Class 12th Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 4
Q.45. मन के गत्यात्मक पक्षों की विवेचना करें। अथवा, प्रायड के अनुसार मन के गत्यात्मक पहलू का वर्णन करें।
Ans ⇒ मनोविश्लेषण के जन्मदाता फ्रायड ने मन के गत्यात्मक पक्षों का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया है और बताया है कि उस पहलू के द्वारा ही मूल प्रवृत्तियों में उत्पन्न मानसिक संघर्ष दूर होते हैं।
इस संबंध में ब्राउन ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है कि “व्यक्तित्व के गत्यात्मक पहलू का अर्थ यह है जिसके द्वारा मूल प्रवृत्तियों में उत्पन्न संघर्षों का समाधान होता है।”
फ्रायड ने मन के गत्यात्मक के तीन पक्षों की चर्चा की है –
(i) इड (Id) – यह हमारे मन के गत्यात्मक पहलू का प्रथम भाग है। प्रारंभ में प्रत्येक बच्चा इड से ही प्रभावित होता है। जैसे-जैसे उम्र में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे इगो तथा सुपर इगो का विकास क्रमशः होने लगता है। इड को न तो समय का ज्ञान रहता है और न वास्तविकता का। यही कारण है कि बच्चे अपनी उन इच्छाओं को भी पूरा करना चाहते हैं, जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता है। फ्रायड और उनके समर्थकों ने इड को मूल प्रवृत्तियों का भंडार माना है।
(ii) इगो (Ego) – इगो मन के गत्यात्मक पहलू का वह भाग है, जिसका संबंध वास्तविकता से होता है। फ्रायड ने इसे Self conscious intelligence कहा है। चूँकि इसे वास्तविकता का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है, अतः इड और सुपर इगो के बीच संतुलन स्थापित करने का काम करता है। इगो तार्किक दोषों से वंचित रहता है। यह चेतन और अचेतन दोनों होता है। जीवन और वास्तविकता के बीच अभियोजन करने का काम इगो ही करता है। इसी के संतुलन पर हमारा व्यक्तित्व निर्भर करता है। इगो प्रत्येक काम के परिणाम को गंभीरतापूर्वक सोचता है और अनुकूल अवसर आने पर इड की इच्छाओं को संतुष्ट होने देता है। जो विचार इगो को मान्य नहीं होता वह अचेतन मन में दमित हो जाता है।
(iii) सुपर इगो (Super Ego) – सुपर इगो मन के गत्यात्मक का तीसरा और अंतिम भाग है। इसे आदर्शों की जननी कहा गया है। नाइस (Nice) के शब्दों में, “सुपर इगो व्यक्तित्व का वह भाग है, जिसे विवेक कहा जाता है। यह हमें सभ्य मानव की तरह व्यवहार करना सिखाता है। इस तरह यह इड की असंगत इच्छाओं की पूर्ति में बाधा डालता है।” सुपर इगो के कारण ही व्यक्ति में नैतिकता का जन्म होता है। हर हालत में इसका विकास सामाजिक परिवेश में होता है। यह मुख्यतः चेतन होता है। फलस्वरूप इसे वास्तविकता का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है। अपने सभी नैतिक कार्यों को करने से व्यक्ति घबराता है और यदि किसी कारणवश कार्यों को कर डालता है तो उसे बाद में पश्चाताप करना पड़ता है।
Q.46. युंग के व्यक्तित्व प्रकारों का वर्णन करें।
Ans ⇒ युंग ने मानसिक और सामाजिक गुणों के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है –
(i) अन्तःमुखी व्यक्तित्व (Introvert Personality) – युंग ने अन्त:मुखी के अंतर्गत ऐसे व्यक्तित्व वाले लोगों को रखा है जो कल्पना और चिंतन में ज्यादा समय बर्बाद करते हैं। ये लोग एकांत जीवन जीना पसंद करते हैं। अन्त:मुखी व्यक्ति बहुत अधिक भावुक होते हैं तथा उनमें आलोचनाओं को सहने की शक्ति कम होती है। इनका जीवन बहुत ही नियमित होता है। किसी काम को काफी सोच समझ कर करते हैं। अन्तःमुखी व्यक्तित्व वाले जोखिम नहीं उठा सकते। संवेगों पर इनका नियंत्रण होता है। इन लोगों को नैतिकता का विशेष ख्याल होता है। अतः ऐसे व्यक्तित्व विश्वसनीय होते हैं। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति दार्शनिक, चिंतक, कलाकार या कवि हो सकते हैं।
(ii) बर्हिमुखी व्यक्तित्व (Extrovert Personality) – इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले लोग व्यवहार कुशल होते हैं। ये अधिक लोगों के बीच घिरे रहना पसंद करते हैं। इनमें साहस और कुशलता अधिक देखी जाती है। बहिर्मुखी व्यक्ति कम भावुक होते हैं। ये हास्यप्रिय, हाजिर जवाब तथा अनिश्चित प्रकृति के होते हैं। एकांत में रहना ऐसे व्यक्तियों के लिए दुभर होता है। इनके दोस्ती की संख्या अधिक होती है। ये अधिक जोखिम भरे कार्य कर सकते हैं। ऐसे व्यक्तित्व के लोगों में संवेगात्मक अस्थिरता भी देखी जाती है। बात-बात पर इन्हें क्रोधित होते देखा जाता है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले अधिकांश नेता या समाज सुधारक होते हैं।
युग के व्यक्तित्व विभाजन के अनुसार कुछ ही ऐसे व्यक्ति होते हैं जो पूर्णतः अन्तर्मुखी या बहिर्मुखी होते हैं। अधिकांश व्यक्तियों में अन्तर्मुखी तथा बहिर्मुखी दोनों प्रकार के गुण पाए जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को उभयमुखी कहा जाता है।
Q.47.असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारणों का वर्णन करें।
Ans ⇒ यदि व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक विकास दोषपूर्ण होगा, तो उसके व्यवहार में असामान्यता , की संभावना बहुत अधिक रहती है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति का व्यवहार कुसमायोजित हो जाता है उसके व्यवहार दोषपूर्ण हो जाते हैं। असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारण निम्नलिखित हैं –
(i) मातृवंचन (Maternal deprivation) – मातृवंचन असामान्य व्यवहार का एक बहुत बड़ा कारण है। ऐसा देखा जाता है कि जहाँ माताएँ शिशुओं को छोड़कर नौकरी या व्यवसाय करने के लिए चली जाती है, उन्हें उचित मात्रा में माता-पिता का स्नेह नहीं मिल पाता है। ऐसी अवस्था में शिशुओं का मनोवैज्ञानिक विकास अवरुद्ध हो जाता है, जो असामान्य व्यवहार को विकसित होने में सहायक होते हैं।
(ii) पारिवारिक प्रतिमान की विकृति (Pathogenic family pattern) – विकृत पारिवारिक दशाओं के कारण भी व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित दशाएँ आती हैं –
(a) तिरस्कार, (b) अति संरक्षण (c) इच्छाओं की पूर्ति की अधिक छूट, (d) दोषपूर्ण अनुशासन, (e) अयथार्थ चाह।
(iii) दोषपूर्ण पारिवारिक संरचना (Faulty family structure) – यदि पारिवारिक संरचना दोषपूर्ण होगी तो बच्चों में अनेक प्रकार के असामान्य व्यवहार के विकसित होने की संभावना बनी रहेगी। ऐसे परिवार में बच्चों की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति उचित ढंग से नहीं हो पाती है और उनमें विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। अस्त-व्यस्त पारिवारिक वातावरण में बच्चों में तनाव उत्पन्न होता है।
(iv) प्रारंभिक जीवन के मानसिक आघात (Early psychic trauma) – यह भी असामान्य व्यवहारों को उत्पन्न करने में सहायक होता है। यदि बच्चों के प्रारंभिक जीवन में कोई तीव्र मानसिक आघात लगता है, तो उसका प्रभाव व्यक्ति के पूरे जीवन पर पड़ता है और व्यक्ति असामान्य हो जाता है।
(v) विकृत अन्तःवैयक्तिक संबंध (Faulty interpersonal relation) – असामान्य व्यवहारों के विकसित होने में एक मनोवैज्ञानिक कारक विकृत अन्त:वैयक्तिक संबंध भी है। यदि किसी कारणवश परस्पर संबंधित व्यक्तियों से आपसी संबंध विकृत हो जाते हैं या तीव्र मतभेद हो जाते हैं तो उन व्यक्तियों में अत्यधिक तनाव, असंतोष, चिंता आदि विकसित हो जाते हैं, जिससे व्यक्ति का व्यवहार कुसमायोजित हो जाता है।
Q. 48. मनोगत्यात्मक चिकित्सा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
Ans ⇒ मनोगत्यात्मक चिकित्सा का प्रतिपादन सिगमंड फ्रायड द्वारा किया गया। मनोगत्यात्मक चिकित्सा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है –
1. मनोगत्यात्मक चिकित्सा ने मानस की संरचना, मानस के विभिन्न घटकों के मध्य गतिकी और मनोवैज्ञानिक कष्ट के स्रोतों का संप्रत्ययीकरण किया है।
2. यह उपागम अतः मनोद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है। अतः, उपचार में पहला चरण उसी अन्त:द्वन्द्व को बाहर निकालना है।
3. मनोविश्लेषण ने अंत:द्वंद्व को बाहर निकालने के लिए दो महत्त्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य विधि तथा स्वप्न व्याख्या विधि का आविष्कार किया। मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुख्य रूप से संबद्ध करने के प्रोत्साहित किया जाता है और उस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम तथा सतर्क अहं को प्रसप्तावस्था में रखा जाता है। चूंकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं करता इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित किए जाते रहे हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगते हैं।
Q.49. व्यवहार चिकित्सा क्या है ? संक्षेप में समझाइए।
Ans ⇒ व्यवहार चिकित्सा मनश्चिकित्सा का एक प्रकार है। व्यवहार चिकित्साओं का यह मापन है कि मनावैज्ञानिक कष्ट दोषपूर्ण व्यवहार प्रतिरूपों या विचार प्रतिरूपों के कारण उत्पन्न होते हैं। अतः इनका केन्द्रबिन्दु सेवार्थी में विद्यमान व्यवहार और विचार होते हैं। उसका अतीत केवल उसके दोषपूर्ण व्यवहार तथा विचार प्रतिरूपों की उत्पत्ति को समझने के संदर्भ में महत्वपूर्ण होता है। अतीत को फिर से सक्रिय नहीं किया जाता। वर्तमान में केवल दोषपूर्ण प्रतिरूपों में सुधार किया जाता है।
