Class 12th Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 2
Q. 16. मनोवृत्ति क्या है ? इसके संघटकों का वर्णन करें।
Ans ⇒ समाज मनोविज्ञान में मनोवृत्ति की अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं। सचमुच में मनोवृति भावात्मक तत्त्व का एक तंत्र या संगठन होता है। इस तरह से मनोवृत्ति ए० बी० सी० तत्त्वों का एक संगठन होता है। इन तत्त्वों को निम्न रूप से देख सकते हैं –
(i) संज्ञानात्मक तस्व – संज्ञानात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति वस्तु के प्रति विश्वास से होता है।
(ii) भावात्मक तत्त्व – भावात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में वस्तु के प्रति सुखद या दुखद भाव से होता है।
(iii) व्यवहारपरक तत्त्व – व्यवहारपरक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति के पक्ष में तथा विपक्ष में क्रिया या व्यवहार करने से होता है।
मनोवृत्ति की इन तत्त्वों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –
(i) कर्षणशक्ति – मनोवृत्ति तीनों तत्त्वों में कर्षणशक्ति होता है। कर्षणशक्ति से तालिका मनोवृत्ति की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता की मात्रा से होता है। _
(ii) बहुविधता – बहुविधता की विशेषता यह बताती है कि मनोवृत्ति के किसी तत्त्व में कितने कारक होते हैं। किसी तत्त्व में जितने कारक होंगे उसमें जटिलता भी इतनी ही अधिक होगी। जैसे सह-शिक्षा के प्रति व्यक्ति की मनोवृत्ति को संज्ञा कारक, सम्मिलित हो सकते हैं-सह-शिक्षा किस स्तर से आरंभ होना चाहिए। सह-शिक्षा के क्या लाभ हैं, सह-शिक्षा नगर में अधिक लाभप्रद होता है या शहर में आदि। बहुविधता को जटिलता भी कहा जाता है।
(iii) आत्यन्तिकता – आत्यन्तिकता से तात्पर्य इस बात से होता है कि व्यक्ति को मनोवृत्ति के तत्त्व कितने अधिक मात्रा में अनुकूल या प्रतिकूल है।
(iv) केन्द्रिता – इसमें तात्पर्य मनोवृत्ति की किसी खास तत्त्व के विशेष भूमिका से होता है। मनोवत्ति के तीन तत्त्वों में कोई एक या दो तत्त्व अधिक प्रबल हो सकता है और तब वह अन्य दो तत्त्वों को भी अपनी ओर मोड़कर एक विशेष स्थिति उत्पन्न कर सकता है जैसे यदि किसी व्यक्ति को सह-शिक्षा की गुणवत्ता में बहुत अधिक विश्वास है अर्थात् उसका संरचनात्मक तत्त्व प्रबल है तो अन्य दो तत्त्व भी इस प्रबलता के प्रभाव में आकर एक अनुकूल मनोवृत्ति के विकास में मदद करने लगेगा। स्पष्ट है कि मनोवृत्ति के तत्त्वों की कुछ विशेषताएँ होती हैं। इन तत्त्वों की विशेषताओं मनोवृत्ति की अनुकूल या प्रतिकूल होना प्रत्यक्ष रूप से आधारित है।
Q.17.सामान्य और असामान्य व्यवहारों में अंतर स्पष्ट करें।
Ans ⇒ सामान्य तथा असामान्य व्यक्ति के व्यवहारों में अलग-अलग विशेषताएँ पायी जाती है। इनके बीच कुछ प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं –
S.N | सामान्य व्यक्ति | असामान्य व्यक्ति |
1. | सामान्य व्यक्ति का संपर्क वास्तविक से रहता है। वह अपने भौतिक, सामाजिक तथा आन्तरिक पर्यावरण के साथ संबंध बनाये रखता है। वास्तविकता को वह पहचान कर उसके प्रति तटस्थ मनोवृत्ति रखता है। | दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति का संबध वास्तविक से विच्छेदित रहता है। वह वास्तविक से दूर अपनी भिन्न दुनिया में खोया रहता है। |
2. | सामान्य व्यक्ति में सुरक्षा की भावना निहित रहती है। वह सामाजिक, पारिवारिक, व्यावसायिक तथा अन्य परिस्थितियों में अपने आपको सरक्षित महसस करता है। | दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति अपने बेवजह असुरक्षित महसूस करता है। |
3. | सामान्य व्यक्ति अपना आत्म-प्रबंध में सफल रहता है। वह खुद अपनी देखभाल तथा सुरक्षा करता रहता है। | दूसरी और व्यक्ति अपना आत्मप्रबंध करने में विफल रहता है। वह अपनी देखभाल तथा सुरक्षा हेतु दूसरों पर निर्भर रहता है। |
4. | सामान्य व्यक्ति के कार्यों में सहजता तथा स्वभाविकता होती है। वह समानुसार व्यवहार करने की योग्यता रखता है। साथ-ही-साथ ऐसे व्यक्तियों में संवेगात्मक परिपक्वता रहती है। | दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति विचित्र तथा अस्वाभाविक हरकतें करता है। उसमें परिस्थिति के अनुरूप व्यवहार करने की क्षमता का अभाव रहता है। |
5. | सामान्य व्यक्ति के व्यक्तित्व में सम्पूर्णता रहती है जिससे वह आंतरिक संतुलन बनाये रखता है। | दूसरी ओर असामान्य व्यक्तियों में इन गुणों का अभाव पाया जाता है। जिस कारण उनके व्यक्तित्व को विघटन होने लगता है। |
6. | सामान्य व्यक्ति अपना आत्म मूल्यांकन कर अपनी योग्यता एवं क्षमता को ध्यान में रख-कर अपने जीवन लक्ष्य का निर्धारण करता जिससे उन्हें वास्तविक जीवन में सफलता मिलती है। | दूसरी और असामान्य व्यक्ति वास्तविक आत्म मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं और अपनी खूबियों को चढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं जिससे उन्हें वास्तविक जीवन में सफलता मिलती है। |
