Class 12th Economics Question paper 2022 ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर ) ( 20 Marks ) PART- 1
1. पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण कैसे होता है ? (How is price determination under perfect competition ?)
उत्तर⇒ मार्शल के अनुसार “पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में किसी वस्तु का मूल्य उस वस्तु की माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा निर्धारित होती है।”
मार्शल के अनसार ही “कैंची की दोनों पत्तियों से कपडा काटने का काम होता है। किंत यह नहीं कहा जा सकता है कि इसमें से केवल ऊपर वाली या केवल नीचे वाली पत्ती ही कपड़ा काटने का काम कर रही है। उसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि मूल्य का निर्धारण अकेले केवल माँग (उपयोगिता) के द्वारा या अकेले केवल पूर्ति (उत्पादन लागत) के द्वारा ही होता है।
एक उदाहरण द्वारा देखा जा सकता है –
मूल्य | वस्तु की माँग | पूर्ति |
10 रुपये | 200 | 800 |
8 रुपये | 400 | 600 |
5 रुपये | 500 | 500 |
4 रुपये | 600 | 400 |
2 रुपये | 800 | 200 |
उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि 5 रुपये के मूल्य पर माँग एवं पूर्ति दोनों 500 हो जाते हैं अर्थात् दोनों में संतुलन स्थापित हो जाते हैं।
चित्र द्वारा उपर्युक्त उदाहरण को देखा जा सकता है-चित्र में DD माँग की रेखा और SS पूर्ति की रेखा है। दोनों रेखाएँ आपस में Pबिंदु पर मिलती है। इस बिंदु पर माँग एवं पूर्ति दोनों बराबर दो जाते हैं। इसे साम्य बिंदु कहा जाता है और इस बिंदु पर जो मूल्य निर्धारित होता है उसे साम्य मूल्य कहा जाता है।
इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में किसी वस्तु का मूल्य उस वस्तु की माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा इनके संतुलन बिंदु पर निर्धारित होता है।
2. सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम की व्याख्या करें। इस नियम के लागू होने के आवश्यक शर्त कौन-कौन सी है ? (Explain the law of Diminishing Marginal utility ? What are the necessary conditions for the operation of this law.)
उत्तर⇒ सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम जिसे आवश्यकता संतुष्टि का नियम कहते हैं। इसका प्रतिपादन आस्ट्रियन अर्थशास्त्री गोसेन ने किया था। मनुष्य की आवश्यकताएँ अनंत होती हैं किंतु इनमें से किसी भी एक आवश्यकता विशेष की पूर्ण रूप से संतुष्टि की जा सकती है। आवश्यकताओं की इसी विशेषता पर उपभोग का प्रमुख नियम सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम आधारित है।
सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम के अनुसार, “अन्य बातें पूर्ववत रहने पर जैसे-जैसे किसी वस्तु की अतिरिक्त इकाइयों का उपभोग किया जाता है वैसे-वैसे उनसे प्राप्त होने वाली अतिरिक्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है।”
मार्शल के अनुसार, “एक मनुष्य के पास किसी वस्तु की जितनी मात्रा हो उसमें निश्चित वृद्धि के फलस्वरूप उस व्यक्ति को जो अतिरिक्त उपयोगिता प्राप्त होती है वह उसकी मात्रा में होने वाली प्रत्येक वृद्धि के साथ कम होती जाती है।”
सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम को एक चित्र एवं तालिका द्वारा हम देख सकते हैं –
सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम के लागू होने के आवश्यक शर्त एवं मान्यताएँ
(Necessary conditions for the application of law of diminishing utility or Assumptions)
(i). वस्तु का उपभोग लगातार में होना चाहिए।
(ii). वस्तु की उपभोग इकाइयों का आकार पर्याप्त होना चाहिए।
(iii). सभी वस्तु इकाइयों का आकार व बनावट में एकसमान अथवा समरूप होनी चाहिए।
(iv). वस्तु के उपलब्ध स्थानापन्नों का मूल्य स्थिर होना चाहिए।
(v). उपभोक्ता की आय एवं उपभोग प्रवृत्ति स्थिर होनी चाहिए।
(vi). उपभोक्ता के फैशन, रुचि एवं स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
3. सम सीमांत उपयोगिता नियम क्या है ? (What is Law of Equi-Marginal Utility ?)