अधिगम के सिद्धांतों का नैदानिक अनुप्रयोग ही व्यवहार चिकित्सा को गठित करता है व्यवहार चिकित्सा में विशिष्ट तरीकों एवं सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों का एक विशाल समुच्चय होता है। यह कोई एकीकृत सिद्धांत नहीं है जिसे क्लिनिकल निदान या विद्यमान लक्षणों को ध्यान में रखे बिना अनुप्रयुक्त किया जा सके। अनुप्रयुक्त किए जाने वाली विशिष्ट तकनीकों या सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों के चयन में सेवार्थी के लक्षण तथा क्लिनिकल निदान मार्गदर्शक कारक होते हैं। दुर्भीति या अत्यधिक और अपंगकारी भय के उपचार के लिए तकनीकों के एक समुच्चय को प्रयुक्त करने की आवश्यकता होगी जबकि क्रोध-प्रस्फोटन के उपचार के लिए दूसरी। अवसादग्रस्त सेवार्थी की चिकित्सा दुश्चितित सेवार्थी से भिन्न होगी। व्यवहार चिकित्सा का आधार दोषपूर्ण या अप्रक्रियात्मक व्यवहार को निरूपित करना, इन व्यवहारों के प्रबलित तथा संपोषित करने वाले कारकों तथा उन विधियों को खोजना है जिनसे उन्हें परिवर्तित किया जा सके।
Q.50. व्यवहार चिकित्सा का मूल्यांकन करें। इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।
Ans ⇒ व्यवहार चिकित्सा का इतिहास बहुत अधिक पुराना नहीं है। इसका प्रारंभ लगभग पच्चीस-तीस वर्ष पहले किया गया था। यह पद्धति मानसिक रोगियों की चिकित्सा के लिए बहुत अधिक कारगर साबित हुई है। यह विधि पैवल के संबंध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त पर आधारित है। इस चिकित्सा के माध्यम से मानसिक रोगियों से छुटकारा दिलाया जा सकता है, जिससे वे समाज में अपना अभियोजन ठीक ढंग से कर सके। व्यवहार चिकित्सा के संबंध में आइजेक (Eysenck) का कहना है कि “मानव व्यवहार एवं संवेगों को सीखने के नियमों के आधार पर लाभदायक तरीकों से परिवर्तन करने का प्रयास व्यवहार चिकित्सा है।” क्लीनमुंज (Keleinmuntz) ने भी लगभग इससे मिलती-जुलती परिभाषा दी है। उन्होंने कहा है कि, “व्यवहार चिकित्सा उपचार का एक प्रकार है, जिसमें लक्षणों को दूर करने के लिए शिक्षण के सिद्धान्तों का उपयोग किया जाता है।
व्यवहार चिकित्सा का स्वरूप कोलमैन (Coleman) की परिभाषा से और भी स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कहा है कि, “व्यवहार चिकित्सा संबंध प्रत्यावर्तन प्रतिक्रियाओं और व्यवहारवाद की अन्य धारणाओं पर आधारित एवं मनोचिकित्सा विधि है जो मूल रूप से स्वभाव परिवर्तन की ओर निर्देशित होती है। (Behaviour therapy is a phychotherapy based upon conditioned responses and other conceptsofbehaviour, primarilydirected towards, habitchange.) उपर्युक्त पारिभाषाओं से व्यवहार चिकित्सा का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इसमें रोगी के गलत व्यवहारों को संबंध प्रत्यावर्तन के माध्यम से दूर किया जाता है। व्यवहार चिकित्सा के निम्नलिखित प्रकारों की मुख्य रूप से चर्चा की जा सकती है।
1. क्रमबद्ध विहर्षण – इस विधि का सर्वप्रथम प्रयोग Wolpe ने किया था। शिक्षण के क्षेत्र में Watson and Rayner ने इस विधि को प्रयोग में लाया। Wolpe ने अनेक मानसिक रोगियों की चिकित्सा इस विधि के माध्यम से की, जिसका परिणाम अच्छा निकला। कोलमैन ने इस विधि के संबंध में कहा है कि विहर्षण एक चिकित्सा प्रक्रिया है, जिसके द्वारा आघातजन्य अनुभवों की तीव्रता को उनके वास्तविक रूप या हवाई कल्पना को मृदुल ढंग से व्यक्ति को बार-बार दिखलाकर कम किया जाता है।
कोलमैन के विचार से स्पष्ट होता है कि विहर्षण एक मनोचिकित्सा पद्धति है, जो शिक्षण-सिद्धान्तों पर आधारित है। इसमें रोगी को मांसपेशियों को तनावहीन बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, उसके बाद चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों को कल्पना शृंखलाबद्ध की जाती है। यह कल्पना रोगी को उस समय तक करने के लिए कहा जाता है, जबतक चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से भयभीत न हो।
किसी रोग पर इस चिकित्सा पद्धति के प्रयोग में लाने से पहले उसके गत जीवन की जानकारी प्राप्त कर ली जाती है, जिससे कि उसे रोग से संबंधित परिस्थितियों को आवश्यकतानुसार रोगी के समक्ष प्रस्तत किया जा सके। उसके बाद चिकित्सक सबसे कम भयावह परिस्थितियों से लेकर अधिक भयावह परिस्थितियों को सूचिबद्ध करता है। इन सूचियों को अलग-अलग कागज पर लिखकर रोगी को क्रमबद्ध रूप से लिखने को कहा जाता है। इसी समय चिकित्सक रोगी का साक्षात्कार भी करता है। अधिकांश रोग तनावों के कारण उत्पन्न होते हैं। इसलिए रोगी को तनाव की स्थिति में लाकर तनावहीन स्थिति में लाने के लिए तैकॉविशन द्वारा बतलायी गयी विधि का सहारा लिया जाता है। इसमें रोगी को एक गते पर लिटा कर उसके शरीर के विभिन्न स्नायुयों को व्यवस्थित रूप में फैलाने तथा सिकोडने के लिए कहा जाता है। उसे यह प्रक्रिया अक्सर करने को कहा जाता है जिससे रोगी तनावहीन हो जाता है। उसके बाद विहर्षण की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है। रोगी को यह निर्देश दिया जाता है कि पहले सिखायी गयी प्रक्रिया में तनाव या कष्ट का अनुभव हो, तो अंगुली उठाकर इसकी सूचना दे। उसके बाद तटस्थ रूप से दृश्यों की कल्पना करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसी बीच उसे कम कष्टदायक तथा भयावह परिस्थितियों की कल्पना करने की सलाह देता है। चिकित्सक उसे बड़ी सावधानी से नोट करता है और अंत में रोगी के सामने सबसे अधिक चिन्ता करने वाली परिस्थितियों को तब तक उपस्थित किया जाता है जब तक कि रोगी की चिन्ता या भय के लक्षण दूर नहीं हो जाते हैं।
विहर्षण विधि का उपयोग नपुंसकता तथा उत्साहशून्यता के उपचार में सफलतापूर्वक किया जाता है। नपुंसकता को दूर करने के लिए इस विधि का प्रयोग, कूपर, लेजारस तथा वोल्पे ने सफलतापूर्वक किया। कुछ रोगी कम ही समय में इस चिकित्सा से चंगा हो जाते हैं, परन्तु कुछ अधिक समय ले लेते हैं।
2 दृढ़ग्राही प्रशिक्षण – व्यवहार चिकित्सा की इस पद्धति के द्वारा ऐसे मानसिक रोगियों की चिकित्सा की जाती है जिनमें पारस्परिक संबंधों या अन्य व्यवहारों में चिन्ता के कारण अवरोध पैदा हो जाता है। इसमें चिकित्सक यह प्रयास करता है कि रोगी का अवरोध कैसे दूर हो तथा उसकी चिन्ता में कैसे कमी हो। चिकित्सक यह भी बतलाता है कि रोगी का व्यवहार कैसे maladjusted हो गया है। वोल्पे तथा लेजारस ने बतलाया कि इस तरह के रोगी की चिकित्सा में तर्क-वितर्क तथा दढग्राही प्रतिक्रियाओं का वास्तविक जीवन में व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। वोल्पे ने कहा है कि चिन्ता का असंबद्धता प्रायः व्यववहार पूर्वाभ्यास में ही हो जाती है। फ्रीडमैन का कहना है कि इस विधि की कला चिन्ता अवरोध की वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में सामान्यीकरण स्थापित करती है। इस संबंध में कोटेला ने अपना अध्ययन एक युवती पर किया जो माता-पिता के सामने डटकर बातचीत करने में हिम्मत नहीं रखती थी। कोटेला ने इस पद्धति के माध्यम से उसमें डटकर बात करने की योग्यता को विकसित किया।
3. विरुचि संबंध प्रत्यावर्तन – इस प्रकार की चिकित्सा के माध्यम से रोगी की गलत आदतों को संबंध प्रत्यावर्तन के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार की चिकित्सा के संबंध में कहा जा सकता है कि, “सबल उत्तेजक का प्रयोग अवांछित व्यवहार के उपस्थित होने पर उसे दूर करने के उद्देश्य से किया जाता है, तो इसे विरुचित संबंध प्रत्यावर्तन कहा जाता है।” इसका सफल Feldman तथा Meuch ने समजाति लैंगिकता और वस्तु लैंगिकता के उपचार में किया। इससे जैसे ही रोगी अपने यौन के व्यक्ति या वस्तु की ओर देखना प्रारंभ करता था वैसे ही उसके विद्युत आघात पहुँचाया जाता है। इसके माध्यम से नशे की आदत से आसानी से छुटकारा दिलाया जा सकता है। इस विधि द्वारा अवांछित व्यवहारों को दूर करने के लिए सबल उत्तेजक, जैसे-विद्युत आघात, वमन करने वाली दवाएँ आदि का सहारा लिया जाता है। जैसे-एक शराब पीने वाले का उपचार करने के लिए पहले उसे तैयार किया जाता है। उसके बाद रोगी को एक ग्लास गरम खारे घोल में ह्विस्की के साथ कुछ वमन करने वाली दवाइयाँ दी जाती है। के होने के कुछ देर बाद उसे ह्विस्की पीने को दिया जाता है। यदि पहले पैग में वमन नहीं होता है, तो दूसरे पैग में दिया जाता है, जिससे कि रोगी को वमन होने लगे। धीरे-धीरे रोगी शराब की गंध से वमन करना प्रारंभ कर देता है। यहाँ असम्बद्ध उत्तेजक दवा है जो कै करवाती है और उसे संबद्ध उत्तेजक शराब की गन्ध एवं स्वाद है।
जेम्स ने एक चालीस वर्षीय समजाति लैंगिक का उपचार इस विधि द्वारा किया। परिणामस्वरूप वह व्यक्ति समजाति लैंगिक से विषम जाति लैंगिक बन गया। उसका ध्यान मर्दो से हटकर औरतों की ओर हो गया। इस पद्धति के आधार पर गरीब रोगियों की चिकित्सा कम-से-कम समय तथा कम-से-कम खर्च में की जाती है।
Q.51. समूह के मुख्य प्रकारों का वर्णन करें।
Ans ⇒ समूह का वर्गीकरण विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। सभी मनोवैज्ञानिकों के विभाजन के आधार अलग-अलग है। समूह के कुछ मुख्य प्रकार निम्नलिखित है –
1. प्राथमिक और द्वितीयक समूह (Primary and Secondary group) – कूले (Cooley) ने सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर समूह को दो भागों में विभाजित किया है।
A. प्राथमिक समूह (Primary group) – प्राथमिक समूह में सदस्यों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जैसे–परिवार कार्य समूह आदि प्राथमिक समूह के उदाहरण हैं। इसमें व्यक्ति के साथ आमने सामने का सम्बन्ध होता है। लिण्डग्रेन ने कहा है, “प्राथमिक समूह का तात्पर्य ऐसे समूह से है, जिसमें पारस्परिक सम्बन्ध और बारम्बारता एक साथ घटित होते हैं।”