7. | सामान्य व्यक्तियों में कर्त्तव्य बोध होता है। वे किसी कार्य को जिम्मेदारीपूर्वक स्वीकार कर उसे अपनाते हैं। वे गलत तथा सही दोनों के लिए जिम्मेवार होते हैं। | दूसरी ओर असामान्य व्यक्तियों में यह उत्तर दायित्व-भाव नहीं रहता है। ये सही अथवा गलत किसी के लिए भी जिम्मेवारी नहीं स्वीकारते है। |
8. | सामान्य व्यक्ति का सामाजिक अभियोजन कुशल होता है। ये सामाजिक मूल्य एवं मर्यादा के अनुकूल व्यवहार दिखलाते हैं।अतः वे समाज में लोकप्रिय भी रहते हैं। | दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति का सामाजिक अभियोजन कुशल नहीं होता है। ये समाज से कटे तथा विपरीत व्यवहार प्रदर्शित करने वाले होते हैं। अतः ये समाज में उपहास के पात्र होते हैं। |
Q.18. समूह निर्माण को समझने में टकमैन का मॉडल किस प्रकार से सहायक है ? व्याख्या करें।
Ans ⇒ टकमैन का मॉडल – टकमैन (Tuckman) ने बताया है कि समूह पाँच विकासात्मक अनुक्रमों से गुजरता है। ये पाँच अनुक्रम हैं-निर्माण या आकृतिकरण, विप्लवन या झंझावात, प्रतिमान या मानक निर्माण, निष्पादन एवं समापन।
(i) निर्माण की अवस्था – जब समूह के सदस्य पहली बार मिलते हैं तो समूह. लक्षा को प्राप्त करने के संबंध में अत्यधिक अनिश्चितता होती है। लोग एक-दूसरे को जानने का हैं और वह मूल्यांकन करते हैं कि क्या वे समूह के लिए उपयुक्त रहेंगे। यहाँ उत्तेजना के साथ ही साथ भय भी होता है। इस अवस्था को निर्माण या आकृतिकरण की अवस्था (forming stage) कहा जाता है।
(ii) विप्लवन की अवस्था – प्रायः इससे अवस्था के बाद अंतर-समूह द्वंद्व की अवस्था होती है जिसे विप्लवन या झंझावात (Storming) की अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में समूह के सदस्यों के बीच इस बात को लेकर द्वंद्व चलता रहता है कि समूह के लक्ष्य को कैसे प्राप्त करना है कौन समूह एवं उसके संसाधनों को नियंत्रित करने वाला है और कौन क्या कार्य निष्पादित करने वाला है। अवस्था के संपन्न होने के बाद समूह में नेतृत्व करने के लक्ष्य को कैसे प्राप्त करना है इसके लिए क्या स्पष्ट दृष्टिकोण होता है।
(iii) प्रतिमान अवस्था – विप्लवन या झंझावत की अवस्था के बाद एक दूसरी अवस्था आती है जिसे प्रतिमान या मानक निर्माण (Forming) की अवस्था के नाम से जाना जाता है। इस अवधि में समूह के सदस्य समूह व्यवहार से संबंधित मानक विकसित करते हैं। यह एक सकारात्मक समूह
अनन्यता के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।
(iv) निष्पादन (Performing) – चतुर्थ अवस्था निष्पादन की होती है। इस अवस्था तक समूह की संरचना विकसित हो चुकी होती है और समूह के सदस्य इसे स्वीकृत कर लेते हैं समूह लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में समूह अग्रसर होता है। कुछ समूहों के लिए समूह विकास की अंतिम व्यवस्था हो सकती है।
(v)समापन की अवस्था – तथापि कुछ समूहों के लिए जैसे-विद्यालय समारोह सदस्यता के लिए आयोजन समिति के संदर्भ में एक अन्य अवस्था हो सकती है जिसे समापन की अवस्था (Adjourning stage) के नाम से जाना जाता है। इस अवस्था में जब समूह का कार्य पूरा हो जाता है तब समूह भंग किया जा सकता है।
Q.19. प्रतिबल क्या है? इसके कारणों का वर्णन करें।
Ans ⇒ प्रतिबल एक ऐसी शारीरिक मानसिक दबाव की अवस्था है जिसकी उत्पत्ति आवश्यकता की पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो जाने से होती है और इसका बुरा प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक जगत् पर पड़ता है जिसके कारण व्यक्ति इससे किसी भी प्रकार छुटकारा पाना चाहता है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि प्रतिबल एक दबाव की अवस्था है। यह दबाव शारीरिक या मानसिक किसी भी रूप में हो सकता है। इसकी उत्पत्ति आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा होने के कारण होती है। इसका बुरा प्रभाव शारीरिक और मानसिक जगत् पर पड़ता है, और व्यक्ति इससे छुटकारा पाना चाहता है।
साधारण प्रतिबल व्यक्ति के जीवन में गति प्रदान करनेवाली शक्ति है, जबकि अधिक तीव्र प्रतिबल अधिक घातक होते हैं। प्रतिबल की तीव्रता आवश्यकता की तीव्रता पर निर्भर करता है। व्यक्ति के प्रतिबल के प्रति सहनशीलता अलग-अलग मात्रा में पायी जाती है। प्रतिबल को निर्धारित करने वाले कई कारक हैं। इन कारकों में निराशा, संघर्ष, दबाव आदि प्रमुख हैं। व्यक्ति में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति में बाधा उपस्थिति होती है तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति निराशा का शिकार हो जाता है। यह प्रतिबल का प्रमुख निर्धारक है। कौलमैन ने संघर्ष को प्रतिबल का एक महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना है। जब व्यक्ति किसी कारण वश मानसिक संघष का सामना करता है तो उसमें प्रतिबल की संभावना बहुत अधिक होती है। इसके अलावा दबाव से दबाव का अनुभव करता है। यह भी प्रतिबल को निर्धारण करता है।
Q. 20. व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल से आप क्या समझते हैं ? व्याख्या करें।
