10. जूठन प्रश्न ( लघु उत्तरीय प्रश्न एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )
1. विद्यालय में लेखक के साथ कैसी घटनाएँ घटती हैं ?
उत्तर ⇒ विद्यालय में लेखक के साथ बड़ी ही दारुण घटनाएँ घटती है। बाल सुलभ मन पर बीतने वाली हृदय विदारक घटनाएँ लेखक के मन:पटल पर आज भी अंकित है। विद्यालय में प्रवेश के प्रथम ही दिन हेडमास्टर बड़े बेदब आवाज में लेखक से उनका नाम पूछता है। फिर उनकी जाति का नाम लेकर तिरस्कृत करता है। हेडमास्टर लेखक को एक बालक नहीं समझकर उसे नीची जाति का कामगार समझता है और उससे शीशम के पेड़ की टहनियों का झाडू बनाकर पूरे विद्यालय को साफ करवाता है। बालक की छोटी उम्र के बावजूद उससे बड़ा मैदान भी साफ करवाता है, जो काम चूहड़े जाति का होकर भी अभी तक उसने नहीं किया था। दूसरे दिन भी उससे हेडमास्टर वही काम करवाता है। तीसरे दिन जब लेखक कक्षा के कोने में बैठा होता है, तब हेडमास्टर उस बाल लेखक की गर्दन दबोच लेता है तथा कक्षा से बाहर लाकर बरामदे में पटक देता है। उससे पुराने काम को करने के लिए कहा जाता भी लेखक के पिताजी अचानक देख लेते हैं। उन्हें यह सब करते हुए बेहद तकलीफ होती है और वे हेडमास्टर से बकझक कर लेते हैं।
2. दिन रात मर खप कर भी हमारे पसीने की कीमत मात्र जूठन’, फिर भी किसी को शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं। ऐसा क्यों ? सोचिए और उत्तर दीजिए।
उत्तर ⇒ जब समाज की चेतना मर जाती है, अमीरी और गरीबी का अंतर इतना बड़ा हो जाता है कि गरीब को जूठन भी नसीब नहीं हो, धन-लोलुपता घर कर जाती है, मनुष्य-मात्र का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। सृष्टि की सबसे उत्तम कृति माने जाने वाले मनुष्य में मनुष्यत्व का अधोपतन हो जाता है, श्रम निरर्थक हो जाता है, उसे मनुष्यत्व की हानि पर कोई शर्मिंदगी नहीं होती है, कोई पश्चाताप नहीं रह जाता है।
कुरीतियों के कारण अमीरों ने ऐसा बना दिया कि गरीब की गरीबी कभी न जाए और अमीर की अमीरी बनी रहे। यही नहीं, इस क्रूर समाज में काम के बदले जूठन तो नसीब हो . जाती है परन्तु श्रम का मोल नहीं दिया जाता है। मिलती हैं सिर्फ गालियाँ। शोषण का एक
चक्र है जिसके चलते निर्धनता बरकरार रहे। परन्तु जो निर्धन है, दलित है उसे जीना है संघर्ष करना है इसलिए उसे कोई शिकायत नहीं, कोई शर्मिंदगी, कोई पश्चाताप नहीं।
3. सरेन्द्र की बातों को सुनकर लेखक विचलित क्यों हो जाते हैं ?