प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच ‘हम’ की भावना अधिक रहती है। इसमें मतैक्य की दृढ़ता होती है। इस प्रकार के समूह के सदस्यों के मनोवैज्ञानिक पहलुओं, जैसे-मनोवृतियों, आदतों, कार्य-व्यवहारों आदि में दृढ़ता पाई जाती है। इसका आकार छोटा होता है। ये एक-दूसरे के सुख-दुःख से प्रभावित होते हैं। ऐसा समूह स्थायी होती है।
B. द्वितीयक समूह (Secondary group) – द्वितीयक समूह के सदस्यों के बीच औपचारिक सम्बन्ध अधिक होगा। इसमें आपसी सम्बन्ध के आधार, धार्मिक-निष्ठा, राजनैतिक दल की सदस्यता, वर्गनिष्ठा आदि होते हैं। इनके सदस्य एक जगह एकत्रित नहीं होते, बल्कि किसी माध्यम से आपस में जुड़े होते हैं। जैसे-सामाजिक संगठन, राजनैतिक दल, शैक्षिक संस्थान आदि इसके उदाहरण हैं। इस संबंध में लिण्डर्ग्रन ने लिखा है, “द्वितीयक समूह अधिक अवैयक्तिक होते हैं तथा सदस्यों के बीच औपचारिक तथा संवेदात्मक सम्बन्ध होते हैं।”
2. स्थायी और अस्थायी समूह (Permanent and temporary group) – कुछ मनोवैज्ञानिकों ने स्थायित्व के आधार पर स्थायी तथा अस्थायी दो प्रकार के समूहों की चर्चा की है। स्थायी समह ऐसे समूह को कहते हैं, जिसका अस्तित्व हमेशा बना रहता है। उसके सदस्य एक लक्ष्य की पूर्ति के बाद दूसरे लक्ष्य की पूर्ति के लिए पुनः प्रयत्नशील हो जाते हैं। जैसे-कर्मचारी संघ, शिक्षक संघ आदि। परन्त. दूसरी ओर कुछ ऐसे समूह होते है जो क्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनते हैं और आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है। जैसे-दंगा पीड़ितों की सहायता के लिए जो समूह बनाया जाता है वह उद्देश्य की पूर्ति के साथ ही समाप्त हो जाता है। ऐसे समूह को अस्थायी समूह कहा जाता है।
3. स्व-समूह तथा पर समूह (Ingroup and outgroup) – समान अभिरुचि तथा समान उद्देश्य के लोग जो समूह बनाते हैं, उसे स्व-समूह ‘हम’ समूह कहा जाता है। इसके सदस्यगण आपस में मिलकर शांतिपूर्वक रहते हैं तथा समूह के आदर्शों का पालन करते हैं। ऐसे समूह में सहयोग की भावना अधिक पायी जाती है। लेकिन पर-समूह इसके ठीक विपरीत होता है। इसमें सदस्यों के बीच अभियोजन का अभाव होता है। इसमें जाति, भाषा तथा अभिरूचि का बन्धन नहीं होता है। जैसे-उत्तर भारत के लोगों के व्यवहार को देखकर दक्षिण भारत के लोग आश्चर्य करते हैं। इनकी भाषा, लिपि, खान-पान सभी विचित्र मालूम पड़ते हैं।
4.खुला तथा बन्द समूह (Open and closed group) – एडवर्ड्स ने खुला एवं बन्द, दो प्रकार के समूह की चर्चा की है। उनके अनुसार खुला समूह उस समूह को कहते हैं, जिनमें आसानी से कोई भी व्यक्ति सदस्यता ग्रहण कर सकता है। जैसे-कोई राजनैतिक दल। इस प्रकार के समूह में सदस्यों की संख्या बहुत अधिक होती है। परन्तु, बाद समूह ऐसा समूह है जिसका सदस्य सभी व्यक्ति नहीं हो सकते हैं। उनमें तरह-तरह की छानबीन कर लेने के बाद ही किसी व्यक्ति को उसका सदस्य बनाया जाता है। जैसे-किसी प्रतिष्ठित क्लब का सदस्य बनना बहुत कठिन होता है। ऐसे समूह को बन्द समूह की संज्ञा देते हैं।
5.संगठित एवं असंगठित समूह (Organised and Unorganised group) – संगठन के आधार पर भी समूह को दो भागों में बांटा जा सकता है। इस प्रकार के समूह को संगठित तथा असंगठित समूह में विभाजित कर सकते हैं। किसी नियम, आदर्श, सहयोग तथा परस्पर एकता के आधार पर जो समूह निर्भर होता है उसे संगठित समूह कहते हैं। इसके सदस्य समूह के आदर्शों से बंधे होते हैं। इस प्रकार के सदस्यों का मनोबल बहुत ऊंचा होता है। वे लोग आपस में एक-दूसरे को बहुत अधिक सहयोग देते हैं। इसके सदस्यों में ‘हम’ की भावना पायी जाती है। इसके ठीक विपरीत असंगठित समूह के सदस्यों में आपस में सहयोग की भावना कम होती है। वे एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते हैं। सदस्यों का मनोबल बहुत अधिक गिरा हुआ होता है।
6. लम्बीय तथा समतल समूह (Vertical and horizontal group) – इस प्रकार का विभाजन हरबर्ट मीलर (Herbert Millar) ने प्रस्तुत किया है। लम्बीय समूह के सदस्यों के बीच सामाजिक दूरी अधिक होती है जबकि समतल समूह में सदस्य आपस में मिल-जुलकर बराबर रूप से रहते हैं। इसके अन्तर्गत कवि. संगीतकार आदि का समूह आता है। एक ही व्यक्ति कवि और संगीतकार दोनों हो सकता है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति कई समूहों का सदस्य हो सकता है। लेकिन कुछ समह ऐसे होते हैं जिसमें एक ही व्यक्ति कई समूह के सदस्य नहीं हो सकते हैं। जैसे एक ही व्यक्ति स्त्रियों और परुषों के समह का सदस्य नहीं हो सकता, धनी और निर्धन समूह सदस्य एक ही व्यक्ति नहीं हो सकता है। इसमें सामाजिक दूरी अधिक होती है।
आकस्मिक तथा प्रयोजनात्मक समूह (Accidental and purposive group)-प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकडुगल (McDougal) ने समूह की उत्पत्ति के आधार पर आकस्मिक तथा प्रयोजनात्मक दो प्रकार के समूहों की चर्चा की है। आकस्मिक समूह एकाएक किसी स्थान पर बन जाता है। जैसे-रेल यात्रियों का समूह एकाएक बनता है, इसे आकस्मिक समूह कहेंगे। परन्तु दूसरी ओर, कुछ ऐसे समूह होते हैं जो सोच-समझकर खास उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बनाये जाते हैं। जैसे-राजनैतिक पार्टी आदि।
8. उदार तथा कठोर समूह (Liberal and hostile group) – कुछ समूह समाज कल्याण एव जनता की भलाई के लिए बनाये जाते हैं जैसे-राजनीतिक पार्टी, धार्मिक संस्था आदि। परन्तु इसके ठीक विपरीत कुछ ऐसे समूह होते हैं जो समाज को हानि पहुँचाते हैं। जैसे आतंकवादियों का समूह। इसका काम है देश या जनता को तबाह करना।
9. राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय समूह (National and International group) – राष्ट्रीय समूह उसे कहेंगे जो सिर्फ एक राष्ट्र तक सीमित रहते हैं, जैसे-कांग्रेस पार्टी। लेकिन कुछ ऐसे भी समूह हैं जो कई देश मिलकर बनाते हैं। जैसे सार्क, U.N.O ।
10. भ्रमणकारी एवं स्थिर समूह (Mobile and immobilegroup) – कुछ समूह ऐसे होते हैं जो एक जगह पर स्थिर नहीं रहते, बल्कि भ्रमण करते हैं, जैसे-खानाबदोश का समूह। इसके विपरीत अधिकांश समूह ऐसे होते हैं जो स्थिर होते हैं। वे एक जगह रहकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। जैसे-पुस्तक व्यावसायियों का समूह।
11. समूह का आधुनिक वर्गीकरण (Recent classification of group) – समूह का विभाजन आधुनिक मनोवैज्ञानिक द्वारा भी किया गया है। जो इस प्रकार A घनिष्ठ समूह B, प्राथमिक समूह C, मध्य समूह D, सहकारी समूह। घनिष्ठ समूह में ऐसे लोग आते हैं जो आपस में घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं। जैसे-परिवार। प्राथमिक समूह के अन्तर्गत छोटे समूह को रखा जा सकता है जैसे-खिलाड़ियों का समूह। इसी प्रकार मध्य समूह तथा सहकारी समूह के अन्तर्गत राजनैतिक पार्टियाँ आदि बनते हैं।
Q.52.चिंता विकृति के लक्षण कारणों का वर्णन करें।
Ans ⇒ चिन्ता मनः स्नायुविकृति एक ऐसा मानसिक रोग है, जिसमें रोगी हमेशा अज्ञात कारणों से चिन्तित रहा करता है। सामान्य चिन्ता एक सामान्य, स्वाभाविक और सर्वसाधारण मानसिक अवस्था है। जीवन में जटिल परिस्थितियों में यह अनिवार्य रूप से होता है। वर्तमान भयावह परिस्थिति से डरना या चिन्तित होना सामान्य अनुभव है। इसके लिए व्यक्ति डर की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। जैसे-बाघ को सामने आता देखकर व्यक्ति सामान्य चिंता के फलस्वरूप भयभीत होने या भागने की क्रिया करता है। व्यक्ति में ऐसी भयावह परिस्थिति की अवगति रहती है। उसी के संतुलन के लिए वह किसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है। सामान्य चिन्ता का संबंध वर्तमान भयावह परिस्थितियों से रहता है। लेकिन सामान्य चिन्ता से असामान्य चिन्ता पूर्णतः भिन्न है। इसमें व्यक्ति चिन्तित या भयभीत रहता है, लेकिन सामान्य चिन्ता के समाने उसकी चिन्ता का विषय नहीं रहता। उसकी अपनी चिन्ता का कारण ज्ञात नहीं रहता। उसकी चिन्ता पदार्थहीन होती है। अतः अपने विभिन्न शारीरिक उपद्रवों को व्यक्त करता है। वस्तुतः उसे अपने मानसिक उपद्रव का ज्ञान नहीं रहता। इसके अतिरिक्त उसकी चिन्ता का संबंध हमेशा भविष्य से रहता है, वर्तमान से नहीं। इसलिए उसमें निराकरणात्मक सामान्य चिन्ता की तरह प्रतिक्रिया देखने में नहीं आती है, अतः हम कह सकते हैं कि सामान्य चिन्ता भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है। सामान्य चिन्ता के संबंध में असामान्य चिन्ता आन्तरिक भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है। सामान्य चिन्ता के संबंध में फिशर (Fisher) ने कहा-“सामान्य चिन्ता उन उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है जिसका परित्याग करने में व्यक्ति अयोग्य रहता है।” (Normal anxiety is a reaction to an unapprochable difficults which the individual is unable to avoid.) जबकि असामान्य चिन्ता के संबंध में उनका विचार है कि ‘असामान्य चिन्ता उन आन्तरिक या व्यक्तिगत उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है. जिसका ज्ञान व्यक्ति को नहीं रहता।” (Neurotic anxiety is areaction to an unapproachable inner or subjective difficult of which the individual has no idea.).