Ans ⇒ व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल के प्रतिपादक सिगमंड फ्रायड हैं। इस सिद्धांत के अनसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं – इदम् या इड (id), अहं (ego) और पराहम (super ego)। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है।
इड – यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तष्टि से होता है। यह सखेप्सा-सिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।
अहं – इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की, यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्रायः इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है. उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता है कि दुकानदार से पूछे बिना यदि आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दण्ड का भागी हो सकता है। वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग अवास्तविक और सुखेप्सा सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।
पराहम् – पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम् इड और अहं को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है। उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।
इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन मन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जा से निर्मित हुआ है। इड, अहं और पराहम की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति की स्थिरता का निर्धारण करती है।
Q.21. टाइप-ए तथा टाइप-बी प्रकार के व्यक्तित्व में अंतर करें।
Ans ⇒ हाल के वर्षों में फ्रीडमैन एवं रोजेनमैन ने टाइप ‘ए’ तथा टाइप ‘बी’ इन दो प्रकार के व्यक्तित्वों में लोगों का वर्गीकरण किया है। इन दोनों शोधकर्ताओं ने मनोसामाजिक जोखिम वाले कारकों का अध्ययन करते हुए उन प्रारूप की खोज की। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोग में उच्च स्तरीय अभिप्रेरणा, धैर्य की कमी, समय की कमी का अनुभव, उतावलापन और कार्य के बोझ से हमेशा लदे रहने का अनुभव करना पाया जाता है। ऐसे लोग निश्चिंत होकर मंद गति से कार्य करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोग अतिरिक्त दान और कारनरी हृदय रोग के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं। इस प्रकार के लोगों में कभी-कभी सी. एच डी. विकसित होने का खतरा, उच्च रक्त दाब, उच्च कोलेस्ट्रॉल स्तर और धूम्रपान से उत्पन्न व्यक्तित्व को टाइप ‘ए’ होनेवाले खतरों की अपेक्षा अधिक होती है। उसके विपरीत टाइप ‘बी’ व्यक्तित्व की व्यक्तित्व की विशेषताओं के अभाव के रूप में जाना जाता है।
Q.22. निर्धनता को दूर करने के उपायों का सुझाव दें। अथवा, गरीबी के उन्मलन के लिए एक योजना बनाइए।
Ans ⇒ निर्धनता को दूर करने के उपाय निम्नलिखित हैं –
1. कृषि तथा उद्योग में अधिक-से – अधिक रोजगार उत्पन्न करना – यदि देश के उद्योग धन्धे तथा कृषि पर अधिक बल दिया जाता है तो अधिक रोजगार के साधन उपलब्ध होते बेरोजगारी समाप्त होगी, व्यक्तियों की आय बढेगी और निर्धनता पर नियंत्रण होगा। इसके सरकार को सकारात्मक उपाय करने चाहिए।
2. जनसंख्या नियंत्रण – निर्धनता कम करने के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण करना आवश्यक है। जनसंख्या वृद्धि से विकास का परिणाम लुप्त हो जाता है तथा निर्धनता बढ़ती है। अतः जनसंख्या को नियंत्रित करने से विकासात्मक उपायों से आय बढ़ेगी।
3. काले धन को समाप्त करना – काला धन चोरी करके छुपाई गई आय है जिस पर कर अदा नहीं किया जाता है। यह धन भ्रष्ट कार्यों में लगाया जाता है। इससे आर्थिक शोषण बढ़ता है तथा निर्धनता बढ़ती है। अतः निर्धनता को कम करने के लिए काले धन को बाहर निकाला जाना चाहिए।
4. वितरणात्मक न्याय – विकास को प्राप्त होने वाले लाभ का यथोचित वितरण होना चाहिए। विकास के लाभ निर्धनों तक पहुँचना चाहिए। धनी व्यक्तियों पर कर (tax) का भार डालकर निर्धनों पर खर्च किया जाना चाहिए।
5. योजना का विकेन्द्रीकरण तथा कार्यान्वन – सरकार द्वारा गरीबों की भलाई के लिए चलाई गई योजनाओं का विकेन्द्रीकरण नहीं होगा तब तक ग्राम पंचायतों द्वारा निर्धन व्यक्ति की पहचान नहीं हो सकेगी तथा इन योजनाओं का लाभ गरीबों तक नहीं पहुँचेगा।
6. मनष्य प्रमि स्वामित्व – भू-स्वामी अपनी जमीन को जोतने के लिए गरीबों को देकर उपज का पर्याप्त भाग अपने पास रख लेते हैं। अतः जो जमीन को जोते स्वामित्व उसी का होने से यह शोषण नहीं हो पाएगा। जानकी
7 विभिन उपाय – ऋणदायी संस्थाओं में कम दरों पर ऋण देना, पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत करना, युवकों को रोजगार करने योग्य बनाना, आदि उपाय भी सहायक हैं।
Q.23. मनोगत्यात्मक चिकित्सा क्या है ? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