उत्तर⇒ सम-सीमांत उपयोगिता नियम वास्तव में उपयोगिता ह्रास नियम पर आधारित है। सम-सीमांत उपयोगिता का नियम मार्शल के नाम से जाना जाता है।
मार्शल ने सम-सीमांत उपयोगिता नियम की व्याख्या करते हुए कहा है— “यदि एक व्यक्ति के पास कोई ऐसी वस्तु है जिसे वह अनेक प्रयोगों में ला सकता है तो वह इन प्रयोगों के बीच इस प्रकार वितरण करेगा ताकि सभी प्रयोगों में इसकी सीमांत उपयोगिता बराबर रहे।”
मार्शल ने एक ऐसी वस्तु का जिक्र किया है जिसका की प्रयोग अनेक कार्यों में किया जा सकता है।
जब उपभोक्ता एक से अधिक वस्तुओं पर व्यय करता है तो सम-सीमांत उपयोगिता नियम के अनुसार उपभोक्ता को विभिन्न वस्तुओं पर इस प्रकार खर्च करना चाहिए कि विभिन्न वस्तुओं की सीमांत उपयोगिताएँ उनके मूल्य के आनुपातिक हो। उदाहरण के लिए यदि उपभोक्ता अपनी आय को केवल तीन वस्तुओं A, B एवं C पर खर्च करता है तो सम-सीमांत उपयोगिता नियम के अनसार, उपभोक्ता को अधिकतम संतोष तब प्राप्त होगा जब
इस नियम की व्याख्या एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है। किसी उपभोक्ता के पास छः रुपये है जिसे वह A, B और C पर खर्च करना चाहता है। यह मान लिया जाता है कि इन तीनों वस्तुओं को प्रत्येक इकाई का मूल्य एक रुपया है। इन वस्तुओं से उपभोक्ता को जो सीमांत उपयोगिता मिलती है इसे निम्न तालिका द्वारा देखा जा सकता है –
वस्तुओं की इकाइयाँ | A की सीमांत उपयोगिता | B की सीमांत उपयोगिता | C की सीमांत उपयोगिता |
1 | 30 | 25 | 15 |
2 | 20 | 15 | 10 |
3 | 15 | 5 | 5 |
4 | 10 | 3 | 3 |
5 | 8 | 2 | 2 |
तालिका से स्पष्ट है कि तीनों वस्तुओं की क्रमागत इकाइयों से प्राप्त सीमांत उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है क्योंकि सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम लागू होता है।
सम-सीमांत उपयोगिता नियम को चित्र द्वारा देखा जा सकता है-
4. कुल स्थिर लागत, कुल परिवर्तनशील लागत और कुल लागत का क्या अर्थ है ? इनके संबंध को समझाएं। (What are total fixed cost, total variable cost and total cost ? How are they related ?) .