चिन्ता मनःस्नायु विकृति (Symptoms of anxiety neurosis) – चिन्ता मन:स्नायु विकति में शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के लक्षण देखे जाते हैं। मानसिक लक्षण में भय और आशंका की प्रधानता रहती है, जबकि शारीरिक लक्षण में हृदय गति, रक्तचाप, श्वास गति, पाचन-क्रिया आदि में परिवर्तन देखे जाते हैं। उनका वर्णन निम्नलिखित हैं –
1. मानसिक लक्षण (Mental symptoms) – मानसिक लक्षणों में अतिरंजित भय और शंका की प्रधानता रहती है। यह अनिश्चित और विस्तृत होता है। इसका रोगी तर्कयुक्त प्रमाण नहीं कर सकता, किन्तु पूरे विश्वास के साथ जानता है कि उसका सोचना सही है। उसकी शंका किसी दुर्घटना से संबंध होती है। घर में आग लगने, महामारी फैलने, गाड़ी उलटने, दंगा होने या इसी प्रकार की अन्य घटनाओं के प्रति वह चिंतित रहता है। वह हमेशा अनुभव करता है कि बहुत जल्द ही कुछ होनेवाला है। इस संबंध में अनेक काल्पनिक विचार उसके मन में आते रहते हैं। वह दिन-रात इसी विचार से परेशान रहता है उसमें उत्साह की कमी हो जाती है और मानसिक अंतर्द्वन्द्व बहुत अधिक हो जाता है। चिन्ता से या तो वह अनिद्रा का शिकार हो जाता है या नींद लगने पर तुरन्त जाग जाता है। ऐसे रोगियों में मृत्यु, अपमान आदि भयावह स्वप्नों की प्रधानता रहती है, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसका रोगी कभी-कभी आत्महत्या का भी प्रयास करता है।
2. शारीरिक लक्षण (Physical symptoms) – चिन्ता मन:स्नायु विकृति के रोगियों में शारीरिक लक्षण भी बड़ी उग्र होते हैं। रोगी के हृदय की गति, रक्तचाप, पाचन-क्रिया आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। पूरे शरीर में दर्द का अनुभव करता है। कभी-कभी चक्कर भी आता है। रोगी के शरीर से बहुत अधिक पसीना निकलता है। वह बोलने में हलकाता है तथा बार-बार पेशाब करता है, उसे शारीरिक वजन घटना हुआ मालूम पड़ता है। यौन भाव की कमी हो जाती है। इसके रोगी तरह-तरह की आवाजें सुनते हैं। कुछ लोगों को शिश्न छोआ होने का भय बना रहता है।
इस प्रकार के रोगियों में दो प्रकार की चिन्ता देखी जाती है-तात्कालिक चिन्ता तथा दीर्घकालिक चिन्ता। तात्कालिक चिन्ता रोगी में बहुत तीव्र तथा उग्र होती है। यह चिन्ता तुरन्त की होती है। इसमें रोगी चिल्लाता है तथा पछाड़ खाकर गिरता है। दीर्घकालिक चिन्ता पुरानी होती है। रोगी अज्ञात भावी दुर्घटनाओं के प्रति चिन्तित रहता है। वह निरंतर इस चिन्ता से बेचैन रहता है और त्रस्त रहता है। इस रोग का लक्षण के आधार पर ही विद्वानों ने दो भागों में विभाजित किया है-मुक्तिचारी चिन्ता तथा निश्चित चिन्ता। चिन्ता के कारण का अभाव नहीं रहने पर भी जब रोगी बराबर बेचैन रहता है तो उसे free floating anxiety कहते हैं, लेकिन जब रोगी किसी परिस्थिति विशेष से अपनी चिन्ता का संबंध स्थापित कर लेता है तो उसे bound anxiety कहा गया है प्रारंभ में रोगी में मुक्तिचारी चिन्ता ही रहता है, लेकिन क्रमशः स्थायी रूप धारण कर लेने पर उसे निश्चित चिन्ता बन जाती है।
चिन्ता मनःस्नायु विकृति के कारण (Etiology) – अन्य मानसिक रोगों की तरह चिन्ता मन:स्नायु विकृति के कारणों को लेकर भी मनोवैज्ञानिकों में एकमत का अभाव है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा जो कारण बताये गये हैं, उनमें कुछ मुख्य निम्न हैं –
1. लैंगिक वासना का दमन (Repressionofsexual desire) – सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने लैंगिक इच्छाओं के दमन को इस मानसिक रोग का कारण माना है। व्यक्ति में लैंगिक आवेग उत्पन्न होता है और यदि वह आवेग की पूर्ति में असफल हो जाता है, उसमें चिन्ता उत्पन्न होती है। यही इस रोग के लक्षणों को विकसित करती है। अत:स्रावित लैंगिक शक्ति को इस रोग का करण माना जा सकता है। किसी पति की यौन सामर्थता या स्त्री में यौन उत्तेजना होने पर चलनात्मक स्राव नहीं होने से वह इस रोग से पीड़ित हो जाता है। इसी प्रकार पुरुष अपनी असमर्थता या स्त्री दोषी होने के कारण इस रोग से पीड़ित हो सकता है।
फ्रायड के उपर्युक्त मत से मनोवैज्ञानिक सहमत नहीं है। इस संबंध में गार्डेन का विचार है कि कामेच्छा का दमन और उसका प्रतिबंध ही इस रोग का कारण नहीं, बल्कि दो संवेगों के संघर्ष के फलस्वरूप इस रोग के लक्षण विकसित होते हैं। इस बात का मैकडूवल ने भी समर्थन किया है।
2. हीन भावना (Inferiority complex) – इस संबंध के फ्रायड के शिष्य एडलर ने भी अपना विचार व्यक्त किया है। उनका कहना है कि मनुष्य में आत्म प्रतिष्ठा की भावना प्रबल होती है, किन्तु बचपन में आश्वासन की शिथिलता के कारण जब व्यक्ति के Ego का समुचित रूप से विकास नहीं हो पाता है, तो वह हीनता की भावना से पीड़ित रहने लगता है। उसमें आत्म प्रतिष्ठा की भावना का दमन हो जाता है और व्यक्ति चिन्ता मनःस्नायु विकृति से पीड़ित हो जाता है।
3. मानसिक संघर्ष एवं निराशा (Mental conflict and frustration) – ओकेली का ऐसा मानना है कि इस रोग का कारण मानसिक संघर्ष एवं कुंठा है। इस संबंध में और भी मनोवैज्ञानिकों ने अपना अध्ययन किया है और ओकेली के मत का समर्थन किया है।
इस तरह हम देखते हैं कि चिन्ता मनःस्नायु विकृति के कारणों को लेकर सभी मनोवैज्ञानिक एक मत नहीं है। इस रोग के कारण के रूप में मुख्य रूप से लैंगिक वासना का दमन, हीनभावना तथा मानसिक संघर्ष एवं निराशा को माना जा सकता है।
Q.53. असामान्य मनोविज्ञान की परिभाषा दें तथा उसकी विषय-वस्तु का वर्णन करें।
Ans. मनोविज्ञान की कई शाखाएँ हैं, उनमें असामान्य मनोविज्ञान भी एक है। असामान्य मनोविज्ञान में व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है, अर्थात् व्यक्ति का वैसा व्यवहार जो सामान्य से अलग होता है, उन व्यवहारों का अध्ययन असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। असामान्य मनोविज्ञान अंग्रेजी शब्द Abnormal Psychology का हिन्दी रूपान्तर है। Abnormal शब्द की उत्पत्ति Anomelols से हुई है, जो दो शब्दों Ano और Moles का मेल से बना है। Ano का अर्थ है ‘नहीं’ और Moles का अर्थ नियमित होना है। इस अर्थ में अनियमित व्यवहारों (irregular behaviour) का अध्ययन करने वाला मनोविज्ञान असामान्य मनोविज्ञान हैं।
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने Abnormal की व्याख्या कुछ दूसरे ढंग से की है। उन लोगों की राय में AbnormalAb और Normal दो शब्दों के मेल से बना है। Ab का अर्थ है away, इस अर्थ में Abnormal का अर्थ, Away from normal, अर्थात् सामान्य से दूर मानते हैं।
वास्तव में देखा जाये तो दोनों विचारों से असामान्य मनोविज्ञान की विषय वस्तु स्पष्ट नहीं होती है। मिला-जुलाकर ऊपरी दोनों परिभाषाएँ लगभग समान हैं। कोई आधुनिक मनोवैज्ञानिक ने असामान्य मनोविज्ञान को परिभाषित करने का प्रयास किया है। किस्कर (Kisker) ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है “मानव के वे व्यवहार और अनुभूतियाँ जो साधारणः अनोखी, असाधारण या पृथक हैं, असामान्य समझी जाती हैं।”
जेम्स ड्रेवर के अनुसार “असामान्य मनोविज्ञान की वह शाखा है, जिससे व्यवहार या मानसिक घटना की विषमता का अध्ययन किया जाता है।”
कोलमैन (Coleman) की परिभाषा से असामान्य मनोविज्ञान का स्वरूप बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कहा है, “असामान्य मनोविज्ञान, मनोविज्ञान का वह क्षेत्र है, जिसमें विशेष रूप से मनोविज्ञान के नियमों के समन्वय और विकास का अध्ययन असामान्य व्यवहार को समझने के लिए किया जाता है।
उपर्युक्त परिभाषा पर गौर किया जाए तो निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं –
1. असामान्य मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की एक शाखा है।
2. असामान्य मनोविज्ञान से व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों को समझने का प्रयास किया जाता है।
3. व्यक्ति के असामान्य व्यवहार को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक नियमों या सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है।
4. व्यक्ति के असामान्य व्यवहार के लक्षणों को दूर करने के लिए मनोवैज्ञानिक चिकित्सा-विधियों का सहारा लिया जाता है।
असामान्य मनोविज्ञान के क्षेत्र – असामान्य मनोविज्ञान की परिभाषा में कहा गया है कि इसमें व्यक्ति की असामान्य अनुभूतियों और व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है, लेकिन इतना कह देने से इसका क्षेत्र स्पष्ट नहीं होता। असामान्य मनोविज्ञान में असामान्य से संबंधित जिन विषयों का अध्ययन किया जाता है, उनका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित प्रकार है –
1. असामान्य अनुभूति और व्यवहारों का अध्ययन – व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों को समझने के लिए असामान्य मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है। जो व्यक्ति असामान्य होगा उसका व्यवहार भी आवश्यक रूप से असामान्य होगा, अतः ऐसे व्यक्ति के लक्षण, कारण तथा उपचार का अध्ययन असामान्य मनोविज्ञान के अंतर्गत किया जाता है।
2. अचेतन का अध्ययन – आधुनिक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों के माध्यम से यह बात साबित हो चुकी है कि व्यक्ति के समस्त अंसामान्य व्यवहारों को उसका अचेतन गम्भीर रूप से प्रभावित करता है। बहुत-से असामान्य व्यवहारों के कारणों को ज्ञात करने तथा उनका उपचार करने के लिए अचेतन का विश्लेषण करना आवश्यक होता है, इसलिए असामान्य मनोविज्ञान में अचेतन का अध्ययन अति आवश्यक है। फ्रायड ने असामान्य व्यवहारों को समझने के लिए अचेतन के अध्ययन पर बहुत अधिक बल दिया है।
3. मानसिक विकृतियों का अध्ययन – असामान्य मनोविज्ञान में मानसिक विकृतियों का अध्ययन किया जाता है, क्योंकि असामान्य व्यवहारों का मूल कारण मानसिक विकृतियाँ ही हैं। मानसिक विकृतियों को उसकी जटिलता के आधार पर दो भागों में बाँटा गया है, मन:स्नायु विकृति तथा मनोविकृति। इन विकृतियों के कारण लक्षण एवं इन्हें दूर करने के उपयों का अध्ययन करना असामान्य मनोविज्ञान का क्षेत्र है।
4. स्वप्न का अध्ययन – स्वप्न सभी व्यक्ति देखते हैं, लेकिन उसका अर्थ नहीं समझते। वास्तव में स्वप्न अचेतन इच्छाओं की अभिव्यक्ति है। इसके माध्यम से अचेतन को जाना जा सकता है जो सभी असामान्य व्यवहारों का मूल है। इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के स्वप्नों की व्याख्या एवं स्वप्न सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है।
5. प्रेरणा एवं अभियोजन का अध्ययन – किसी भी व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा का विशेष महत्व है। समुचित प्रेरणा में भी व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है, जिससे वातावरण में अभियोजन की क्षमता समाप्त हो जाती है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए असामान्य मनोविज्ञान में प्रेरणा के स्वरूप, भूमिका एवं प्रभाव आदि के साथ-साथ अभियोजन की प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