Ans ⇒ मनोगत्यात्मक चिकित्सा का प्रतिपादन सिगमंड फ्रायड द्वारा किया गया। मनोगत्यात्मक चिकित्सा ने मानस की संरचना, मानस के विभिन्न घटकों के मध्य गतिकी और मनोवैज्ञानिक कष्ट के स्रोतों का संप्रत्ययीकरण किया है। यह उपागम अतः मनोद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है। अतः, उपचार में पहला चरण उसी अन्तद्वन्द्व को बाहर निकालना है। मनोविश्लेषण ने अंत:द्वंद्व को बाहर निकालने के लिए दो महत्त्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य विधि तथा स्वप्न व्याख्या विधि का आविष्कार किया। मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुक्त रूप से संबद्ध करन के प्रोत्साहित किया जाता है और उस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम तथा सतर्क अहं को प्रसप्तावस्था में रखा जाता है। चूंकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं कर इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित किए रहे हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगते हैं।
उपचार की प्रावस्था :
अन्यारोपण (transference) तथा व्याख्या या निर्वचन (interpretation) रोगी का उपचार करने के उपाय हैं। जैसे ही अचेतन शक्तियाँ उपरोक्त मुक्त साहचर्य एवं स्वप्न व्याख्या विधियों द्वारा सचेतन जगत में लाई जाती है, सेवार्थी चिकित्सा की अपने अतीत सामान्यतः बाल्यावस्था के आप्त व्यक्तियों के रूप में पहचान करने लगता है। चिकित्सक एक अनिर्णयात्मक तथापि अनुज्ञापक अभिवृत्ति बनाए रखता है और सेवार्थी को सांवेगिक पहचान स्थापित करने की उस प्रक्रिया को जारी रखने का अनुमति देता है। यही अन्यारोपण की प्रक्रिया है। चिकित्सक उस प्रक्रिया को प्रोत्साहन देता है क्योंकि उससे उसे सेवार्थी के अचेतन द्वंद्वों को समझने में मदद मिलती है सेवार्थी अपनी कुंठा, क्रोध, भय और अवसाद जो उसने अपने अतीत में उस व्यक्ति के प्रति अपने मन में रखी थी लेकिन उस समय उनकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाया था को चिकित्सक के प्रति व्यक्त करने लगता है उस अवस्था को अन्यारोपण कहते हैं।
सकारात्मक अन्यारोपण में सेवार्थी चिकित्सक की पूजा करने लगता है या उससे प्रेम करने लगना है कि चिकित्सक का अनुमोदन चाहता है। नकारात्मक अन्यारोपण तब प्रदर्शित होता है, जब सेवार्थी में चिकित्सक के प्रति शत्रुता, क्रोध अप्रसन्ता की भावना होती है। अन्यारोपण प्रक्रिया में प्रतिरोध भी होता है।
निर्वचन मूल युक्ति है जिसमें परिवर्तन को प्रभावित किया जाता है। प्रतिरोध एवं स्पष्टीकरण निर्वचन की दो विश्लेषणात्मक तकनीक है। प्रतिरोध में चिकित्सक सेवार्थी के किसी एक मानसिक पथ की ओर संकेत करता है। जिसका सामना सेवार्थी को अवश्य करना चाहिए। स्पष्टीकरण एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से चिकित्सक किसी अस्पष्ट या भ्रामक घटना को केन्द्र बिन्दु में लाता है। यह घटना के महत्त्वपूर्ण विस्तृत वर्णन को महत्त्वहीन. वर्णन से अलग करके तथा विशिष्टता प्रदान करके किया जाता है। निर्वचन एक अधिक सूक्ष्म प्रक्रिया है। प्रतिरोध, स्पष्टीकरण तथा निर्वचन को प्रयुक्त करने की पुनरावृत्ति प्रक्रिया को समाकलन कार्य कहा जाता है। समाकलन कार्य रोगी को अपने आपको और अपनी समस्याओं के स्रोत को समझने में तथा बाहर आई सामग्री को अपने अहं में समाकलित करने में सहायता करता है।
Q.24. पूर्वधारणा को दूर करने की किन्हीं तीन विधियों का वर्णन करें।
Ans ⇒ पूर्व धारणा को दूर करने की तीन विधियाँ निम्नलिखित हैं –
1. शिक्षा एवं सूचना के प्रसार के द्वारा विशिष्ट लक्षण समूह से संबद्ध रूढ़ धारणाओं को संशोधित करना एवं प्रबल अंत:समूह अभिन्न की समस्या से निपटना।
2. अंत:समूह संपर्क को बढ़ाना प्रत्यय सम्प्रेषण समूहों के मध्य अविश्वास को दूर करने तथा बाह्य समूह के सकारात्मक गुणों की खोज करने का अवसर प्रदान करता है। ये युक्ति तभी सफल होती है जब
(i) दो समूह प्रतियोगी संदर्भ के स्थान पर एक सहयोगी संदर्भ में मिलते हैं।
(ii) समूह के माध्य घनिष्ठ अन्तःक्रिया एक दूसरे को समझने या जानने में सहायता करती है।
(iii) दोनों समूह शक्ति या प्रतिष्ठा में भिन्न नहीं होते हैं।
3. समूह अनन्यता की जगह व्यक्तिगत अनन्यता को विशिष्टता प्रदान करना अर्थात् दूसरे व्यक्ति के मूल्यांकन के आधार के रूप में समूह के महत्त्व को बलहीन करना।
अतः पूर्वाग्रह नियंत्रण की युक्तियाँ तब अधिक प्रभावी होंगी जब उनका प्रयास होगा –
(i) पूर्वाग्रहों के अधिगमन के अवसरों को कम करना।
(ii) ऐसी अभिवृत्तियों को परिवर्तित करना।
(iii) अन्तःसमूह पर आधारित संकुचित सामाजिक अनन्यता के महत्त्व को कम करना तथा
(iv) पूर्वाग्रह वे शिकार लोगों में स्वतः साधक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना।
Q.25. साक्षात्कार कौशल क्या है ? इसके चरणों का वर्णन करें।
अथवा, साक्षात्कार कार्य कौशल क्या है ? साक्षात्कार प्रारूप के विभिन्न अवसर का वर्णन करें।
Ans ⇒ साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता को विभिन्न चरणों से होकर गुजरना पडता है कि विवरण निम्नलिखित है –