उत्तर ⇒ सुरेन्द्र के द्वारा कहे गये वचन “भाभीजी, आपके हाथ का खाना तो बहुत जायकेदार है। हमारे घर में तो कोई भी ऐसा खाना नहीं बना सकता है” लेखक को विचलित कर देता है। सुरेन्द्र के दादा और पिता के जूठों पर ही लेखक का बचपन बीता था। उन जूठों की कीमत थी दिनभर की हाड़-तोड़ मेहनत और भन्ना देने वाली दुर्गन्ध और ऊपर से गालियाँ, धिक्कार।
सुरेन्द्र की बड़ी बुआ की शादी में हाड़-तोड़ मेहनत करने के बावजूद सुरेन्द्र के दादाजी ने उनकी माँ के द्वारा एक पत्तल भोजन माँगे जाने पर कितना धिक्कारा था। उनकी औकात दिखाई थी, यह सब लेखक की स्मृतियों में किसी चित्रपटल की भाँति पलटने लगा था।
आज सुरेन्द्र उनके घर का भोजन कर रहा है और उसकी बड़ाई कर रहा है। सुरेन्द्र के द्वारा कहा वचन स्वतः स्फूर्त स्मृतियों में उभर आता है और लेखक को विचलित कर देता है।
4. घर पहुंचने पर लेखक को देख उनकी माँ क्यों रो पड़ती है ?
उत्तर ⇒ लेखक अपने बाल समय में अपने परिवार का सबसे ज्यादा दुलारा था। उसके घर का हर सदस्य गालियाँ खाकर भूखे सोना पसन्द कर सकता था लेकिन अपने लाड़ले को अपने घृणित पेशे में लाना नामंजूर था। लेखक के द्वारा मजबूरीवश उन्हीं पेशे में आने पर उनकी
माँ रो पड़ती है।
वह अपनी बेवसी, लाचारी और दुर्दशा पर रोती है। वह समाज की उन तथाकथित रईसों पर रोती है। वह समाज की उन कुरीतियों पर रोती है, जो उन्हें इस हाड़-तोड़ घृणित पेशे के बावजूद जूठन पर जीने को मजबूर करती है। वह उसे क्रूर समाज की विडंबनाओं पर रोती है, जहाँ श्रम का कोई मोल नहीं है, जहाँ निर्धनता को बरकरार रखने का षड्यंत्र रचा गया है।
5. पिताजी ने स्कूल में क्या देखा ? उन्होंने आगे क्या किया? पूरा विवरण अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर ⇒ लेखक ओमप्रकाश के पिता अचानक तीसरे दिन विद्यालय के सामने से जा रहे थे कि बेटे ओम प्रकाश को विद्यालय के मैदान में झाडू लगाते देखकर ठिठक गये और वहीं से आवाज लगाई। ओमप्रकाश जिसे मुंशीजी कहकर वे सम्बोधित करते थे। पूछते हैं कि मुंशीजी ये क्या कर रहा है ? उन्हें देखकर लेखक फफक-फफककर रोने लगता है। इतने में उनके पिताजी सड़क से मैदान में उसके समीप पहुँचकर, पुचकार कर पूछते हैं तो लेखक पिता को सारी बात बताते हुए कहता है-तीन दिन से रोज झाडू लगवा रहे हैं। कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते।”
इतना सुनकर पिता ने पुत्र के हाथ से झाडू छीन कर दूर फेंक दिया। उनकी आँखों में आग की गर्मी उतर आयी। हमेशा दूसरे के सामने कमान बने रहनेवाले पिता की लंबी-लंबी मूंछे गुस्से में फड़कने लगीं और चीखते हुए बोले “कौन-सा मास्टर है वो, जो मेरे लड़क से झाडू लगवावे है…….”।
लेखक ओमप्रकाश के पिताजी की आवाज पूरे स्कूल में गूंज रही थी, जिसे सुनकर हेडमास्टर के साथ सभी मास्टर लोग भी बाहर आ गये और हेडमास्टर ने गाली देकर उसके पिता को धमकाया। किन्तु धमकी का कोई असर न दिखाते हुए लेखक के पिता ने पूरे साहस
और हौसले से और उच्च स्वर में हेडमास्टर कालीराम का सामना किया और इस घटना का लेखक पर ऐसा असर हुआ कि लेखक कभी भूल नहीं पाया।