6. मनोरचनाओं का अध्ययन – मनोरचना एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति को संवेगात्मक तनावों से छुटकारा मिलता है। मनोरचनाओं के कारण व्यक्ति में असामान्य व्यवहार के लक्षण विकसित होते हैं। अतः असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत मनोरचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है। इन मनोरचनाओं में प्रतिगमन युक्ताभास, प्रक्षेपण, आत्मीकरण प्रतिक्रिया निर्माण, रूपान्तरण आदि प्रमुख हैं।
7. असामान्य व्यवहार के कारणों का अध्ययन – असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। अतः यह ज्ञात करना आवश्यक है कि व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों के क्या कारण हैं। बिना कारण जाने असामान्य व्यवहारों को दूर नहीं किया जा सकता है, इसीलिए असामान्य का क्षेत्र असामान्य के कारणों का अध्ययन करना भी है।
8. मनोलैंगिक विकास का अध्ययन – मनोलैंगिक विकास के तथ्य को सर्वप्रथम फ्रायड ने बतलाया है। उन्होंने कहा कि व्यक्तित्व के निर्माण में मनोलैंगिक विकास की प्रमुख भूमिका होती है। इस तथ्य को अधिकांश मनोवैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। अतः, स्पष्ट है कि व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों के पीछे मनोवैज्ञानिक विकास की अहम भूमिका होती है। इसे ध्यान में रखते हुए असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।
9. मनःस्नायु विकृति एवं मनोविकृति का अध्ययन – मन:स्नायु विकृति एवं मनोविकृति मानसिक रोग है। इस मानसिक रोगों के कारण व्यक्ति का व्यवहार अंसामान्य हो जाता है, अत: उन असामान्य व्यवहारों को समझने के लिए मन:स्नायु विकृति एवं मनोविकृति जैसी मानसिक बीमारियों का अध्ययन किया जाता है। उसके बाद उन मानसिक बीमारियों के लक्षणों एवं कारणों को जानकर उसकी चिकित्सा करते हैं। मन:स्नायु विकृति के अन्तर्गत हिस्टीरिया, झक-बाध्यता, मन:स्नायु, विकृति, चिन्ता, मन:स्नायु विकृति आदि सामान्य मानसिक रोग आते हैं, जबकि मनोविकृति के अन्तर्गत मनोविदलता, उत्साह-विषाद मनोविकृति, परानोइया आदि आते हैं। इन रोगों के लक्षण, कारण एवं उपचार इसके क्षेत्र में आते हैं।
10. यौन विकृतियों का अध्ययन – कुछ व्यक्तियों में यौन विकृतियाँ देखी जाती हैं, अर्थात् वे गलत ढंग से यौन इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। ऐसे व्यक्तियों के व्यवहारों को भी असामान्य कहा जाता है। जैसे-हस्तमैथुन, गुदामैथुन आदि। व्यक्ति के इन असामान्य व्यवहारों का अध्ययन करना भी असामान्य मनोविज्ञान के क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं।
11. मानसिक दुर्बलता – जो व्यक्ति मानसिक रूप से दुर्बल होते हैं, उनका व्यवहार भी असामान्य हो जाता है। अतः मानसिक दुर्बलता के कारण एवं लक्षण तथा निदान का अध्ययन भी असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत ही होता है।
12. मनोचिकित्सा का अध्ययन – असामान्य मनोविज्ञान एक व्यावहारिक विज्ञान है, अतः इसमें विभिन्न बीमारियों के कारणों का अध्ययन करने के पश्चात् उसकी चिकित्सा का उपाय करना भी है, अतः इसके अन्तर्गत कई मनोचिकित्सा प्रविधियों का अध्ययन किया जाता है। जैसे-समूह चिकित्सा, व्यवहार चिकित्सा, सम्मोहन आदि।
13. अपराध एवं बाल अपराध का अध्ययन – इस मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति के अपराध एवं बाल अपराध का अध्ययन भी किया जाता है। व्यक्ति के वैसे व्यवहार जो समाजविरोधी. होते हैं, उन व्यवहारों, का अध्ययन एवं उसे दूर करने के उपाय का अध्ययन भी असामान्य ही करता है।
Q. 54. What is Psychoanalysis Therapy ? Discuss the main stages of Psychoanalysis therapy and its disadvantages.
(मनोविश्लेषणं चिकित्सा विधि क्या है ? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करते हुए मनोविश्लेषण विधि के दोषों का वर्णन करें।)
Ans ⇒ मनोचिकित्सा के क्षेत्र में मनोविश्लेषण विधि का अपना अलग महत्त्व है। इस विधि के माध्यम से मामसिक रोगियों खासकर मन:स्नायु विकृति से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा में बहुत सहयोग मिलता है इस प्रविधि का प्रारंभ सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने किया था। उन्होंने एक महिला रोगी की चिकित्सा के सिलसिले में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस विधि के माध्यम से रोगी के अचेतन में दबी हुई भावनाओं को जानने और उसे चेतन में लाने का प्रयास किया जाता है।
मानसिक विकृतियों के सम्बन्ध में फ्रायड (Freud) का विचार है कि परिस्थिति की संगीनियों से जब व्यक्ति का अभियोजन नहीं हो पाता है, तो उसमें मानसिक संघर्ष होता है। अन्तर्द्वन्द्व के क्रम में वे सारी अनैतिक एवं असामाजिक इच्छाएँ अचेतन में दब जाती हैं। धीरे-धीरे वह वास्तविकता से दूर होता जाता है। उसके चेतन पर अचेतन हाबी हो जाता है। इस प्रकार व्यक्ति असामान्यता का शिकार हो जाता है। इस अवस्था में यदि उसे सहयोग दिया जाय, तो अचेतन के विचारों को वह समझ सकता है। उसे वास्तविकता का अभास हो सकता है और तब उसकी असामान्यता में भी कमी आ सकती है।
मनोविश्लेषण में रोगी से पूछकर उसके अचेतन तत्वों को पता लगाते हैं। शान्त, सुसज्जित कमरे में चिकित्सक और रोगी बैठते हैं और रोगी अपने अभिव्यक्ति का अवसर देते हैं। उसे अपनी बात कहने के लिए उत्तेजित करते हैं। रोगी अपने ढंग से बेतरतीब बोल सकता है। वह अन्यमनस्क
और निष्क्रिय हो सकता है। चिकित्सक हर प्रकार से अपनी तकनीकी विधाओं के सहारेकसके अचेतन को उभारने का प्रयास करता है। अचेतन को उभारने पर रोगी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने लगता है। चिकित्सक उसकी भावनाओं को नोट करता जाता है। इससे रोगी का पूरा इतिहास तैयार हो जाता है।
मनोविश्लेषण की अवस्थाएँ (Stages of Psychoanalysis) –
(i) आरंभिक अवस्था – आरंभिक अवस्था में सबसे पहले चिकित्सक रोगी का चयन करता है और यह देखता है कि इस विधि का लाभ उसे मिल सकता है या नहीं। इसके लिए उसका Interview लिया जाता है। साक्षात्कार में इस बात की भी जानकारी प्राप्त करते हैं कि रोगी अपनी चिकित्सक को सहयोग कर सकता है या नहीं।
इस विधि से चिकित्सा करने के लिए रोगी को सुसज्जित कमरे में कुर्सी पर बैठाया जाता है तथा सिरहाने में मनोचिकित्सक स्वयं बैठ जाता है तथा उसे बिना संकोच के कुछ कहने का निर्देश दिया जाता है। रोगी से इन बातों को उगलवाने के लिए उसके साथ आत्मीयता स्थापित करना आवश्यक है। इस प्रकार चिकित्सक उसकी गतिविधियों का निरीक्षण करता रहता है।
(ii) अवरोध की अवस्था – इस अवस्था में चिकित्सक को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। क्योंकि एक ऐसी अवस्था आती है जब रोगी चुप हो जाता है या अनाप-शनाप बकने लगता है। यहाँ चिकित्सक धैर्यपूर्वक तरह-तरह का प्रलोभन देकर उसके साथ आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर पुनः इस अवस्था में लाता है कि वह उन बातों को भी नि:संकोच बताए जो वह नहीं बोल पा रहा है।
(iii) स्थानान्तरण – यह मनोविश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण एवं नाजुक अवस्था है। स्थानान्तरण में दो बातें देखी जाती हैं। पहली बात तो यह कि रोगी चिकित्सक से कुछ बातों को छिपाना चाहता है. और चिकित्सक उन बातों को उससे उगलवाना चाहता है। इस स्थिति में रोगी चिकित्सक पर शक करने लगता है, यहाँ चिकित्सक को काफी धैर्य की आवश्यकता होती है। हो सकता है कि रोगी चिकित्सक के पास आना छोड़ दे या फिर झगड़े की नौबत आ जाय। यहाँ चिकित्सक घबड़ाता नहीं है, बल्कि उसके साथ स्नेहपूर्वक व्यवहार करके उसका विश्वासपात्र बनने का प्रयास करता है। यही प्रतिरोध की अवस्था है । इस प्रतिरोध का नकारात्मक पक्ष कहा जाता है। रोगी का विश्वास जब चिकित्सक पर जम जाता है तो वहाँ से प्रतिरोध का भावात्मक पक्ष प्रारम्भ हो जाता है। ऐसी अवस्था में रोगी जो कुछ भी चिकित्सक को बतलाता है उसका सीधा सम्बन्ध रोग से होता है। इन बातों को वह नोट करता जाता है तथा विश्लेषण करके उसके रोग के कारणों को समझने का प्रयास करता है। इस प्रकार चिकित्सक रोगी को वास्तविकता का ज्ञान कराता है और धीरे-धीरे रोग के लक्षणों को समाप्त करने में सहयोग प्रदान करता है। इस प्रकार रोगी के लक्षण धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं।
(iv) सम्बन्ध विच्छेद – यह अवस्था भी बहुत नाजुक है, क्योंकि चिकित्सक के साथ रोगी का जिस प्रकार का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, उसे एकाएक तोडने पर पनः दसरे लक्षण प्रकट होने की संभावना रहती है। इसलिए रोगी को अपने से अलग करने में कभी-कभी काफी समया, लग जाता है। इस अवस्था में रोगी के व्यक्तित्व का पुनर्निमाण होता है और रोगी पूरी तरह से सामान्य हो जाता है।
मनोचिकित्सा विधि के दोष – मनोविश्लेषण चिकित्सा विधि मानसिक रोगियों को रोगों से छटकारा दिलाने की एक अच्छी विधि है, परन्तु अन्य विधियों की तरह इस विधि में भी कई दोष हैं, जिससे रोगियों और चिकित्सकों को परेशानी उठानी पड़ती है और रोगी चंगा भी नहीं हो पाता है, मनोचिकित्सा विधि के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं –
1. सीमित कार्यक्षेत्र – मनोविश्लेषण-चिकित्सा प्रविधि का क्षेत्र बहुत ही सीमित है। इसके माध्यम से मनोविकृति, जैसे-मनोविदलता आदि रोगों की चिकित्सा संभव नहीं है। हाँ, इस विधि से मन:स्नायु विकृति जैसे-हिस्टीरिया आदि रोगों की चिकित्सा संभव है।
2. महँगी विधि – मनोविश्लेषण से मानसिक रोगियों को कुछ लाभ तो होता है, परन्तु इसके माध्यम से चिकित्सा करवाने में बहुत अधिक खर्च एवं समय लगता है। इसके माध्यम से चिकित्सा करने के लिए पूर्ण प्रशिक्षित चिकित्सक की आवश्यकता होती है तथा एक वर्ष में दो-चार रोगियों को ही अच्छा किया जा सकता है, अत: बहुत अधिक खर्च पड़ता है, जो केवल बहुत धनी लोगों के लिए संभव रहता है।
3. अधिक समय लगना – इस प्रविधि के माध्यम से बहुत अधिक समय लगता है। प्रत्येक रोगी को एक घंटा रोज समय देना होता है तथा यह समय अठारह माह से ऊपर लगता है। इस प्रकार लम्बी अवधि के कारण बहुत कम रोगियों की चिकित्सा हो पाती है।
4. मन्दबुद्धि के रोगी की चिकित्सा संभव नहीं – इस विधि से केवल मानसिक रोगियों की चिकित्सा संभव है, क्योंकि इसके रोगी में नैतिकता को बढ़ाया नहीं जा सकता है।
5. हानिकारक विधि – कुछ ऐसे भी मानसिक रोग हैं, जिसकी इस विधि से चिकित्सा करने पर लाभ की जगह हानि उठानी पड़ सकती है। खासकर स्थानान्तरण की अवधि में रोगी में कुछ अन्य विकृतियों के बढ़ने की संभावना रहती है। इसीलिए शेफर एवं लेजारस ने कहा है कि ऐसी मानसिक चिकित्सा में मनोविश्लेषक को चाहिए कि स्थानान्तरण की अवधि बहुत कम रखे।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि यह प्रविधि बहुत अधिक दोषपूर्ण है, परन्तु अन्य विधियों को यदि पूरक के रूप में रखकर चिकित्सा की जाय तो, इससे रोगी को विशेष लाभ मिल सकता है।