(i) प्रारंभिक अवस्था – यह साक्षात्कार की सबसे पहली अवस्था है। वास्तव में साक्षात्कार की सफलता उसकी प्रारंभिक तैयारी पर ही निर्भर होती है। यदि इस अवस्था में गलतियाँ होगी तो साक्षात्कार का सफल होना संभव नहीं है।
(ii) प्रश्नोत्तर की अवस्था – साक्षात्कार की यह सबसे लंबी अवस्था है। इस अवस्था में साक्षात्कारकर्ता साक्षात्कारदाता से प्रश्न पूछता है और साक्षात्कारदाता उसके प्रश्नों को सावधानीपूर्वक सुनता है और कुछ रूककर उसे समझता है, उसके बाद उत्तर देता है। उसके उत्तर देते समय साक्षात्कारकर्ता उसके हाव-भाव, मुखाकृति का भी अध्ययन करता है।
(iii) समापन की अवस्था – साक्षात्कार का यह सबसे अंतिम चरण है। जब साक्षात्कारकर्ता को सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाय और ऐसा अनुभव हो कि उसे महत्त्वपूर्ण बातों की जानकारी प्राप्त हो चुकी है तो साक्षात्कार का समापन किया जाता है। इस अवस्था में साक्षात्कारदाता के मन में बननेवाली प्रतिकूल अवधारणा का निराकरण करना चाहिए। साक्षात्कारदाता भी जब यह कहता है कि और कुछ पूछना है तो उसे प्रसन्नीपूर्वक समापन की सूचना देनी चाहिए तथा सफल साक्षात्कार के लिए उसे धन्यवाद भी देना चाहिए।
Q.26. मानव व्यवहार पर पर्यावरणीय प्रभावों का वर्णन करें।
अथवा, “मानव पर्यावरण को प्रभावित करते हैं तथा उससे प्रभावित होते हैं। इस कथन की व्याख्या उदाहरणों की सहायता से कीजिए।
Ans ⇒ पर्यावरण पर मानव प्रभाव-मनुष्य भी अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं। निर्मित पर्यावरण के सारे उदाहरण पर्यावरण के ऊपर मानव प्रभाव को अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिये, मानव ने जिसे हम ‘घर’ कहते हैं, उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जिससे कि उन्हें एक आश्रय मिल सके। मनुष्यों के इस प्रकार के कुछ कार्य पर्यावरण को क्षति भी पहुँचा सकते हैं और अंततः स्वयं उन्हें भी अनेकानेक प्रकार से क्षति पहुँचा सकते हैं। उदाहरण के लिए, मनुष्य उपकरणों का उपयोग करते हैं, जैसे-रेफ्रीरजेटर तथा वातानुकूलन यंत्र जो रासायनिक द्रव्य (जैसे-सी.एफ.सी. या क्लोरो-फ्लोरो कार्बन) उत्पादित करते हैं, जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा अंततः ऐसे शारीरिक रोगों के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं, जैसे कैंसर के कुछ प्रकार। धूम्रपान के द्वारा हमारे आस-पास की वायु प्रदूषित होती हैं तथा प्लास्टिक एवं धातु से बनी वस्तुओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाली प्रभाव होता है। वृक्षों के कटान या निर्वनीकरण के द्वारा कार्बन चक्र एवं जल चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है। इससे अंततः उस क्षेत्र विशेष में वर्षा के स्वरूप पर प्रभाव पड़ सकता है और भू-क्षरण तथा मरुस्थलीकरण में वृद्धि हो सकती है। वे उद्योग जो निस्सारी का बहिर्वाह करते हैं तथा इस असंसाधित गंदे पानी को नदियों में प्रवाहित करते हैं, इस प्रदूषण के भयावह भौतिक (शारीरिक) तथा मनोवैज्ञानिक परिणामों से तनिक चिंतित प्रतीत नहीं होते हैं।
मानव व्यवहार पर पर्यावरणी प्रभाव :
(i) प्रत्यक्षण पर पर्यावरणी प्रभाव – पर्यावरण के कुछ पक्ष मानव प्रत्यक्षण को प्रभावित हैं। उदाहरण के लिए, अफ्रीका की एक जनजाति समाज गोल कुटियों (झोपड़ियों) में रहती है अर्थात ऐसे घरों में जिनमें कोणीय दीवारें नहीं हैं। वे ज्यामितिक भ्रम (मूलर-लायर भ्रम) में कम त्रटि प्रदर्शित करते हैं. उन व्यक्तियों की अपेक्षा जो नगरों में रहते हैं और जिनके मकानों में कोणीय दीवारें होती हैं।
(ii) संवेगों पर पर्यावरणी प्रभाव – पर्यावरण का प्रभाव हमारी सांवेगिक प्रतिक्रियाओं पर भी पडता है। प्रकृति के प्रत्येक रूप का दर्शन चाहे वह शांत नदी का प्रवाह हो, एक मुस्कुराता हुआ फूल हो या एक शांत पर्वत की चोटी हो, मन को एक ऐसी प्रसन्नता से भर देता है जिसकी तुलना किसी अन्य अनुभव से नहीं की जा सकती। प्राकृतिक विपदाएँ, जैसे-बाढ़, या सूखा, भू-स्खलन, भूकंप चाहे पृथ्वी के ऊपर हो या समुद्र के नीचे हो, वह व्यक्ति के संवेगों पर इस सीमा तक प्रभाव डाल सकता है कि वे गहन अवसाद और दुःख तथा पूर्ण असहायता की भावना और अपने जीवन पर नियंत्रण के अभाव का अनुभव करते हैं। मानव संवेगों पर ऐसा प्रभाव एक अभिघातज अनुभव है जो व्यक्तियों के जीवन को सदा के लिये परिवर्तित कर देता है तथा घटना के बीत जाने के बहुत समय बाद तक भी अभिघातज उत्तर दबाव विकार (Post-traumatic stress disorder-PTdS) के रूप में बना रहता है।
(iii) व्यवसाय, जीवन – शैली तथा अभिवृतियों पर पारिस्थितिक का प्रभाव-किसी क्षेत्र का प्राकृतिक पर्यावरण या निर्धारित करता है कि उस क्षेत्र के निवासी कृषि पर (जैसे-मैदानों में) या अन्य व्यवसायों, जैसे-शिकार तथा संग्रहण पर (जैसे-वनों, पहाड़ों या रेगिस्तानी क्षेत्रों में) या उद्योगों पर (जैसे-उन क्षेत्रों में जो कृषि के लिए उपजाऊ नहीं हैं) निर्भर रहते हैं परन्तु किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों के व्यवसाय भी उनकी जीवन-शैली और अभिवृत्तियों का निर्धारण करते हैं।