उत्तर⇒ स्थिर लागत उत्पादन के आकार से अप्रभावित रहती है। उत्पादन स्तर शून्य होने पर भी उत्पादक को स्थिर लागतों का भुगतान वहन करना पड़ता है। चित्र द्वारा देख सकते हैं –चित्र में उत्पादन स्तर Oq अथवा Oq1 पर स्थिर लागत OK ही है। यही कारण है कि अल्पकाल में कुल स्थिर लागत रेखा X-अक्ष के समानान्तर एक पड़ी रेखा के रूप में होती है।
कुल परिवर्तनशील लागत – परिवर्तनशील लागत का आकार उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करता है। जैसे-जैसे उत्पादन के आकार के वृद्धि होती है। वैसे-वैसे परिवर्तनशील लागतों में भी वृद्धि होती है।चित्र द्वारा देख सकते हैं-
चित्र में TVC (Total variable cost) रेखा दिखाई गई है। शन्य उत्पादन स्तर पर परिवर्तनशील लागत शून्य होती है। चित्र में q1, q2, q3, q4, q5 उत्पादन स्तरों पर कुल परिवर्तनशील लागते क्रमशः k1q2, k2q2, k3q3, k4q4, k5q5, प्रदर्शित करती है जिससे स्पष्ट है कि TVC उत्पादन के आकार के साथ-साथ बढ़ती है।
कुल लागत (Total cost)
अल्पकाल में,
कुल लागत = कुल स्थिर लागत + कुल परिवर्तनशील लागत
TC = TFC + TVC
चित्र में TFC एवं TVC रेखाओं को जोड़कर कुल लागत रेखा प्राप्त की गई है।TC और TVC रेखाएँ परस्पर समानान्तर रूप से आगे बढ़ती है क्योंकि TC और TVC का अंतर TFC को बताता है और TFC सदा स्थिर होती है।
5. कुल आगम, सीमान्त आगम और औसत आगम को उदाहरण देकर समझाइए। (Explain Total Revenue, Marginal Revenue and Average Revenue with the help of illustrations.)
उत्तर⇒ कुल आगम (Total Revenue) – किसी फर्म का कुल आगम वस्तु की एक इकाई कीमत तथा कुल विक्रय की गयी इकाइयों के गुणनफल द्वारा प्राप्त किया जाता है।
कुल आगम = कुल बिक्री से प्राप्त राशि = बिक्री इकाइयाँ x प्रति इकाई मूल्य
उदाहरण—एक विक्रेता वस्तु की एक इकाई Rs. 10 में बेचता है और यदि वह कुल 500 इकाइयाँ बेचता है तब इस दशा में कुल आगम = 10 x 500 = Rs. 5000
सीमांत आगम (Marginal Revenue)—उत्पादक या फर्म को, वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई की बिक्री में जो अतिरिक्त आगम प्राप्त होता है, उसे सीमांत आगम कहते हैं।
यदि TRn-1 = (n-1) इकाइयों से प्राप्त कुल आगम
TRn = n इकाइयों से प्राप्त कुल आगम
MRn = TRn – TRn-1
औसत आगम (Average Revenue) — औसत आगम से मतलब उत्पादन की प्रति इकाई बिक्री से प्राप्त होने वाला आगम। इस प्रकार कुल आगम की बिक्री की गई इकाइयों की संख्या से भाग देने पर औसत आगम प्राप्त होता है।
AR= TR/Q
औसत आगम सदा वस्तु की प्रति इकाई की कीमत को व्यक्त करता है।
6. औसत लागत तथा सीमांत लागत के आपसी संबंध की चित्र की सहायता से व्याख्या करें। (Explain the relationship between Average cost and Marginal cost with the help of diagram.)
उत्तर⇒ औसत लागत (Average cost) औसत लागत से मतलब प्रति इकाई उत्पादन लागत से है। औसत लागत जानने के लिए कुल लागत को कुल उत्पादित इकाइयों से भाग कर दिया जाता है। जैसे—10 टेबुल की कुल उत्पादन लागत 1000 रु० है तो
सीमांत लागत (Marginal cost) — वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई उत्पन्न करने से कुल लागत में जो वृद्धि होती है उसे सीमांत लागत कहते हैं।
औसत लागत और सीमान्त लागत में संबंध – सीमांत लागत, औसत लागत में परिवर्तन लाता है न कि औसत लागत, सीमान्त लागत में परिवर्तन लाता है। औसत लागत और सीमान्त लागत दोनों कुल लागत से निकाले जाते हैं । कुल लागत को समस्त इकाइयों से भाग देकर औसत लागत निकाला जाता है वहां एक अतिरिक्त इकाई के उत्पादन से कुल लागत में होने वाली वृद्धि सीमांत लागत होती है। अतः यदि सीमांत लागत गिरती है तो यह औसत लागत को गिराती है और यदि सीमांत लागत बढ़ती है तो औसत लागत को ऊपर खींचती है जिससे औसत लागत बढ़ती है।
औसत लागत तथा सीमांत लागत के संबंध को चित्र द्वारा देखा जा सकता है –
चित्र से स्पष्ट है कि –
(i). जब तक MC, AC से कम है, तब तक AC वक्र गिरता है और MC वक्र, AC वक्र को उसके न्यूनतम बिन्दु पर काटने से पहले नीचे गिरता है (चित्र में B बिन्दु तक )(ii). जब MC वक्र गिरता है तो AC वक्र की तुलना में अधिक तेजी से गिरकर अपने न्यूनतम बिन्दु E पर पहुँच जाता है। उसके बाद MC वक्र E से B तक बढ़ता जाता है जबकि AC वक्र D से B तक अभी भी गिर रहा होता है।
(iii).उठता हुआ MC वक्र, AC वक्र को इसके न्यूनतम बिन्दु B पर काटकर ऊपर बढ़ता जाता है क्योंकि MC वक्र, AC वक्र के ऊपर है।
7. अर्थव्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों से आप क्या समझते हैं ? (What do you mean by primary sector, secondary sector and tertiary sector.)