Q. 55. What is hypnosis therapy ? Discuss the advantages and disadvantages of hypnosis therapy.
(सम्मोहन चिकित्सा से आप क्या समझते हैं ? सम्मोहन चिकित्सा के गुण एवं दोषों का वर्णन करें।)
Ans ⇒ मनोचिकित्सा के क्षेत्र में सम्मोहन का एक आकर्षक इतिहास है। सर्वप्रथम सम्मोहन (hypnosis) का प्रयोग 1833 ई० में Braid ने किया था। Braid ने Suggestion द्वारा उत्पन्न एक Senseless अवस्था के लिए किया था। Braid ने इसे Neurohypnotims कहना पसंद किया था। बाद में अन्य विचारकों ने इसके लिए Hypnosis शब्द का प्रयोग किया। 1877 ई० में शार्को (Charcot) ने बतलाया कि सम्मोहन हिस्टीरिया के समान ही एक पैथोलॉजिकल अवस्था (Pathological Stage) है। फिर 1884 ई० में बर्नहिम (Bernhim) ने सम्मोहन की व्याख्या सुझाव (Suggestion) के सिलसिले में की। सच पूछा जाय, तो सम्मोहन का अर्थ कृत्रिम निद्रा है। यह निद्रा एक व्यक्ति में कृत्रिम ढंग से उत्पन्न करके दूसरे व्यक्ति को अचेतन अवस्था में ला देता है।अचेतन अवस्था में आने पर व्यक्ति सम्मोहित करने वाले व्यक्ति के सुझाव के अनुसार सभी क्रियाओं को करता है।
सम्मोहन की क्रिया सम्मोहन के Rapport पर निर्भर करती है। इस विधि के द्वारा मानसिक रोगियों को सम्मोहित करके अपने अचेतन मन में दमित इच्छाओं, अनुभवों आदि को अभिव्यक्त करने का Suggestion दिया जाता है। फलस्वरूप मानसिक रोगियों का उपचार आसान हो जाता है।
सम्मोहन उत्पन्न करने की अनेक विधियाँ हैं। सभी विधियों में Relaxation पर विशेष बल दिया जाता है। कुछ परिस्थितियों में चिकित्सक Relaxation में मदद पहुँचाने के लिए औषधि का सहारा लेता है। सम्मोहन में चिकित्सक Relaxation में मदद पहुँचाने के लिए औषधि का सहारा लेता है। सम्मोहन में रोगी को एक कुर्सी पर आराम से लिटाकर पास की किसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने का निर्देश दिया जाता है। रोगी को नींद लाने के लिए कई बार दवा भी दी जाती है। जब रोगी आराम से सो जाता है तो उसे कई प्रकार के सुझाव दिये जाते हैं। जैसे-“Relax, let yourself go listen only my voice-Relax and go to sleep-your eyes are feeling heavy Relax and go to sleep-Close your eyes and go to sleep-you are drawsy and tried-go to sleep go to sleep-निद्रा की अवस्था में आने पर परीक्षणों द्वारा यह जाँच की जाती है कि रोगी सम्मोहित हआ या नहीं। सम्मोहक उसे यह सझाव देता है कि वह आँखें खोले. पर साथ-ही-साथ यह भी कहा जाता है कि वह अपनी आँखों को खोल नहीं सकेगा। इसी प्रकार रोगी को यह कहा जा सकता है कि वह किसी तकलीफ. का अनुभव होता है या नहीं। इस प्रकार रोगी का निर्देश दिये जाते हैं और यदि रोगी उसके अनुसार काम करता है तो यह समझ जाते हैं कि व्यक्ति पूरी तरह से सम्मोहित हो चुका है। सम्मोहित की अवस्था में रोगी को सामान्य अवस्था में लाने के लिए सिर्फ संकेत मात्र देता है और व्यक्ति तरोताजा होकर अलग जाग उठता है।
सम्मोहित अवस्था की एक विशेषता यह भी है कि यदि व्यक्ति को इस अवस्था में निर्देश दिया जाता है, तो वह सामान्य अवस्था में आने पर उसके निर्देश के अनुसार कार्य सम्पन्न करता है। मनोविश्लेषण के क्षेत्र में इस क्रिया को Posthypnosis कहा जाता है।
मूल्यांकन (Values of hypnosis) – मनोचिकित्सा के रूप में Hysteria के रोगी को, विशेषकर Amnesia से पीड़ित रोगियों को सम्मोहन से काफी लाभ पहुँचाता है। सम्मोहन की अवस्था में रोगी अपने अचेतन मन में दमित इच्छाओं, अनुभवों और भावों को याद कर लेता है जिसे वह चेतन अवस्था में आने पर भी नहीं भूलता। साक्षात सुझाव के आधार पर Hypnosis के लक्षणों को दूर किया जा सकता है। Insomania के इलाज में नींद नहीं आती है। Insomania की चिकित्सा में Tension को कम करने में Neurotic habit से और भय से मुक्ति पाने में Hypnosis की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है।
सम्मोहन की सीमाएँ (Limitations of hypnosis) – यद्यपि चिकित्सा विधि के रूप में सम्मोहन से काफी लाभ पहुँचता है, फिर भी यह विधि सीमाओं से रहितः नहीं है। निम्नलिखित आधार पर इस विधि की आलोचनाएँ की जा सकती हैं।
(i) सम्मोहन के द्वारा कुछ ही प्रकार के रोगियों की चिकित्सा की जाती है। प्रत्येक व्यक्ति को सम्मोहित करना संभव नहीं है। प्रयोगों के आधार पर यह भी देखा गया है कि किसी को इच्छा के विरुद्ध सम्मोहित नहीं किया जा सकता है। सम्मोहन के लिए रोगी का सहयोग लेना आवश्यक है।
(ii) सम्मोहन के विरुद्ध यह आलोचना की जाती है कि यह Superficial form of therapy है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस विधि के द्वारा रोग के सिर्फ बाहरी लक्षणों को दूर किया जा सकता है। स्थायी चिकित्सा सम्मोहन द्वारा संभव नहीं है।
(iii) सम्मोहन का प्रभाव अस्थायी होता है। इसके द्वारा रोगी को जो Suggestion दिया जाता है वह काफी दिनों तक लाभदायक सिद्ध नहीं होता। रोग के लक्षण थोड़े दिनों के लिए हा दूर हो पाता है। पुनः कुछ दिनों के बाद रोग के लक्षण विकसित हो जाते हैं। अतः इसका प्रभाव अस्थायी होता है।
(iv) सम्मोहन का प्रयोग काफी कठिन है। सभी मनोचिकित्सक इसका उपयोग नहीं कर सकते। इसके लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, अतः यह विधि कुछ खास मनोचिकित्सकों तक ही सीमित है।
Q.56. मानव व्यवहार पर पड़ने वाले से संचार साधनों का वर्णन करें।
Ans ⇒ इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज विश्व जगत में नयी हलचल हुई है। इस नयी हलचल का वैश्विक परिदृश्य स्वतः ही उभरकर आया है जिसे हमारे और आपके सामने मीडिया अर्थात अखबार. पत्र-पत्रिकाओं. रेडियो, टी.वी. चैनल आदि ने परोसा है। आज जिस प्रकार परे विश्व में अनेक सामाजिक मुद्दों को उठाया जा रहा है वे न केवल मानव मूल्यों पर कुठाराघात कर रहे हैं वरन मानव की क्षमता, कुशलता एवं विवेक का समूल नाश कर रहे हैं। उन सब का दोष मिडिया को दिया जाए तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बच्चों को टी. वी. के माध्यम से हत्या, बलात्कार, आतंकवाद, चोरी आदि जैसी तथ्यों की जानकारी स्वतः ही मिल जाती है जिससे उसके मनोवृति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। टी. वी. के अश्लील चित्रों को देखकर उनके मन में सेक्स के प्रति रूझान बढ़ता है जो उनके मनोदशा को प्रभावित करता है। आज टी.वी. के माध्यम से पाश्चात्य संस्कृति को परोसा जा रहा है जिससे मानव मूल्यों में ह्रास की प्रवृति दृष्टिगोचर हुई है। बच्चे टी. वी. देखने में अधिक समय व्यतीत करते हैं। उसके कारण पढ़ने-लिखने की आदत तथा घर के बाहर की गतिविधियों जैसे खेलने, घूमने-फिरने में कमी आती है।
टेलीविजन देखने से बच्चों का ध्यान अपने लक्ष्य से हट सकता है। उनके समझने की शक्ति तथा उनकी सामाजिक अन्तक्रियाएँ भी प्रभावित हो सकती है। किंतु इसके विपरीत कुछ श्रेष्ठ कार्यक्रमा द्वारा सकारात्मक अभिवृत्तियों तथा उपयोगी तथ्यात्मक सूचनाएँ मीडिया से प्राप्त होती है। जो बच्चों को अभिकल्पित तथा निर्मित करने में सहायता करती हैं। वयस्कों और बच्चों के संबंध में यह कहा जाता है कि उनमें एक उपभोक्तावादी प्रवृत्ति विकसित हो रही है। क्योंकि मीडिया के माध्यम से बहुत से उत्पादों के विज्ञापन प्रचारित किए जाते हैं तथा किसी व्यक्ति के लिए उनके प्रभाव में आ जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इन परिणामों से यही निष्कर्ष निकलता है कि संचार के साधनों के माध्यम से मानव व्यवहार पर एक ओर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो दूसरी ओर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है।
Q.57. व्यक्तित्व की परिभाषा दें। व्यक्तित्व के प्रमुख गुणों की विवेचना करें।
Ans ⇒ व्यक्तित्व एक सामान्य शब्द है जिसका प्रयोग अक्सर लोग शारीरिक बनावट एवं बाह्य वेशभूषा के संबंध में करते हैं। परन्तु, वास्तव में यह व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व अंग्रेजी शब्द Personality का हिन्दी रूपांतर है। Personality का संबंध लैटिन भाषा के Personality शब्द से है जिसका अर्थ होता, नकली चेहरा। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसकी परिभाषाएँ दी हैं, परंतु अधिकांश लोगों द्वारा दी गई परिभाषाएँ अधूरी तथा एकांगी हैं।
वाटसन (Watson) ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है, “व्यक्तित्व उन क्रियाओं का योगफल है जिसे लम्बे समय तक निरीक्षण से विश्वसनीय सूचनाएँ प्राप्त की जाती है।” (Personality is the sum total of activities that can be observed a long period of time to give reliable information) शरमैन ने इस संबंध में कहा है, “व्यक्ति का विशिष्ट व्यवहार की व्यक्तित्व है।” (Personality is the characteristic behaviour of an individual.)
उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि कुछ मनोवैज्ञानिकों ने बाह्य रूप या स्थायी गुणों के आधार पर व्यक्तित्व को समझने का प्रयास किया है। वास्तव में इन मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व को समझने में भूल की है। सभी मनोवैज्ञानिकों ने इसे अपने ढंग से परिभाषित किया है।
आल्पोट (GW. Allport) ने इस प्रकार की पच्चीस परिभाषाओं की एक सूची बनायी और इसके पर्याप्त अध्ययन के पश्चात् एक उपयुक्त परिभाषा दिया है। उनके अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के अन्तर्गत उन मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जिन पर उसके वातावरण के प्रति होनेवाले विशिष्ट अभियोजन को निर्धारित करता है।” (Personality is the dynamic organization within the individual of those psychophysical system that determine his unique adjustment to his environment.)
इस प्रकार आल्र्पोट ने व्यक्तित्व को मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक गुणों का ऐसा संगठन माना है जो व्यक्ति को अपने वातावरण के साथ-साथ सामंजस्य को निर्धारित करता है। अपने परिभाषा में उन्होंने व्यक्तित्व को समय के अनुसार परिवर्तनशील माना है। अर्थात्, व्यक्तित्व रूका हुआ नहीं रहता, बल्कि परिवर्तित होता रहता है।
किम्बल यंग ने व्यक्तित्व की परिभाषा अलग ढंग से दी है। उनके अनुसार “हम व्यक्तित्व को एक व्यक्ति के अधिक या कम आदतों, गुणों, मनोवृत्तियों और विचारों के प्रमाणित संग्रह के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जो एक प्रकार से बाह्य रूप से कार्य एवं स्थितियों में संगठित रहते हैं तथा आंतरिक रूप से प्रेरणाओं, उद्देश्यों, और आत्मगत के तथ्यों से संबंधित रहते हैं। इस प्रकार व्यक्तित्व के दो कार्य एवं स्थितियाँ हैं जिनका तात्पर्य दूसरों को प्रभावित करने के लिए आचरण करने और जीवन संगठन या आत्मा, आन्तरिक प्रेरणाओं, उद्देश्यों से संबंधित स्वयं तथा अन्य के व्यवहार पर दृष्टिपात करने से है। संक्षेप में, यह प्रकट क्रियाओं एवं अर्थो से संबंधित है।” किम्बल युग की परिभाषा से स्पष्ट होता है कि उन्होंने व्यक्तित्व को बाह्य एवं आंतरिक दो प्रकार के तत्वों का संगठन माना है।
एन० एल० मन ने इस संबंध में कहा है, “व्यक्तित्व की परिभाषा एवं व्यक्ति का संरचना, व्यवहार के प्रतिमान, रुचियों, मनोवृत्तियों, क्षमताओं, योग्यताओं और अभिरुचियों के अत्यधिक विशिष्ट संगठन के रूप में की जाती है।”
व्यक्तित्व के निम्नलिखित प्रमुख शीलगुण हैं –
(i) सामाजिक (Sociability) – जिन व्यक्तियों में सामाजिक के शील गुण होते हैं उनमें सामाजिक कार्यों में सक्रियता देखी जाती है। ऐसा व्यक्ति हमेशा दूसरों की भलाई के लिए कार्य करता है। वह अधिक-से-अधिक व्यक्तियों से मिलना पसन्द करता है। वे स्वभाव से हँसमुख एवं मिलनसार होते हैं। ऐसे शीलगुण वाले व्यक्ति समाज में सफल नेता होते हैं। इस संबंध में गिलफोर्ड एवं जिमरमैन ने अध्ययन किया है और इस शीलगुण को काफी महत्वपूर्ण बताया है तथा इसे अपने परीक्षण गिरफोर्ड-जिसरमैन टेम्परामेंट सर्वे में शामिल किया है। जिन व्यक्तियों में ये गुण नहीं होते वे अनुयायी होते हैं।
(ii) प्रभुत्व (Ascendence) – कुछ व्यक्तियों में प्रभुत्व का गुण पाया जाता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा दूसरों पर अपना आधिपत्य तथा प्रभाव जमाने की कोशिश करता है। वह किसी कार्य में दूसरों को निर्देश देता है। इस प्रकार के शीलगुण वाले व्यक्ति अधिक क्रियाशील एवं झगडालू होते हैं। ऐसा व्यक्ति खेल का कप्तान, कॉलेज का प्रिंसिपल या सत्तावादी नेता होता है। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों में इस गुण का अभाव होता है, वे निष्क्रिय एवं दूसरे के निर्देशों पर चलना अधिक पसंद करते हैं। वे हमेशा चाहते हैं कि कोई उनका मार्गदर्शन करा सके। ऐसे व्यक्तियों में अधीनता का गुण पाया जाता है।
(iii) आक्रमणशीलता – जिस व्यक्ति में आक्रमणशीलता का गुण पाया जाता है, वह आक्रमणकारी व्यवहार करता है। ऐसे व्यक्ति समाज में आतंक फैलाते हैं। इनमें सहनशीलता की कमी होती है। ये बात-बात में उग्र धारण कर लेते हैं। दंगा आदि फैलाने में इनका बहुत बड़ा हाथ होता है। ऐसे व्यक्तियों में आधिपत्य भाव देखा जाता है।
(iv) ईमानदारी (Honesty) – जिन व्यक्तियों में ईमानदारी का गुण होता है वे सदैव ईमानदार होते हैं। ऐसे व्यक्ति न्याय करने में दूध का दूध पानी का पानी कर देते हैं।
(v) विनम्रता (Kindness) – ऐसे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति विनम्र होते हैं। यह शीलगुण आधिपत्य के ठीक विपरीत होता है। इस प्रकार के व्यक्ति आज्ञाकारी होते हैं। ये किसी व्यक्ति को दुश्व-तकलीफ नहीं दे सकते हैं तथा समाज में सौहार्द्र बनाए रखते हैं।
(vi) लज्जा (Shyness) – कुछ व्यक्ति बहुत ज्यादा लजालू होते हैं, वे लोगों के सामने आने पर लजाते हैं। ऐसे व्यक्ति सामाजिक नहीं होते, ये एकांत में रहना पसंद करते हैं तथा अपने विचारों में खोए रहते हैं। ये जितना अधिक लज्जा को छिपाने का प्रयास करते हैं उतना ही अधिक लजाते हैं।
(vii) हठ (Persistence) – ऐसे व्यक्ति जिनमें हठ का गुण होता है वे कठिन परिस्थितियों में भी अपने हठ पर अडिग रहते हैं, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लगातार प्रयास करते रहते हैं।
(viii) प्रतियोगिता (Competition) – प्रतियोगिता का शीलगुण अधिकांश व्यक्तियों में पाया जाता है, परन्तु किसी व्यक्ति में यह गुण ज्यादा होता है। इस प्रकार का गुणवाला व्यक्ति हमेशा दूसरों से आगे बढ़ने का प्रयास करता रहता है। आगे बढ़ने के लिए दूसरों को नुकसान नहीं पहुँचाता, बल्कि कठिन परिश्रम करता है।
(ix) संवेगात्मक अस्थिरता (Emotional instability) – जिन व्यक्ति में संवेगात्मक अस्थिरता का गुण होता है, उसकी मनोदशा में प्रायः उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति बिना कारण ही खुशी की मनोदशा से दुःख की मनोदशा में आ जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने संवेग की अभिव्यक्ति बिना हिचकिचाहट के करते हैं तथा काफी जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं। ये दिवास्वप्न अधिक देखते है तथा भविष्य में संभावित बुरे विचारों के बारे में सोच-सोच कर घबराते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें संवेगात्मक स्थिरता का गुण होता है।
(x) डाह – इस प्रकार के गुणवाला व्यक्ति दूसरों को नुकसान पहुँचाकर अपना लाभ चाहता है। ऐसे व्यक्ति लगभग सभी समाज में कुछ-न-कुछ होते हैं। ऐसा व्यक्ति दूसरे को नीचा दिखाने की ताक में रहता है। ये स्वभाव से बहुत खतरनाक होते हैं।
(xi) तंत्रिका ताप (Neuroticism) – आइजेंक ने तंत्रिका ताप को व्यक्तित्व का एक प्रमुख शीलगुण माना है। तंत्रिका ताप एक प्रकार की साधारण मानसिक विकृति है।
Q.58.बुद्धि के बहू-बुद्धि सिद्धान्त का वर्णन करें।
Ans ⇒ बहुबुद्धि सिद्धान्त प्रतिपादन होवार्ड गार्डनर (Howard Gardner, 1993, 1999) द्वारा किया गया। सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि कोई एकाकी क्षमता नहीं होती है बल्कि इसमें विभिन्न प्रकार की सामान्य क्षमताएँ सम्मिलित होती हैं। इन क्षमताओं को गार्डनर ने अलग-अलग बुद्धि प्रकार कहा है। ऐसे प्रकार के बुद्धि की चर्चा उन्होंने अपने सिद्धान्त में किया है और कहा है कि ये सभी प्रकार एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं। परंतु ये बुद्धि के सभी प्रकार आपस में अंतक्रिया (interaction) करते हैं और किस समस्या के समाधान में एक साथ मिलकर कार्य करते हैं। उन सभी नौ प्रकार के बुद्धि का वर्णन इस प्रकार हैं:
(i) भाषाई बुद्धि – (Linguistic intelligence) – इससे तात्पर्य भाषा के उत्तम उपयोग एवं उत्पादन की क्षमता से होता है। इस क्षमता के पर्याप्त होने पर व्यक्ति भाषा का उपयोग प्रवाही (fluently) एवं लचील (flexible) ढंग से कर पाता है। जिन व्यक्तियों में यह बुद्धि अधिक होती है, वे शब्दों में विभिन्न एवं उसका उपयोग के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं और अपने मन में एक उत्तम भाषाई प्रति (linguistic image) उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं।
(i) तार्किक – गणितीय बुद्धि (Logical-Mathematical intelligence) – इससे तात्पर्य समस्या समाधान (Problem solving) एवं वैज्ञानिक चिंतन करने की क्षमता से होता है। जिन व्यक्तियों में ऐसी बुद्धि अधिकता होती है, वे किसी समस्या पर तार्किक रूप से तथा आलोचनात्मक ढंग से चिंतन करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों में अमूर्त चिन्तन करने की क्षमता अधिक होती है तथा गणितीय समस्याओं समाधान में उत्तम ढंग से विभिन्न तरह के गणितीय संकेतों एवं चिन्हों (Signs) का उपयोग करते है।
(iii) संगीतिय बुद्धि (Mosical intelligence) – इससे तात्पर्य संगीतिय-लय (Rhythms) तथा पैटर्न (Patterns) के बोध एवं उसके प्रति संवेदनशीलता से होती है। इस तरह की बुद्धि पर व्यक्ति उत्तम ढंग से संगीतिय पैटर्न को निर्मित कर पाता है। वैसे लोग जिनमें इस तरह की बुद्धि की अधिकता होती है वे आवाजों के पैटर्न, कंपन, उतार-चढ़ाव आदि के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं और नए-नए उत्पन्न करने में भी सक्षम होते हैं।