Q.27. मनोविदलता के लक्षणों का वर्णन करें।
Ans ⇒ मनोविदलता (Schizopherenia) को पहले dementia praecox के नाम से जाता था। Dementia praecox शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग क्रेपलिन ने किया था, जिसका तात्पर्य मनोविचछन्नता होता है। Schizophrenia शब्द का सर्वप्रथम ब्ल्यू मर (Bleumer) ने 1911 ई. में किया था। उन्होंने कहा है कि इस रोग में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विभाजन हो जाता है। बाद में इस अर्थ को भी छोड़ दिया गया। आधुनिक युग में इस संबंध में अनेक अनुसंधान किए जा रहे हैं तथा इसकी परिभाषा देते हुए जे. सी. कोलमैन (J.C. Coleman) ने कहा है, “मनोविदलता वह विवरणात्मक पद है जिसमें मनोविकृति से संबंधित कई विकारों का बोध होता है। इसमें बड़े पैमाने पर वास्तविकता तोड़-मरोड़कर दिखायी देती है। रोगी सामाजिक अन्तः क्रियाओं से पलायन करता है। व्यक्ति का प्रत्यक्षीकरण, विचार और संवेग, अपूर्ण और विघटित रूप में होते हैं।”
लक्षण (Symptoms) – मनोविदलता के रोगियों में बहुत प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक लक्षण देखे जाते हैं, जिनमें कुछ मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं –
1. संवगात्मक उदासीनता – मनोविदलता की रोगी संवेगात्मक रूप से उदासीन रहता है, अर्थात् रोगी emotional apathy में पाया जाता है। फिशर (Fisher) ने emotional apathy को मनोविदलता का Most Common Symptom स्वीकार किया है। रोगी बाह्य वातावरण के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है। यहाँ तक कि यदि उसके परिवार में किसी व्यक्ति की मौत हो जाय, तो भी उसे किसी प्रकार का दुःख की अनुभूति नहीं होती। प्रश्न पूछे जाने पर वह संक्षिप्त उत्तर देता है। कभी-कभी दो विरोधी संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ एक साथ देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए उसमें रोने और हँसने की क्रिया एक साथ देखी जा सकती है। रोगी अपने शारीरिक अवस्थाओं के प्रति काफी उदासीन होता है। उसे खाने-पीने की कोई परवाह नहीं रहती। मैकडूगला ने भी emotional apathy को इस मानसिक रोग का एक प्रमुख लक्षण माना है।
2. मानसिक हास – मनोविदलता के सभी रोगियों में मानसिक ह्रास के लक्षण देखे जाते हैं। कहने का तापत्पर्य यह है कि उसकी मानसिक क्रियाएँ विभिन्न दोषों से युक्त रहती हैं। उसका चिन्तनपूर्ण रूप से अव्यवस्थित रहता है। इसकी स्मृति बहुत कमजोर होती है। अपनी परिस्थितियों
का सुलझाने में असमर्थ रहते हैं और यहाँ तक कि अपना नाम, पता आदि को भी नहीं बदल मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि इसके रोगी का I.Q. सामान्य से बहुत कम होता है।
3. विभ्रम – मनोविदलता के रोगी का प्रधान लक्षण विभ्रम है। इससे ग्रस्त रोगियों में अनेक प्रकार के विभ्रम देखे जाते हैं, फिर उनमें संरक्षण की प्रधानता रहती है। मनोविदलता का रोगी ऐसा अनुभव करता है कि उसे भगवान या किसी काल्पनिक व्यक्ति की आवाज सुनाई पड़ रही है। कभी-कभी वह भगवान की आवाज को सुनता है और चिल्लाता है। रोगी वह भी समझता है कि सभी लोग उसके दुश्मन हैं और जहर देकर मारना चाहते हैं। खाने में उसे कोई स्वाद नहीं मिलता और वह आस-पास की दुर्गन्ध से सशक्ति रहता है। इस प्रकार के रोगी विभिन्न प्रकार के विभ्रमों का शिकार बन जाता है।
4. व्यामोह – मनोविदलता के रोगियों में व्यामोह (dilusions) के लक्षण भी देखे जाते हैं। रोगी यह अनुभव करता है कि लोग उसे जान से मारने का षड्यंत्र कर रहे हैं। चिकित्सक को भी वह दुश्मन समझता है। दवा को जहर समझकर पीने से इनकार करता है। डॉ. पेज ने मनोविदलता के रोगियों के व्यामोह की तुलना सामान्य व्यक्ति के स्वप्न से की है। जिस प्रकार स्वप्न की स्थिति में दृश्य को हम देखते हैं, वे शून्य प्रतीत होते हैं, ठीक उसी प्रकार इस रोग से पीड़ित रोगी अपने dilusions को शून्य स्वीकार कर लेता है।
5. भाषा-दोष – रोगी में बोलने की गड़बड़ी के लक्षण भी देखे जाते हैं। उनके वाक्य निरर्थक एवं लम्बे होते हैं। कभी-कभी कोई शब्दों को मिलाकर एक नए वाक्य का निर्माण कर लेते हैं। कभी रोगी इतनी तेज रफ्तार से बोलता है, जिसे दूसरे लोग सुन नहीं पाते हैं। इसी प्रकार रोगी में विचित्र लेखन के लक्षण देखे जाते हैं। उसकी लेखशैली दोषपूर्ण होती है। लिखने के सिलसिले में वे symbols, lines, drawing and words को एक ही साथ मिला देते हैं। व्याकरण के नियमों का वे कभी पालन नहीं करते हैं।
6. शारीरिक क्षमता का हास – मनोविदलता के रोगी शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। शरीर में मेहनत करने की क्षमता नहीं होती। वह हमेशा नींद की कमी महसूस करता है। इस प्रकार schizophrernia के रोगी में अनेक प्रकार के मानसिक और शारीरिक दोष पाये जाते हैं।
Q.28. व्यक्तित्व विकास की अवस्थाओं का वर्णन करें। अथवा, फ्रायड ने किस तरह से व्यक्तित्व विकास की व्याख्या की है ?