उत्तर⇒ एक अर्थव्यवस्था की विभिन्न उत्पादकीय पहचान तथा वर्गीकरण है। विशाल दृष्टिकोण से एक अर्थव्यवस्था को निम्न भागों में वर्गीकरण किया जा सकता है—
(1). प्राथमिक क्षेत्र
(ii). द्वितीयक क्षेत्र या गौण क्षेत्र
(iii). तृतीयक क्षेत्र।
(1). प्राथमिक क्षेत्र – अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र वह क्षेत्र है जो प्राकृतिक साधनों जैसे — भूमि, वन, खनन आदि साधनों का शोषण करके उत्पादन पैदा करता है। इसमें सभी कृषि तथा उससे संबंधित क्रियाएँ जैसे मछली पालन, वन तथा खनन का उत्पादन शामिल किया जाता है।
(ii). द्वितीयक क्षेत्र या गौण क्षेत्र – अर्थव्यवस्था के द्वितीयक क्षेत्र या गौण क्षेत्र को निर्माण क्षेत्र भी कहा जाता है। यह एक प्रकार की वस्तु को मनुष्य, मशीन तथा पदार्थों द्वारा दूसरी वस्तु में बदलता है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कपास से कपड़ा बनाना अथवा गन्ने से चीनी बनाना आदि।
(iii). तृतीयक क्षेत्र – अर्थव्यवस्था के इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र भी कहा जाता है। सेवा क्षेत्र प्राथमिक तथा गौण क्षेत्र को सेवाएँ प्रदान करता है। इसमें बैंक, बीमा, यातायात, संचार, व्यापार तथा वाणिज्य आदि को शामिल किया जाता है।
प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीयक क्षेत्र और तृतीयक क्षेत्र में अंतर को हम इस प्रकार देख सकते हैं –
(i). प्राथमिक क्षेत्र में प्राकृतिक साधनों का शोषण करता है तथा इससे वस्तुएँ तथा सेवाएँ पैदा किया जाता है जबकि द्वितीयक क्षेत्र एक वस्तु को दूसरी वस्तु में परिवर्तन करता है जिससे उपभोक्ताओं को अधिक संतुष्टि मिलती है और तृतीयक क्षेत्र प्राथमिक तथा द्वितीयक क्षेत्र के कार्यों को सफलतापूर्वक चलाने में सहायता करता है।
(ii). प्राथमिक क्षेत्र में असंगठित तथा परंपरागत तरीके अपनायी जाती है जबकि द्वितीयक क्षेत्र सिर्फ संगठित तकनीक अपनाती है और तृतीयक क्षेत्र संगठित या आधुनिक तकनीक अपनाती है।
(iii). प्राथमिक क्षेत्र में श्रम विभाजन की कोई संभावना नहीं होती है जबकि द्वितीयक क्षेत्र में उत्पादन के लिए जटिल श्रम विभाजन आवश्यक होता है और तृतीय क्षेत्र जटिल तथा भौगोलिक श्रम विभाजन का प्रयोग करता है।
(iv). प्राथमिक क्षेत्र को कृषि तथा संबंधित क्षेत्र के नाम से जाना जाता है जबकि द्वितीयक क्षेत्र को निर्मित क्षेत्र और तृतीयक क्षेत्र को सेवा क्षेत्र के नाम से जाना जाता है।
8. अर्थव्यवस्था के केंद्रीय समस्याओं का उल्लेख करें। (Discuss the central problems of an economy.)