6. बचपन में लेखक के साथ जो कुछ हुआ, आप कल्पना करें कि आपके साथ भी हुआ हो-ऐसी स्थिति में आप अपने अनुभव और प्रतिक्रिया को अपनी भाषा में लिखिए।
उत्तर ⇒ “जुठन” शीर्षक आत्मकथा के माध्यम से लेखक और ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने बचपन के जो अनुभव प्रस्तुत किये हैं भारतीय समाज के लिये एक चिन्ता का विषय है। बचपन ईश्वर का दिया हआ एक अद्वितीय उपहार है। बचपन में बालक निश्छल एव सरल होता है। जीवन का यह बहमल्य समय शिक्षा ग्रहण एवं बडों द्वारा लाड़-प्यार की प्राप्ति का अवसर है। ऐसे में किसी बालक को दलित अछुत समझ कर प्रताड़ित करना समाजविराधा, मानवताविरोधी एवं राष्ट्रविरोधी कार्य है।
लेखक के साथ उनके बचपन में जो घटनायें घटी वे घोर निंदनीय हैं। अगर मैं उनकी जगह बालक होता तो मेरे मन में वही प्रभाव पड़ता जो लेखक के दिलोदिमाग पर पड़ा।
मैं लेखक की भावनाओं का आदर करता हूँ। समाज की कुरीतियाँ शीघ्र दूर होनी चाहिये। मानव-मानव में भेद करना ईश्वर को अपमानित करने जैसा है।
7. किन बातों को सोचकर लेखक के भीतर काँटे जैसा उगने लगते हैं ?
उत्तर ⇒ “जूठन’ शीर्षक आत्मकथा में लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने प्रस्तुत पंक्तियों में अपने बचपन की गरीबी, समाज में व्याप्त भेदभाव उपेक्षा तथा प्रताड़ना का बड़ा ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है।
लेखक का पूरा परिवार गाँव में मेहनत-मजदूरी का काम करता था जिसमें एक-एक घर में 10-15 मवेशियों का काम, बैठकखाने की सफाई का काम करना पड़ता था। सर्दी के महीनों में यह काम और कठिन हो जाता था, क्योंकि प्रत्येक घरों से मवेशियों के गोबर उठाकर गाँव से बाहर कुरड़ियों पर या उपले बनाने की जगह तक पहुँचाना पड़ता था। इन सब कामों – के बदले दो जानवर पीछे 25 सेर (20-22 किलो) अनाज ही मिलता था। दोपहर में बची-खुची रोटी ही मिलती थी। खासतौर पर चूहड़ों को देने के लिये आटे में भूसी मिला कर बनाई जाती थी। कभी-कभी जूठन भी भंगन की टोकरी में डाल दी जाती थी।
शादी-ब्याह के मौके पर जूठे पत्तल चूहड़ों (अछूतों) के टोकरे में डाल दिये जाते थे, जिन्हें घर ले जाकर वे जूठन इकट्ठी कर लिया करते थे। पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े जो बचे होते थे उन्हें चरपाई पर कोई कपड़ा डालकर उस पर सुखा कर रख लिये जाते थे। मिठाइयाँ जो इकट्ठी होती थी वे कई-कई दिनों तक अथवा बड़ी बारातों की मिठाइयाँ कई-कई महीने तक आपस में चर्चा कर-करके खाते रहते थे। सुखी हुई पूरियाँ की लुग्दी बनाकर अथवा उबाल कर मिर्च-मसाले डालकर खाने में क्या मजा आता था। आज जब इन सब बातों के बारे में लेखक सोचता है तो “मन के भीतर काँटे जैसा उगने लगता है। कैसा जीवन था।”
S.N | हिन्दी ( HINDI ) – 100 अंक [ गध खण्ड ] |
1. | बातचीत |
2. | उसने कहा था |
3. | संपूर्ण क्रांति |
4. | अर्धनारीश्वर |
5. | रोज |
6. | एक लेख और एक पत्र |
7. | ओ सदानीरा |
8. | सिपाही की माँ |
9. | प्रगीत और समाज |
10. | जूठन |
11. | हँसते हुए मेरा अकेलापन |
12. | तिरिछ |
13. | शिक्षा |