अथवा, फ्रायड द्वारा प्रस्तावित व्यक्तित्व-विकास की पंच अवस्था सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
Ans ⇒ फ्रायड ने व्यक्तित्व-विकास का एक पंच अवस्था सिद्धांत प्रस्तावित किया जिसे मनोलैंगिक विकास के नाम से भी जाना जाता है। विकास की उन पाँच अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था पर समस्याओं के आने से विकास बाधित हो जाता है और जिसका मनुष्य के जीवन पर दीर्घकालिक प्रभाव हो सकता है। फ्रायड द्वारा प्रस्तावित पंच अवस्था सिद्धांत निम्नलिखित है –
(i) मौखिक अवस्था – एक नवजात शिशु की मूल प्रवृत्तियाँ मुख पर केंद्रित होती हैं। यह शिशु का प्राथमिक सुख प्राप्ति का केंद्र होता है। यह मुख ही होता है जिसके माध्यम से शिशु भोजन ग्रहण करता है और अपनी भूख को शांत करता है। शिशु मौखिक संतुष्टि भोजन ग्रहण, अँगूठा चूसने, काटने
और बलबलाने के माध्यम से प्राप्त करता है। जन्म के बाद आरंभिक कुछ महीनों की अवधि में शिशुओं में अपने चतुर्दिक जगत के बारे में आधारभूत अनुभव और भावनाएँ विकसित हो जाती हैं। फ्रायड के अनुसार एक वयस्क जिसके लिए यह संसार कटु अनुभवों से परिपूर्ण हैं, संभवतः मौखिक अवस्था का उसका विकास कठिनाई से हुआ करता है।
(ii) गुदीय अवस्था – ऐसा पाया गया है कि दो-तीन वर्ष की आयु में बच्चा समाज की कुछ मांगों के प्रति अनुक्रिया करना सीखता है। इनमें से एक प्रमुख माँग माता-पिता की यह होती है कि बालक मूत्रत्याग एवं मलत्याग जैसे शारीरिक प्रकार्यों को सीखे। अधिकांश बच्चे एक आयु में इन क्रियाओं को करने में आनंद का अनुभव करते हैं। शरीर का गुदीय क्षेत्र कुछ सुखदायक भावनाओं का केंद्र हो जाता है। इस अवस्था में इड और अहं के बीच द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है। साथ ही शैशवावस्था की सुख की इच्छा एवं वयस्क रूप में नियंत्रित व्यवहार की मांग के बीच भी द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है। ….
(iii) लैंगिक अवस्था – यह अवस्था जननांगों पर बल देती है। चार-पाँच वर्ष की आयु में बच्चे पुरुषों एवं महिलाओं के बीच का भेद अनुभव करने लगते हैं। बच्चे कामुकता के प्रति एवं अपने माता-पिता के बीच काम संबंधों के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इसी अवस्था में बालक इडिपस मनोग्रंथि का अनुभव करता है जिसमें अपनी माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति आक्रामकता सन्निहित होती है तथा इसके परिणामस्वरूप पिता द्वारा दंडित या शिश्नलोप किए जाने का भय भी बालक में कार्य करता है। इस अवस्था की एक प्रमुख विकासात्मक उपलब्धि यह है कि बालक अपनी इस मनोग्रंथि का समाधान कर लेता है। वह ऐसा अपनी माता के प्रति पिता के संबंधों को स्वीकार करके उसी तरह का व्यवहार करता है।
बलिकाओं में यह इडिपस ग्रंथि थोड़े भिन्न रूप में घटित होती है। बालिकाओं में इसे इलेक्ट्रा मनोग्रंथि कहते हैं। इसे मनोग्रंथि में बालिका अपने पिता को प्रेम करती है और प्रतीकात्मक रूप से उससे विवाह करना चाहती है। जब उसको यह अनुभव होता है कि संभव नहीं है तो वह अपनी माता का अनुकरण कर उसके व्यवहारों को अपनाती है। ऐसा वह अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिए करती है। उपर्युक्त दोनों मनोग्रंथियों के समाधान में क्रांतिक घटक समान लिंग के माता-पिता के साथ तदात्मीकरण स्थापित करना है। दूसरे शब्दों में, बालक अपनी माता के प्रतिद्वंद्वी की बजाय भूमिका-प्रतिरूप मानने लगते हैं। बालिकाएँ अपने पिता के प्रति लैंगिक इच्छाओं का त्याग कर देती हैं और अपनी माता से तादात्मय स्थापित करती है।
(IV) कामप्रसुप्ती अवस्था – यह अवस्था सात वर्ष की आय से आरंभ होकर यौवनारंभ तक बनी रहती है। इस अवधि में बालक का विकास शारीरिक दृष्टि से होता रहता है। किन्तु उसकी कामेच्छाएँ सापेक्ष रूप से निष्क्रिय होती हैं। बालक की अधिकांश ऊर्जा सामाजिक अथवा उपलब्धि संबंधी क्रियाओं में व्यय होती है।