उत्तर⇒ अर्थव्यवस्था से मतलब उस आर्थिक प्रणाली से है जिसके द्वारा समाज की समस्त आर्थिक क्रियाओं का संचालन किया जाता है। प्रत्येक देश किसी न किसी आर्थिक प्रणाली पर आधारित है। आर्थिक प्रणाली के प्रमुख रूप हैं—पूँजीवाद और समाजवाद एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था। आर्थिक प्रणाली में भिन्नता के अनुसार अर्थव्यवस्था का संचालन अलग-अलग होता है किंतु साध नों की सीमितता एवं उनके वैकल्पिक प्रयोगों तथा आवश्यकताओं की अनन्तता के कारण ही साध नों एवं साध्यों के बीच उपयुक्त तालमेल बैठाने की समस्याएँ प्रत्येक आर्थिक प्रणाली में विद्यमान रहती है जिसे हम अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याएँ कहते हैं। केंद्रीय आर्थिक समस्या को चार मौलिक आर्थिक समस्याओं में बाँटा गया है।
(i). क्या उत्पादन करना है तथा कितनी मात्रा में अर्थव्यवस्था के केंद्रीय समस्याओं में सबसे प्रमुख समस्या यह है कि प्रत्येक समाज को यह निर्णय लेना होता है कि कौन-सा माल का उत्पादन करना तथा कितनी मात्रा में उत्पादन करना है।
(ii). कैसे उत्पादन करना है—अर्थव्यवस्था के दूसरी प्रमुख केंद्रीय समस्या यह उत्पन्न होती है कि वस्त का उत्पादन कैसे करना है। किसी वस्तु के उत्पादन की अनेक वैकल्पिक तकनीक है। उत्पादन में तकनीक के चुनाव की मुख्य समस्या होती है। उत्पादन की तकनीक दो प र होती है—(A) श्रम प्रधान तकनीक (B) पूँजी प्रधान तकनीक। श्रम प्रधान तकनीक में श्रम का अधिक मात्रा में किया जाता है। जबकि पूँजी प्रधान तकनीक में पूँजी का अधिक प्रयोग होता
(iii). केंद्रीय समस्या का तीसरा प्रमुख समस्या यह भी है कि किसके लिए उत्पादन किया जाए। इस समस्या में यह महत्त्वपूर्ण बात सामने आती है कि उत्पादन के बाद वितरण कैसे किया जाए।
(iv)आर्थिक विकास के लिए क्या-क्या प्रावधान किये जाने चाहिए ? अर्थव्यवस्थाके केंद्रीय समस्या में यह भी एक प्रमुख समस्या है कि आर्थिक विकास के लिए कौन-कौन से प्रावधान किया जाए जिससे अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास हो। इसके लिए समाज को यह निर्णय लेना होता है कि कितनी बचत तथा निवेश भविष्य की प्रगति के लिए किया जाना चाहिए ताकि आर्थिक विकास हो सके।
9. उत्पादन फलन क्या है? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बतलाएँ। (What is Production function ? Discuss the main characteristics?)