(iv) स्थानिक बुद्धि (Spatial intelligence) – इससे तात्पर्य विशेष दृष्टि प्रतिमा तथा पैटर्न को सार्थक ढंग से निर्माण करने की क्षमता से होता है। इसमें व्यक्ति को अपनी मानसिक प्रतिमाओं को उत्तम से उपयोग करने तथा परिस्थितियों की माँग के अनुरूप उपयोग करने की पर्याप्त क्षमता होती है। जिन व्यक्तियों में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है, वे आसानी से अपने मन में स्थानिक वातावरण उपस्थित कर सकने में सक्षम हो पाते हैं। सर्जन, पेंटर, हवाईजहाज चालक, आंतरिक सजावट कर्ता (interior decorator) आदि में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है।
(v) शारीरिक गतिबोधक बुद्धि (Bodily dinesthetic intelligence) – इस तरह की बुद्धि में व्यक्ति अपने पूरे शरीर या किसी अंग विशेष में आवश्यकतानुसार सर्जनात्मक (Greative) एवं लचीले (Flexible) ढंग से उपयोग कर पाता है। नर्तकी, अभिनेता, खिलाड़ी, सर्जन तथा व्यायामी (gymnast) आदि में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है।
(vi) अंतर्वैयक्तिक बुद्धि (Interpersonal intelligence) – इस तरह की बुद्धि होने पर दूसरों के व्यवहार एवं अभिप्रेरक के सूक्ष्म पहलुओं को समझने की क्षमता व्यक्ति में अधिक होती है। ऐसे व्यक्ति दूसरों के व्यवहारों, अभिप्रेरणाओं एवं भावों को उत्तम ढंग से समझकर उनके साथ एक घनिष्ट संबंध बनाने में सक्षम हो पाते हैं। ऐसे बुद्धि मनोवैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं धार्मिक नेताओं में अधिक होती है।
(vii) अंतवैयक्तिक बुद्धि (Intrapersonal intelligence) – इस तरह की बुद्धि में व्यक्ति अपने भावों, अभिप्रेरकों तथा इच्छाओं को समझता है। इसमें व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्तियों एवं सीमाओं का उचित मूल्यांकन की क्षमता विकसित कर लेता है और इसका उपयोग वह अन्य लोगों के साथ उत्तम संबंध बनाने में सफलतापूर्वक उपयोग करता है। दार्शनिकों (Philosophers) तथा धार्मिक साधु-संतों में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है।
(viii) स्वाभाविक बुद्धि (Naturalisticintelligence) – इससे तात्पर्य स्वाभाविक या प्राकृतिक वातावरण की विशेषताओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाने की क्षमता से होती है। इस तरह की बुद्धि की अधिकता होने पर व्यक्ति प्रकृति के विभिन्न प्राणियों, वनस्पतियों एवं अन्य संबद्ध चीजों के बीच सूक्ष्म विभेदन कर पाता है तथा उनकी विशेषताओं की प्रशंसा कर पाता है। इस तरह की बुद्धि किसानों, भिखारियों, पर्यटकों (tourist) तथा वनस्पतियों (botanists) में अधिक पायी जाती है।
(ix) अस्तित्ववादी बद्धि (Naturalist intelligence) – इससे तात्पर्य मानव अस्तित्व, जिंदगी, मौत आदि से संबंधित वास्तविक तथ्यों की खोज की क्षमता से होता है। इस तरह की बुद्धि दार्शनिक चिंतकों (Philosopher thinkers) में काफी होता है। स्पष्ट हुआ है कि गार्डनर के बहुबुद्धि सिद्धान्त में कुल नौ तरह के बुद्धि की व्याख्या की गयी है, जिसपर मनोवैज्ञानिक का शोध अभी जारी है।
Q.59.बुद्धि परीक्षण के प्रकार का वर्णन करें।
Ans ⇒ बुद्धि की मात्रा सभी व्यक्तियों में एक समान नहीं होती है। किसी व्यक्ति की बुद्धि अधिक होती है तो किसी व्यक्ति की कम। बुद्धि मापन के लिए बनाये गये परीक्षणों के माध्यम से किसी व्यक्ति के वास्तविक बुद्धि का पता लगाया जा सकता है।
बुद्धि : मापन की दिशा में सर्वप्रथम सफल प्रयास बिने ने किया है। उन्होंने फ्रांस में साइमन की सहायता से तीन से पन्द्रह वर्ष के बच्चों की बुद्धि मापने के लिए एक परीक्षण का निर्माण किया, जिसे बिने-साइमन टेस्ट के नाम से जानते हैं। उनके टेस्ट में तीस समस्याएं थीं जो क्रमिक रूप से कठिनाई स्तर के अनुसार रखी गयी थीं। बिने-साइमन के टेस्ट में कुछ कमी महसूस की गयी थी, अत: बाद में चलकर कई बार संशोधन किया गया है। उसके बाद अन्य कई मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि-परीक्षण के लिए तरह-तरह के टेस्ट का निर्माण किया। अब तक जितने बुद्धि परीक्षणों का निर्माण किया जा चुका है उसे निम्नलिखित चार भागों में रखा गया है
1. वाचिक या शाब्दिक बुद्धि परीक्षण : वाचिक बुद्धि परीक्षण वैसे परीक्षण को कहा जाता है जिसमें भाषा की आवश्यकता होती है। इसके लिए प्रयोज्य की भाषा का ज्ञान आवश्यक है। इसमें कुछ प्रश्न लिखे होते हैं जिनका उत्तर प्रयोज्य को देना होता है। इन्हीं उत्तरों के आधार पर प्रयोज्य की बुद्धि का मापन होता है। इसके अंतर्गत बिने-साइमन टेस्ट, स्टर्नफोर्ड-बिने स्केल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। वाचिक परीक्षण के अधिकांश परीक्षण सामूहिक होते हैं अर्थात् इनके माध्यम से अनेक व्यक्तियों के बुद्धि का मापन एक साथ किया जा सकता है। जैसे-नौसेना, सामान्य वर्गीकरण परीक्षण, थलसेना सामान्य वर्गीकरण आदि। बिहार में भी इस प्रकार का परीक्षण डॉ. मोहसिन ने किया है।
शाब्दिक बुद्धि परीक्षण में कुछ ऐसे गुण हैं जिससे बुद्धि के मापन में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है। इसका सबसे पहला गुण है कि इससे वैयक्तिक परीक्षण द्वारा किसी व्यक्ति की बुद्धि का सही तौर पर मापन संभव होता है। इसका प्रमुख गुण है कि इस प्रकार के परीक्षण से कम-से-कम समय में अधिक व्यक्तियों की बुद्धि मापी जाती है। शाब्दिक परीक्षण की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इसके माध्यम से अमूर्त बुद्धि का मापन भी होता है। वाचिक बुद्धि परीक्षण में जहाँ एक ओर गुण हैं वहीं दूसरी ओर दोष भी हैं। इस परीक्षण के माध्यम से अनपढ़ व्यक्तियों की बुद्धि का मापन संभव नहीं है तथा इसके माध्यम से व्यक्ति की मूर्तबुद्धि का भी मापन नहीं हो सकता है।
2. क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण : क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण वैसे परीक्षण को कहते हैं जिसमें भाषा की आवश्यकता नहीं होती है, सिर्फ कुछ वस्तुओं को इधर-उधर घुमाकर समस्याओं का समाधान करना होता है। इसके माध्यम से अनपढ़ व्यक्तियों की भी बुद्धि मापी जा सकती है। वाचिक परीक्षण की तरह इसमें भी कठिनाई स्तर क्रमशः बढ़ता जाता है। पहली समस्या सरल होती है। दूसरी उससे कठिन, तीसरी दुसरी से कठिन, इसी प्रकार समस्या की कठिनाई बढ़ती जाती है। प्रयोज्य जितनी समस्याओं को हल करता है उसी के आधार पर बुद्धिलब्धि निकाला जाता है। क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण को अशाब्दिक परीक्षण भी कहा जाता है। इसके अंतर्गत ब्लॉक डिजाइन टेस्ट, पास-एलांग टेस्ट, क्यूब कंस्ट्रक्शन टेस्ट आदि प्रमुख हैं।
ब्लॉक डिजाइन का निर्माण कोह ने किया थ। इसमें दस डिजाइन होते हैं जिसे लकड़ी के ब्लॉक के माध्यम से बनाया जाता है। जो व्यक्ति जितने कम समय में समस्याओं का समाधान करता है उसे उतना ही अधिक अंक प्रदान किया जाता है। उसी प्राप्तांक के आधार पर बुद्धिलब्धि निकालते हैं।
धन रचना परीक्षण का निर्माण गांव से किया था। इसमें तीन उप-परीक्षण होते हैं। तीन काष्ठ के मॉडल होते हैं, जिन्हें देखकर गोटियों की सहायता से मॉडल बनाना होता है। मॉडल को बनाने में लगने वाले समय एवं अशुद्धियों के आधार पर प्राप्तांक दिये जाते हैं तथा बुद्धिलब्धि निकालते हैं।
पास-एलांग टेस्ट का निर्माण अलेक्जेंडर ने किया था। इसमें नौ पत्रक होतें हैं, जिस पर अलग-अलग डिजाइन बने होते हैं। इस टेस्ट में चार ट्रे होता है, जिसका एक किनारा लाल तथा दूसरा नीला होता है। इसमें गोटियों को बिना ट्रेसें उठाये लाल किनारे की तरफ से नीले किनारे की तरफ करना होता है। उसी में लगे समय के आधार पर अंक देते हैं तथा बुद्धिलब्धि निकालते हैं।
क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण में कुछ दोष भी हैं। इसके माध्यम से अमूर्त बुद्धि का समुचित मापन संभव नहीं है। इस प्रकार के परीक्षण से एक समय में एक ही व्यक्ति की बुद्धि का मापन होता है, अतः इसमें समय एवं श्रम अधिक लगता है।
3. वैयक्तिक बुद्धि-परीक्षण : वैयक्तिक बुद्धि-परीक्षण उसे कहते हैं जिसका प्रयोग एक समय में केवल एक ही व्यक्ति पर किया जा सकता है। इस प्रकार के परीक्षण का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसके माध्यम से बुद्धि की सही-सही जांच हो पाती है। परन्तु, इसमें समय एवं श्रम अधिक लगता है। इसके अंतर्गत वाचिक एवं क्रियात्मक बुद्धि-परीक्षण आते हैं। जैसे बिने-साइमन टेस्ट, वेश्लर-वैलव्य स्केल, पास-एलांग टेस्ट, क्यूब कंस्ट्रक्शन टेस्ट, ब्लॉक-डिजाइन टेस्ट आदि वैयक्तिक-बुद्धि-परीक्षण के अंतर्गत आते हैं।
4. सामूहिक बुद्धि-परीक्षण : सामूहिक बुद्धि-परीक्षण के माध्यम से एक समय में अनेक व्यक्तियों की बुद्धि मापी जा सकती है। इसके अंतर्गत आर्मी अल्फा, टेस्ट, आर्मी बीटा टेस्ट, मोहसिन सामान्य बुद्धि-परीक्षण, जलोटा सामूहिक बुद्धि-परीक्षण आदि आते हैं। सामूहिक बुद्धि-परीक्षण का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसके माध्यम से एक साथ कई प्रयोज्य की बुद्धि मापी जा सकती है। अतः इससे समय एवं श्रम की बचत होती है। इसका उपयोग व्यावसायिक चयन, शैक्षिक निर्देशन आदि में सफलतापूर्वक किया जाता है।
सामूहिक बुद्धि-परीक्षण में गुण के साथ-साथ दोष भी हैं। जब कई व्यक्तियों की बुद्धि को एक साथ मापा जाता है तो परीक्षक एक साथ सभी पर ध्यान नहीं दे पाता है, जिससे बुद्धि की सही जानकारी प्राप्त नहीं होती। छोटे बच्चों की बुद्धि का मापन इसके माध्यम से संभव नहीं है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अभी तक जितनी भी परीक्षणों का निर्माण हुआ है उनमें एक ओर गुण है तो दूसरी ओर दोष भी है। अत: किसी एक परीक्षण के माध्यम से बुद्धि की सही जानकारी प्राप्त नहीं होती है। इसलिए एक साथ कई परीक्षणों का प्रयोग कर बुद्धि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।