(v) जननागीय अवस्था – इस अवस्था में व्यक्ति मनोलैंगिक विकास में परिपक्वता प्राप्त करता है। पूर्व की अवस्थाओं की कामेच्छाएँ, भय और दमित भावनाएँ पुनः अभिव्यक्त होने लगती हैं। लोग इस अवस्था में विपरीत लिंग के सदस्यों से परिपक्व तरीके से सामाजिक और काम संबंधी आचरण करना सीख लेते हैं। यदि इस अवस्था की विकास यात्रा में व्यक्ति को अत्यधिक दबाव अथवा अत्यासक्ति का अनुभव होता है तो इसके कारण विकास की किसी आरंभिक अवस्था पर उसका स्थिरण हो सकता है।
Q.29. अभिवृत्ति से आप क्या समझते हैं ? अभिवृत्ति परीक्षण के प्रमुख प्रकारों का वर्णन करें।
अथवा, अभिवृत्ति की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
Ans ⇒ अभिवृत्ति मन की एक अवस्था है। किसी विषय के संबंध में विचारों का एक पुंज है जिसमें एक मूल्यांकनपरक विशेषता पाई जाती है अभिवृत्ति कहलाती है।
अभिवृत्ति की चार प्रमुख विशेषताएँ हैं – कर्षण शक्ति, चरम सीमा, सरलता या जटिलता तथा केन्द्रिकता।
(i) कर्षण शक्ति (सकारात्मक या नकारात्मक) – अभिवृत्ति की कर्षण शक्ति हमें बताती है कि अभिवृत्ति विषय के प्रति कोई अभिवृत्ति सकारात्मक है अथवा नकारात्मक। उदा के लिए यदि किसी अभिवृत्ति (जैसे-नाभिकीय शोध के प्रति अभिवृत्ति) को 5 बिन्दू मापनि व्यक्त करता है जिसका प्रसार 1. बहुत खराब, 2. खराब 3. तटस्थ न खराब न अच्छा 4. अच्छा से 5. बहुत अच्छा तक है। यदि कोई व्यक्ति नाभिकीय शोध के प्रति अपने दृष्टिकोण या मत का आकलन इस मापनी या 4 या 5 करता है तो स्पष्ट रूप से यह एक सकारात्मक अभिवत्ति है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति नाभिकीय शोध के विचार को पसंद करता है तथा सोचता है कि यह कोई अच्छी चीज है। दूसरी ओर यदि आकलित मूल्य 1 या 2 है तो अभिवृत्ति नकारात्मक है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति नाभिकीय शोध के विचार को नापसंद करता है एवं सोचता है कि यह कोई खराब चीज है। हम तटस्थ अभिवृत्तियों को भी स्थान देते हैं। यदि इस उदाहरण में नाभिकीय शोध के प्रति तटस्थ अभिवृत्ति इस मापनी पर अंक 3 के द्वारा प्रदर्शित की जाएगी तब एक तटस्थ अभिवृत्ति में कर्षण शक्ति न तो सकारात्मक होगी न ही नकारात्मक।
(ii) चरम सीमा – एक अभिवृत्ति को चरम-सीमा यह इंगित करती है कि अभिवृत्ति किस सीमा तक सकारात्मक या नकारात्मक है। नाभिकीय शोध के उपयुक्त उदाहरण में मापनी मूल्य ‘1’ उसी चरम सीमा का है जितना ‘5’। बस अंतर इतना है कि दोनों ही विपरीत दिशा में है। तटस्थ अभिवृत्ति नि:संदेह न्यूनतम तीव्रता की है।
(iii) सरलता या जटिलता (बहुविधता) – इस विशेषता से तात्पर्य है कि एक व्यापक अभिवृत्ति के अंतर्गत कितनी अभिवृत्तियाँ होती हैं। उस अभिवृत्ति को एक परिवार के रूप में समझना चाहिए जिसमें अनेक ‘सदस्य’ अभिवृत्तियाँ हैं। बहुत-से विषयों (जैसे स्वास्थ्य एवं विश्व शांति) के संबंध में लोग एक अभिवृत्ति के स्थान या अनेक अभिवृत्तियाँ रखते हैं। जब अभिवृत्ति तंत्र में एक या बहुत थोड़ी-सी अभिवृत्तियाँ हों तो उसे ‘सरल’ कहा जाता है और जब वह अनेक अभिवृत्तियों के पाए जाने की संभावना है, जैसे व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का संप्रत्यय, प्रसन्नता एवं कुशल-क्षेम के प्रति उसका दृष्टिकोण एवं व्यक्ति स्वास्थ्य एवं प्रसन्नता कैसे प्राप्त कर सकता है, इस संबंध में उसका विश्वास एवं मान्यताएँ आवश्यक हैं। इसके विपरीत, किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अभिवृत्ति में मुख्य रूप में एक अभिवृत्ति के पाये जाने की संभावना है। एक अभिवृत्ति तंत्र के घटकों के रूप में नहीं देखना चाहिए। एक अभिवृत्ति तंत्र के प्रत्येक सदस्य अभिवृत्ति में भी संभाव्य या ए. बी. सी. घटक होता है।
(iv) केन्द्रीकता – यह अभिवृत्ति तंत्र में किसी विशिष्ट अभिवृत्ति की भूमिका को बताता है। गैर-केन्द्रीय या परिधीय अभिवृत्तियों की तुलना में अधिक केन्द्रीकता वाली कोई अभिवृत्ति, अभिवृत्ति तंत्र की अन्य अभिवृत्तियों को अधिक प्रभावित करेगी। उदाहरण के लिए विश्वशांति के प्रति अभिवृत्ति में सैनिक व्यय के प्रति एक नकारात्मक अभिवृत्ति, एक प्रधान या केन्द्रीय अभिवृत्ति के रूप में ही हो सकती है तो बहु-अभिवृत्ति तंत्र की अन्य अभिवृत्तियों को प्रभावित कर सकती है।