उत्तर⇒ उपादानों एवं उत्पादनों के फलनात्मक संबंध को उत्पादन फलन कहा जाता उत्पादन फलन हमे यह बताता है कि समय की एक निश्चित अवधि में उपादानों के परिवर्तन से उत्पादन आकार में किस प्रकार और कितनी मात्रा में परिवर्तन होता है। इस प्रकार उपादानों की मात्रा और उत्पादन की मात्रा के मौलिक संबंध को उत्पादन फलन कहते हैं। उत्पादन केवल भौतिक मात्रात्मक संबंध पर आधारित है। इसमें मूल्यों का समावेश नहीं होता है।
गणितीय रूप में उत्पादन फलन,
Qx = f(A, B, C, D)
वाट्सन के शब्दों में, “एक फर्म के भौतिक उत्पादन और उत्पादन के भौतिक साधनों के संबंध को उत्पादन फलन कहा जाता है।”
मान्यताएँ – उत्पादन फलन निम्न मान्यताओं पर आधारित है-
(i). उत्पादन फलन का संबंध किसी निश्चित समयावधि से होता है।
(ii). दीर्घकाल में उत्पादन फलन के सभी उपादान परिवर्तनशील होते हैं।
(iii). अल्पकाल में तकनीकी स्तर में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
(iv). उत्पादन फलन के सभी उत्पादन अल्पकाल में परिवर्तन नहीं किये जा सकते हैं।
उत्पादन फलन की विशेषताएँ – उत्पादन फलन की निम्न विशेषताएँ हैं –
(i). उत्पादन फलन उत्पत्ति के साधनों एवं उत्पादन के भौतिक मात्रात्मक संबंध को बताता है।
(ii). उत्पादन फलन में उपादानों एवं उत्पादन की कीमतों का कोई समावेश नहीं होता है।
(iii). उत्पादन फलन का संबंध एक समयावधि से होता है।
(iv). उत्पादन फलन स्थिर तकनीकी दशा पर आधारित है।
(v). जब फर्म अपने उत्पादन फलन के कंछ उपादानों को स्थिर रखती है।
(vi). फर्म दीर्घकाल में जब सभी उपादानों को परिवर्तित कर देती है तब ऐसे उत्पादन फलन को दीर्घकालीन उत्पादन फलन अथवा पैमाने के प्रतिफल कहते हैं।
(vii). उत्पादन फलन उत्पादन का तकनीकी सारांश प्रस्तुत करता है।
10. सर्वाधिक संतुष्टि के लिए उपभोक्ता वस्तुओं के किस बंडल का चुनाव करता है ? अधिमान वक्र द्वारा दर्शायें। (Which bundle of goods consumer chooses for maximization of satisfaction? Show with the help of indifference curves.)
उत्तर⇒ सर्वाधिक संतुष्टि के लिए बंडलों का चुनाव एक उपभोक्ता सर्वाधिक संतष्टि के लिए उस बंडल का चनाव करता है जब उपभोक्ता संतुलन की अवस्था तक होता है जब अपनी सीमित आय की सहायता से वस्तुओं को उनकी दी गयी कीमतों पर खरीदकर अधिकतम संतुष्टि प्राप्त करने में सफल हो जाता है। उपभोक्ता की कीमत रेखा उसकी आय एवं उपभोग वस्तुओं की कीमतों से निर्धारित होता है। इस कीमत रेखा के साथ उपभोक्ता अधिकतम ऊँचे अधिमान वक्र तक पहुंचने का प्रयास करता है।
अधिमान वक्र विश्लेषण में उपभोक्ता के संतुलन की दो शर्त है –
(1). अधिमान वक्र कीमत रेखा का स्पर्श करे (Price Line should be tangent to Indifference Curve) अर्थात् मात्रात्मक रूप में X वस्तु की Y वस्तु के लिए सीमांत प्रतिस्थापन दर X तथा Y वस्तुएं की कीमतों के अनुपात के बराबर हो।चित्र द्वारा देख सकते हैं –
चित्र में संतुलन बिन्दु E पर कीमत रेखा ढाल = अधिमान वक्र का ढाल
(2). स्थायी संतुलन के लिए सन्तुलन बिन्दु पर अधिमान वक्र मूल बिंदु की ओर उन्नतोदर होती है
चित्र द्वारा देख सकते हैं-
चित्र में K बिंदु पर संतुलन की स्थिति स्थायी नहीं है क्योंकि K बिंदु पर MRSXY, बढ़ती हुआ है। बिंदु E अंतिम संतुलन का बिंदु है जहाँ MRSXY घटती हुई है।