्बर, 1947 को राष्ट्र की भाषा के प्रश्न पर आर. वी. धुलेकर के भाषण ने एक बार फिर तूफान खड़ा कर दिया। तब तक संविधान सभा की भाषा समिति अपनी रिपोर्ट पेश कर चुकी थी। समिति ने राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर हिंदी के समर्थकों और विरोधियों के बीच पैदा हो गए गतिरोध को तोड़ने के लिए फार्मूला विकसित कर लिया था। समिति ने सुझाव दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी भारत की राजकीय भाषा होगी परंतु इस फार्मूले को समिति ने घोषित नहीं किया था।
(vii) भाषा संबंधी समिति का यह विचार था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के मामले में हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए।
(viii) कुछ लोगों का विचार था कि संविधान लागू होने के बाद लगभग पंद्रह वर्षों के बाद तक ब्रिटिश काल की तरह सरकारी कामकाज में अंग्रेजी को जारी रखा जाए। हर प्रांत को अपने कार्यों के लिए कोई एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा। संविधान सभा की समिति ने हिंदी को राष्ट्रभाषा की बजाय राज भाषा कहकर विभिन्न पक्षों की भावना को शांत करने और सर्वस्वीकृत समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया था।
(ix) आर० बी० धुलेकर ने उन लोगों का मजाक उड़ाया जो गाँधी का नाम लेकर हिंदी की बजाय हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा बनाना चाहते थे। मद्रास के सदस्य श्रीमती दुर्गाबाई ने आर० बी० धुलेकर के वक्तव्य पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि, “अध्यक्ष महोदय, गैर हिंदी भाषायी क्षेत्रों के लोगों को यह महसूस कराया जा रहा है कि भाषा संबंधी झगड़ा या हिंदी भाषा क्षेत्रों का यह दृष्टिकोण वस्तुतः एक राष्ट्र की सांझी संस्कृति पर भारत की दूसरी उन्नत भाषाओं के स्वाभाविक प्रभाव को रोकने की लड़ाई बनाई जा रही है।” उन्होंने आगे कहा हिंदी के लिए हो रहा यह प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़ें खोदने के प्रयास के तुल्य हैं।”
अंतत: कुछ सदस्यों ने दक्षिण भारत से जिनमें महाराष्ट्र, मद्रास आदि के सदस्यों के प्रयासों से सम्पूर्ण सदस्यों को यह अहसास करा दिया कि हिंदी के लिए जो भी किया जाए, बड़ी सावधानी से किया जाए तभी इस भाषा का भला हो जाएगा। सभी सदस्यों ने हिंदी की हिमायत को स्वीकार किया लेकिन इनके वर्चस्व को अस्वीकार कर दिया।
कालांतर में देश की सभी क्षेत्रीय भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया। शिक्षा के क्षेत्र में राष्टभाषा बनाए जाने के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेजी को वर्षों तक सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया। हिंदी अधिकांश राज्यों की प्रमुख भाषा है लेकिन इसका प्रचार अब लोकतांत्रिक ढंग से स्वयं होता जा रहा है। जनसंचार माध्यम, दूरदर्शन, रेडियो, प्रेस, साहित्य, फिल्में इसके प्रचार-प्रसार में प्रशंसनीय योगदान दे रहे हैं।